Hindi Quote in Story by Prabodh Kumar Govil

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प्रसाद (लघुकथा)
शहर का वो चौराहा अक़्सर सुनसान रहता था क्योंकि वह कुछ बाहरी जगह थी जहां यातायात के साधन कुछ कम आते थे।
वहीं एक किनारे बने छोटे से मंदिर के बाहर दो भिखारी रहते थे। भिखारी शरीर से अपंग लाचार थे, सो रहना क्या,दिन भर में जो कुछ मिल गया सो पेट में डाला और मंदिर के पिछवाड़े लगे नल से पानी पीकर पड़े रहते।
एक वृद्धा अक़्सर सुबह के समय मंदिर आया करती थी।वह आरती के बाद थोड़ा बहुत प्रसाद उन दोनों के आगे डाल कर अपने रास्ते चली जाती।
एक दिन बुढ़िया प्रसाद का दौना उन दोनों के आगे रख ही रही थी कि उनकी बदबू,गंदगी और आलस्य से खिन्न होकर बोल पड़ी- अरे बेटा, पानी का नल पास में लगा है,और कुछ नहीं करते तो कम से कम हाथ मुंह तो धो लिया करो।
एक भिखारी बोल पड़ा- एक दिन मैं नहाया था,उस दिन मैंने देखा कि मेरे पास एक भी मक्खी नहीं फटकी। जबकि रोज़ सैकड़ों मक्खियां यहां मेरे तन पर भिनभिना कर गंदगी से अपना भोजन पाती हैं। तब मैंने सोचा कि क्या मुझे किसी का भोजन छीन कर उसे दरबदर करने का अधिकार है?
वृद्ध महिला पल्लू को मुंह पर लेकर ज़ोर ज़ोर से हंसी।
लेकिन वो अपंग भिखारी की बात पर नहीं हंस रही थी, बल्कि शहर वासियों की सोच पर हंस रही थी, कि अगर वो भी इनकी तरह सोच पाते तो ये बेचारे भिखारी काहे को बनते?

Hindi Story by Prabodh Kumar Govil : 111062426
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