ग़ज़ल
“ दुनिया के आईने“
जां बहुत देखे ख़ूबसूरत मरे कुत्ते देखे,
क्या खूब नेक नक़ाबों में कमीने देखे।
इंसानियत का दावा लिए फिरते हैं यहाँ,
उन्हीं में हमने ख़ंजर संगी छुपाये देखे।
अजीब है, हर शख़्स तराजू-ए-वफ़ा में,
मगर जीभ में झूठ ही झूठ के महीने देखे।
तमाशा-ए-जमाना भी क्या चीज़ है यारो,
गिरा हुआ भी यहाँ ख़ुद को अमीने देखे।
अदब की चौखट पे बैठे हैं जो फ़क़ीराना,
उन्हीं की आँखों में हमने करिष्में देखे।
वफ़ा की तख़्तगाह पर, ज़हर बिकता है,
मुहब्बत के बाज़ार में दाम गिने देखे।
जो कल तक कहते थे, “हमी रहनुमा हैं”,
वही अब रोज हऱ किसी का तलवे देखे।
कमीनाई ये सब लफ़्ज़ तो नाम हैं बस,
असल में हर आईना यहाँ घीसेपिटे देखे।
बहोत देखे ख़ूबसूरत जुमा मरे कुत्ते देखे,
मगर इंसान की हिकारत में ना गिने देखे।
“गल” के फ़न में भी देखी है ये रिंंजशे,
जो सच्चे लगे, वही सबसे कमीने देखे।
जुगल किशोर शर्मा बीकानेर ।
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