बचपन में
मैं एक खुला खिड़की-घर थी…
जिसमें हवा खामोशी बनकर आती,
और ख्यालों की नीली पतंगें
छत पर अकेली नाचतीं
बाहर की दुनिया
मानो दूर कहीं धुंध की नदी के उस पार थी..
आवाज़ें आती थीं, पर
मेरे कानों तक पहुँचते पहुँचते
खो जाती थीं धूप की तरह
लोग कहते..“कम सुनती है शायद…”
और मैं हँस देती,
क्योंकि मेरे भीतर
अपनी ही दुनिया का सुबह-सुबह बजता संगीत था
फिर अचानक
समय ने मेरे सपनों की रेत की हवेली
दोनों हाथों से उठाकर
हक़ीक़त की पत्थर की सड़क पर दे मारी
धड़ाम...
उस एक झटके में
मेरे कानों की खिड़कियाँ
पूरा शहर सुनने लगीं
अब हर आवाज़
तलवार बनकर भीतर उतरती है..
अपेक्षाओं की खनक,
ज़रूरतों के ताले,
ज़िम्मेदारियों की घंटियाँ…
और मैं देखती हूँ..
अपने ही भीतर एक धीमी साँस बुझती हुई
कभी-कभी जी चाहता है
फिर से मौन की ऊन से बुनी टोपी पहन लूँ,
जो हर शोर को
बर्फ़ की तरह सोख ले
फिर से खो जाऊँ
उन बादलों में
जिनमें मेरा नाम लिखा था
कहीं ऐसी भी
एक जगह हो
जहाँ दुनिया की कोई ध्वनि न पहुँचे,
और मैं
अपनी ही धड़कन को
दुबारा पहचान सकूँ
पर अफ़सोस..
कानों तक हर आवाज़..
न चाहते हुए पहुँच जाती है...
और मैं
सब सुनते-सुनते
अपने ही भीतर की आवाज़
धीरे-धीरे
खो रही हूँ
~रिंकी सिंह ✍️
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