सबको रोज़गार (लघुकथा)
अच्छा मौसम था तो सारे जानवर एक बरगद के नीचे इकट्ठे हो गए। देखते-देखते भीड़ सभा में बदल गई। सभी से कुछ न कुछ बोलने को कहा गया।
शुरुआत घोड़े ने की। बोला-हम सब खाने, सोने और लड़ने के अलावा कुछ नहीं करते। इंसान को देखो, उसके पास ढेरों काम हैं। उसका समय कितनी आसानी से कट जाता है। हम दिन भर बैठे ऊंघते हैं और सूर्योदय से ही सूर्यास्त का इन्तज़ार करते हैं।
बात दमदार थी, सबको ठीक लगी।यह तय किया गया कि कल से सब अपनी अपनी क्षमता के अनुसार कुछ भी काम करेंगे।
अगली सुबह जंगल में कर्मयुद्ध का बिगुल बजाती हुई उगी।
पक्षियों ने सोचा, हम दिन भर ज़मीन पर दाना चुगते हैं, जहां कुत्ते बिल्लियों के आक्रमण का भय होता है। क्यों न हम सब मिल कर अन्न के दानों को पहाड़ की ऊंची चोटी पर पहुंचा दें। वे इस काम में जुट गए।
मछलियां भी सुबह से ही काई और मिट्टी से तालाब की चार दीवारी बनाने में जुट गईं, ताकि अन्य कोई पशु पानी के आसपास न आ सके।
चूहे और खरगोश ने मित्रों के साथ मिलकर अपने भोजन को बिलों में घसीटना शुरू कर दिया ताकि अन्य प्राणियों की पहुंच से वो बच सके। घास पात सब ज़मीन के नीचे जाने लगा।
अब घोड़े का माथा ठनका। उसे अपने सुझाव का नतीजा समझ में आया। देखते देखते घास, दाना, पानी सब पहुंच से दूर जाने लगा। फाकाकशी की नौबत आ गई।
आखि़र सभा फ़िर हुई। घोड़े ने मांग की कि भोजन पानी को जंगल की सामूहिक संपत्ति घोषित किया जाए। प्रस्ताव पारित किया गया कि इंसान की नक़ल को जंगल विरोधी गतिविधि मानते हुए अपराध घोषित किया जाता है।