नाटक-ए-मोहब्बत
किसी का दिल तोड़कर, कुछ लोग
मोहब्बत का अभिनय करते हैं,
ख़ून से लिखे गए ख़त कोई और पढ़े,
और ये लोग नई स्याही भरते हैं।
एक घर उन्होंने हँसते-हँसते जलाया,
दूसरे में दीप जलाने की क़सम खाते हैं,
जो राख हुई थी किसी की रातों की,
उसे ही रंगोली बताकर सजाते हैं।
वादों की दुकान पे अब दिल बिकते हैं,
हर शख़्स यहाँ सौदे का माहिर है,
जख़्मों को इत्र कहते फिरते हैं,
और आँसुओं की भी अपनी तासीर है।
जिसने टूटकर चाहा, उसे दोष मिला,
जो तोड़ गया, वही फ़सीह कहलाया,
सच की राहें काँटों से भर दी गईं,
और झूठ ने रेशम का बिस्तर बिछाया।
वे कहते हैं — “इश्क़ तो फ़ितरत है”,
पर फ़ितरत में ये छल कहाँ होता है?
दिल अगर पर्दा न बने एहसासों का,
तो नाटक का मंच कहाँ होता है?
किसी की नब्ज़ पर दर्द लिखकर,
दूसरे की हथेली में शबनम रखते हैं,
जो सवाल उठे, तो होंठ सिल देते हैं,
और ख़ामोशी को ही मरहम रखते हैं।
ओ नाटक रचने वालों, एक दिन
पर्दा गिरेगा ज़रूर किसी शाम,
ताली जो आज तुम्हारे हिस्से है,
कल तुम्हारे हिस्से होगी बदनाम।
क्योंकि इश्क़ किताब नहीं झूठों की,
जो हर पन्ने पलट दी जाए,
ये तो इबादत है उनकी आँखों की,
जो सच्चाई पर ही बस जाए।
आर्यमौलिक