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अब रावण दैहिक नहीं है,
बुराई प्रतीक, दुख देने को......
मनुष्य ने किया आत्मसात
इस परंपरा ढोने को......
घर घर जन्म लेे रहे हैं राम
दशरथ है अभिशप्त,
संतान वियोग में जीने, मरने को......
अब नहीं है केकैयी, ना ही मंथरा
अब तो कौशल्या ही काफी है
वचबद्धता के लिए
दशरथ के कान भरने को......
क्योंकि दशरथ है अभिशप्त,
संतान वियोग में मरने को.......
मातापिता की चाहतों के वनवास
भोग रहे हैं बच्चे (पीड़ित भी, भोगविलास भी)
या विरक्त हो, तज रहे सुख को......
तन हुआ क्षत विक्षत
ना जाने किस सूटकेस में बंद
क्योंकि दशरथ है अभिशप्त,
संतान वियोग में...........