ज़िंदगी का अपना युद्ध
ज़िंदगी कोई खुला मैदान नहीं,
ये एक अनंत रणभूमि है।
जहाँ हम हर सुबह तलवार नहीं,
बल्कि हिम्मत पहनकर उठते हैं।
दुनिया की भीड़ कभी शत्रु बनती है,
तो कभी अपने ही मन की आवाज़
हमें संदेह के बाणों से छलनी करती है।
यह युद्ध बाहर नहीं, भीतर जलता है।
कभी सपनों की ध्वजा गिर जाती है,
कभी थकावट के घोड़े रुक जाते हैं।
पर अंततः वही जीतता है
जो हार को अपने कवच की तरह पहन लेता है।
ज़िंदगी का यह युद्ध कभी समाप्त नहीं होता,
बस योद्धा बदलता है
कभी हम अपने आँसुओं से लड़ते हैं,
कभी अपनों की खामोशी से।
जीत किसी माला में नहीं है,
जीत उस पल में है
जब टूटकर भी उठना सीखते हैं
और अपने ही अंधकार को हराकर
प्रकाश की ओर एक कदम बढ़ाते हैं।