वो इश्क को खेल समझती थी।
हमे खेल खेल में इश्क हुआ।
वो इश्क को काम समझती थी।
हमे काम काम में इश्क हुआ।
वो इश्क को नशा बताती थी।
हमे नशे नशे में इश्क हुआ।
वो इश्क़ किसी से करती थी।
इस बात का हमको इल्म नहीं।
कहने से मुझसे डरती थी।
उसने बोला डर इश्क है क्या ?
हम बोल पड़े खो देने का।
उसने बोला क्या कहते हो ?
खोने के डर में इश्क कहां ?
हमने बोला ओ सुन न ज़रा
मैं गर न रहूं तेरे संग तो।
या फिर मैं मर ही जाऊं!
इतना कहने में देर हुई।
मेरे लब पर उसकी उंगली
अपने अंतरमन को फेर गई।
वो बोली
अब न कहना ये।
तुम बिन फीका है ये गहना।
तुम बिन सुनी बगिया मेरी।
तुम बिन रूठी दुनिया मेरी।
तुम हो तो सुकोमल पुष्प हैं ये।
तुम हो तो मेरा जीवन है।
तुम ही तो हो संसार मेरा।
नित नूतन निर्झर प्यार मेरा।
इतना तो उसका कहना था।
मुझको धारा में बहना था।
उसको शायद वो शब्द लगें।
मुझको तो पूर्ण प्रकाश मिला।
मैं मुरझाया था कोई फूल
अब खिला तो सूरजमुखी बना।
सूरज से भी तेज और
प्रियतम के रंग में था मैं सना।
Anand tripathi