A Gazal selected from my ebook मरी-ए-इश्क़ part 2
मैं कहूँगा नही माफ़ कर दे मुझे ,
गर ख़ता है मेरी तो सजा देने दो ।
बुझ तो जाऊंगा अपने ही अश्कों से मैं ,
ओ जलाती है तो खुलकर जला लेने दो ।
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ओ अगर खुश है मुझको भुला करके भी ,
रोज तकियों के अस्तर भिगोती है क्यों …?
भूल जाती वो उल्फ़त के किस्से सभी …,
फिर अकेले में छुप छुप के रोती है क्यों …??
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ओ ग़ज़ल बनके मुझमें अमर हो गई ,
उसकी हसरत में मैं जन्म लेता रहा ।
क्या ख़ता है जो इतनी.. है नाराजगी ,
ओ बिखरती गई मैं…पिरोता रहा...।।