उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 21 की
कथानक : 31 पृष्ठीय इस अंक के आरम्भ में कविता इस बात से परेशान है कि दूसरों का अहित करने में लोग आनंदित क्यों होते हैं? बेटी को परेशान देखकर उसकी माँ को कहना पड़ता है कि आराम की जिंदगी के लिए टीचिंग से बढ़िया जाॅब नहीं! लेकिन अब तो गले में पड़ा ढोल बजाना ही पड़ेगा। इस पर कविता का कहना है कि वह कभी हार मानने वाली नहीं है।
उधर केहर सिंह सरपंच कविता से जख्म खाकर दूसरे दिन मंत्री से मिलकर कहता है कि जगपाल और उसके पिल्ले (रमन) को दुरुस्त करने से पहले इस एसडीएम को सबक सिखाना पड़ेगा।
मंत्री एसडीएम को खूब खरी-खोटी सुनाता है तो कविता गलत काम करने से साफ मना कर देती है। इस पर मंत्री, मुख्यमंत्री से मिलकर एसडीएम को तुरंत बदलने का अनुरोध करता है जिसे वे स्वीकर कर लेते हैं।
सचिवालय से फोन आने पर उपाचार्य भी एसडीएम का साथ छोड़ देते हैं जिससे वह अकेली पड़कर निराशा में डूब जाती है।
तभी रमन वहाँ पहुँच जाता है जिससे बात कर वह कुछ हल्कापन अनुभव करती है।
अब कविता सोचती है कि उसे रोज-रोज नाखुश देखकर मम्मी-पापा भी परेशान ही होंगे, इससे तो अच्छा हो, वे शिमला चले जाएँ। कविता के मम्मी-पापा भी शिमला जाकर घर सँभालना चाहते ही थे।
उनके जाने के बाद घर सूना हो गया था कि रमन मिलने आ जाता है तथा प्रशंसा करता है कि उनके ज्वाइन करने के बाद कार्यालय का कायाकल्प हो गया है।
एक दिन कविता को ट्रेन में मिले नेक सेवानिवृत्त मुख्य सचिव का ध्यान आता है तो वह उन्हें फोन कर उन्हें अपना दुखड़ा सुनाती है कि उसकी सच्चाई और ईमानदारी एक मंत्री को रास नहीं आ रही है। इस पर वे उसको सलाह देते हैं कि अपना मानसिक संतुलन बनाए रखकर ईमानदारी से एक निश्चित दायरे में रह कर अपना काम करती रहो।
इस पर वह काफी हल्का महसूस करती है और चाहती है कि इसके पहले कि वह स्थानांतरित हो, सरपंच की जाँच का काम पूरा कर दे।
दूसरे ही दिन वह राधोपुर जाकर बिना रमन से मिले भ्रष्ट सरपंच की जाँच रिपोर्ट उसी दिन पूर्ण कर उपायुक्त को भेज देती है।
उधर सरपंच इस बाबत मंत्री को अवगत कराता है तो मंत्री मुख्यमंत्री को फोन कर आज ही एसडीएम को कार्यमुक्त करने हेतु प्रार्थना करता है।
उपायुक्त कविता की रिपोर्ट पर उसकी सराहना करते हैं तथा कहते हैं कि वे उस जैसी ईमानदार अधिकारी को खोना नहीं चाहते। लेकिन उन्हें ऊपरी आदेश के कारण कविता को अग्रिम आदेशों तक अवकाश पर भेजना पड़ता है।
केहर सिंह उसके अवकाश पर जाने से अपने साथियों के साथ शराब पीकर जश्न मनाता है।
एसडीएम के अवकाश पर जाने से रमन अवकाश पर जाने का कारण जानने के लिए कविता से घर जाकर मिलता है जहाँ कविता उसके बहुत जोर देने पर उसे खाना खिलाते हुए कारण बताती है।
रमन उसे भूलकर भी सर्विस न छोड़ने की बात पर जोर देता है और कहता है कि वह लोगों का हुजूम मुख्यमंत्री के सामने खड़ा कर देगा। हालांकि कविता उसे ऐसा करने से मना कर देती है।
उपन्यासकार ने इस अंक में उन सभी दाँव-पेचों का जिक्र किया है जब एक अधिकारी अपनी ईमानदारी के लिए, तो मंत्री उसे हटाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं। इस संघर्षपूर्ण लड़ाई का खाका लेखक ने बहुत ही शानदार तरह से खींचा है जिसमें दाँव-पेचों के निम्न अंशों से पाठक हतप्रभ रह जाता है:
- 'राजनीति करनी हो तो उसके गुर भी सीखने चाहिए। राजनीति में ऐसी बेइज्जतियाँ तो हजारों बार होती हैं। अगर हम ऐसी बातों से घबराने लग गए, फिर तो हो गई राजनीति। अच्छा राजनेता वही होता है जो पूरी तरह से शर्मप्रूफ हो। एक कान से सुने और दूसरे से निकाल दे और केवल उसी बात का ध्यान रखे जो उसके अपने हित की हो।' (पृष्ठ 324)
- 'तुम सर्विस में नई-नई आई हो न, इसलिए शायद तुम्हें पता नहीं कि सरकार के हाथ कितने लंबे होते हैं। अगर नौकरी करना हो तो स्थानीय विधायक और मंत्री की बात को मान कर चलना पड़ता है, नहीं तो रास्ते के पत्थर की तरह सारी उम्र ठोकरें खानी पड़ती हैं।' (पृष्ठ 326)
- 'तुमने पूरे मुल्क की ईमानदारी का ठेका ले रखा है क्या? क्यों व्यर्थ के पचड़ों में पड़ती हो। नौकरी करनी है तो अपने आप को इन लोगों के मुताबिक ढालना पड़ेगा, वर्ना त्याग-पत्र देकर अपने घर बैठो।' (पृष्ठ 329)
- 'सर्विस में खामियाँ देखकर एक मेहनती और ईमानदार अधिकारी उसे छोड़ कर भाग जाए तो फिर इस देश का रखवाला कौन होगा? क्या वे लोग, जो पहले ही इस देश को दीमक की तरह चाट रहे हैं? इसलिए प्रत्येक क्षेत्र में अच्छे, ईमानदार और साहसी नौजवानों की आवश्यकता है। तभी बुराई पर अच्छाई की जीत का मार्ग प्रशस्त होगा।' (पृष्ठ 340)
- 'मेरे शेरों! सरपंच गाँव का राजा होता है। किस के साथ क्या सलूक करना है, यह देखना उसका काम होता है। इन शहर की छोरियों को क्या पता, गाँव क्या होता है? आई थी बड़ी गाँव में फैसले करने, खुद अपना ही फैसला करवा गई। हा...हा...हा।' (पृष्ठ 346)
- 'क्योंकि अन्याय के विरुद्ध लड़ना ही संघर्ष है। जो सामना करेगा, वो जीतेगा और जो घबराकर पीठ दिखाएगा, वो हारेगा। मैं आपको हारते हुए नहीं देखना चाहता।' (पृष्ठ 350)
इस भाग के कई अंश उद्धृत करने योग्य हैं। ये अंश लेखक की विषय पर पकड़, प्रशासन तथा राजनीतिक दाँव-पेंच से परिचित होने तथा सुयोग्य लेखनी की क्षमताओं से परिचय करवाते हैं। ऐसे में पाठक जिज्ञासावश अगले भाग की प्रतीक्षा करने को विवश हो जाते हैं।
समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
22.12.202