टाइम पास (लघुकथा)
वे दोनों पड़ौसी थे। उन्हीं की तरह झगड़ भी रहे थे। पहले बातों में तू तू मैं मैं हुई, फ़िर ज़ोर ज़ोर से बहस होने लगी।
वह ग़ज़ब ज़ोर से बोल रही थी, कहा- सारे दिन बदबू आती रहती है, वो तो हम हैं जो सह लेते हैं, कोई और हो तो उसका सिर ही चकरा जाए।
वह कौन सा कम था, तुनक कर बोला - अरे जाओ जाओ, सिर दर्द तो मेरे हो जाता है, सारे दिन तुम्हारी चिक चिक से।
वह बोली - धम धम की आवाज़ आती रहती है, ऐसा लगता है जैसे भूकंप अा गया हो, पता नहीं क्या करता रहता है दिन भर।
- और तुम? मुझे तो ऐसा लगता है जैसे कहीं बाढ़ ही अा गई हो,पानी बेकार बहता रहता है।उसने कहा।
अभी उनकी ये महाभारत और न जाने कितनी देर चलती,पर तभी कुछ खटका सा हुआ। दोनों सहम कर चुप हो गए।शायद केयर टेकर उन्हें दोपहर का खाना डालने आया था।
"ज़ू" के कर्मचारी ने पहले बंदर को फल और रोटी डाली, फ़िर बतख़ को काई की खिचड़ी डाल कर लौट गया।
दोनों पड़ौसी बहस भूल कर अपने अपने पिंजड़े में लंच लेने लगे।
आज ज़ू की छुट्टी थी,इसलिए उन दोनों पड़ौसियों के पास यही बहस तो टाइम पास का साधन था वरना दिन कैसे कटता?