रंगों की कतार बदलती है बार-बार,
कभी भी क्रम में ना रहती।
लॉर्ड झगड़कर हो जाती है
आगे पीछे बार-बार।
कभी बसंत आई
फूलों की लेकर बाहर,
ज़रा सी महक नहीं की
आ गई ग्रीष्म लेकर आग।
ग्रीष्म जाने का ना ले नाम,
किसी रंग को ना आने दे।
टिकी रही बना रखी कतार,
किसी कमजोर क्षण में बरखा आगे आई।
मिला सुख अपार,
ज़रा सा पैर टिकाया बरखाने।
शिशिर आ गई कातिल,
ठंड की लेकर तलवार।
ढक्कन धक्का करती हुई
रंगों की यह कतार,
आगे पीछे रहते रंगों से
रंग भरकर जीवन चरित्र
बनता है चित्रकार।
शोभा जोशी