गठरी (लघुकथा)
वह बीच चौराहे पर बैठा गठरी बांध रहा था। न जाने क्या - क्या था,सिमटने में ही नहीं आती थी गठरी।उसकी आंखों में आंसू थे।मुझे बड़ा अचंभा हुआ,कोई इतना कुछ ले जा रहा हो तो फ़िर रोने की क्या बात?मैंने उससे पूछ ही लिया- "बाबा,तुम्हारे पास इतना ढेर सारा असबाब है तो फ़िर रो क्यों रहे हो?"
उसने कातर दृष्टि से मुझे देखा और बोला- "जितना है उससे ज़्यादा तो मैं यहां छोड़ कर जा रहा हूं।"
-"अरे,तो उसे भी ले जाओ, तुम्हें कौन रोक रहा है?"मैंने कहा।
वह बोला- "बेटा,मैं उसे नहीं ले जा सकता,मुझे इजाज़त नहीं है।"
-"तो फ़िर खुशी खुशी जाओ,वैसे भी कुछ लेकर जाने से कुछ देकर जाना तो हमेशा अच्छा होता है।" मैंने कहा।
वह ग़मगीन होकर बोला- "बेटा,मुझे कुछ छोड़ कर जाने का गम नहीं है,मैं तो इसलिए उदास हूं, कि फ़िर अब मेरा यहां आना कभी नहीं होगा। मैं यहां दो दिन का मेहमान हूं।" इतना कहते ही उसके आंसू और भी तेज़ी से बहने लगे।
मैंने भरे गले से पूछा- "तुम्हारा नाम क्या है बाबा?"
वह बोला- "समय"
-प्रबोध कुमार गोविल
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