बेमतलब होने का डर — भाग 2
कभी लगता है,
जीवन कोई अधूरा ग्रंथ है,
जिसकी हर पंक्ति मैं लिख तो देता हूँ,
पर अर्थ कभी पूरा नहीं कर पाता।
मन प्रश्न पूछता है—
क्या मैं ही अधूरा हूँ?
या फिर यह दुनिया
हम सबको अधूरा ही रखती है?
हर दिन जागता हूँ
नए संकल्प के साथ,
पर रात की खामोशी में
वही पुराने सवाल
तारों की तरह झिलमिलाने लगते हैं।
कभी सोचता हूँ—
अगर सब कुछ बेमतलब है,
तो फिर यह धड़कन क्यों जारी है?
क्यों सपनों की परछाइयाँ
अब भी मेरी पलकों पर उतर आती हैं?
शायद मतलब ढूँढ़ने से नहीं मिलता,
बल्कि जीने से बनता है।
जैसे दीपक
अंधेरे का हिसाब नहीं पूछता,
बस जलकर
अपना उत्तर दे देता है।
तो क्या मैं भी
एक दीपक की तरह
जलने के लिए ही बना हूँ?
या फिर राख में छिपी चिनगारी
कभी अग्नि बनकर
आकाश को छूने की हिम्मत करेगी?
डर अब भी है…
पर डर के पीछे
एक छोटा-सा साहस भी है।
वो कहता है—
"मतलब खोज मत,
मतलब बन जा।"