खतों की राख
वो किसी जले काग़ज़ के टुकड़े नहीं थे,
ख़त थे मेरे—
जिन्हें लिखते वक्त मैंने अपनी साँसें गिरवी रख दी थीं,
हर अल्फ़ाज़ में धड़कनों की आहट थी,
हर स्याही की बूंद में मेरी तड़प की नमी थी।
वो खत उसके लिए थे—
जो मेरी ख़ामोशी को भी सुन लेती थी,
जो कहती थी—"तुम लिखना, मैं पढ़ लूँगी",
पर शायद उसने कभी पढ़ा ही नहीं,
बस छोड़ दिया जैसे कोई अनचाहा बोझ।
आज वो खत जली हुई राख जैसे पड़े हैं,
कुछ अधूरे, कुछ स्याही से सने,
कुछ पर आँसुओं के निशान हैं,
कुछ पर उसके नाम के इर्द-गिर्द
हजार बार खींची हुई उँगलियों की थरथराहट है।
मैंने चाहा था—
वो जब भी इन्हें खोलेगी,
तो मेरी रूह तक पहुँच जाएगी,
पर उसने उन्हें मुट्ठी भर धूल समझकर
हवा में उड़ा दिया।
हर रात मैं उन टुकड़ों को सीने से लगाता हूँ,
जली हुई लकीरों में उसकी परछाईं ढूँढता हूँ,
और सोचता हूँ—
क्या ये सब सिर्फ मेरे लिए था?
या उसके लिए कभी कोई मायने नहीं रखता था?
अब ये खत मेरे पास नहीं,
ये राख मेरे भीतर है—
एक जलता हुआ सच,
जो कहता है—
मोहब्बत अगर अधूरी रह जाए
तो खत भी मंदिर की वेदी बन जाते हैं,
जहाँ हर रात इंसान अपनी आत्मा चढ़ाता है।
और मैं...
मैं हर रात उन्हीं खतों पर सिर रखकर सोता हूँ,
मानो वो मेरी आख़िरी पनाह हों,
मेरी तन्हाई का अकेला साथी हों।
वो किसी जले कागज़ के टुकड़े नहीं थे,
ख़त थे मेरे—
और अब वो ही मेरे जीवन की
सबसे लम्बी और दर्दनाक कविता बन चुके हैं।
आर्यमौलिक