उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 18 की
कथानक : सरपंच केहर सिंह की काफी छीछालेदर हो चुकी थी...रमन का बाइज्जत बरी होना, जयवंती का विवाह सम्पन्न हो जाना, सरपंच के भ्रष्टाचार का उजागर होना, प्रौढ़ शिक्षा का विस्तार होना, उधर गुंजनपुर वालों का भी उससे खार खाए बैठना...ये सब वे कारक थे जिनके कारण केहर सिंह की छवि धूमिल हो चुकी थी। ऐसे में विधायकों के चुनाव का बिगुल भी बज गया था। केहर सिंह जब अपनी अंतिम आशा नेता जी से मिलने गया तो उन्होंने चुनाव तक चुप रहने का इशारा कर दिया और चुनाव जीतने के लिए सभी हथकंडे अपनाने की सलाह दे डाली।
शराब खूब बाँटी जा रही थी और नेता इस बार चुनाव फिर से जीत कर मंत्री भी बना दिए गए। अब तो लोगों से आँखें चुराने वाला केहर सिंह अकड़ कर चलने लगा। एक दिन वह मंत्री जी के पास वापस रमन के विरुद्ध पुराना राग अलापने लगा।
मंत्री ने राय दी कि वह राधोपुर आकर लोगों को धन्यवाद भी दे देगा और रमन के विरुद्ध एसडीएम को खींचकर कह देगा।
उधर मंत्री के आने के दिन वह मंत्री जी के स्वागत के लिए जीप में सवार हो गया किन्तु शराबी ड्राइवर ने दुर्घटना कर सबको घायल कर दिया। सरपंच की भी दाहिनी टाँग टूट गई और उसे अगले छ: महीने तक उपचार लेना पड़ा।
उपन्यासकार ने चुनाव के दिनों की सही तस्वीर पेश की है जब शराब बाँटने का दौर कई दिनों तक चलता रहता है और चुनाव जीत भी लिए जाते हैं।
इस भाग के कुछ प्रमुख प्रसंग द्रष्टव्य हैं:
- अपने आपको चारों ओर से घिरा हुआ पाकर केहर सिंह सरपंच काफी मायूस था तथा प्राय: लोगों की नजरों से बचकर ही रहने लगा था। अब उसकी समस्या शिकार करने को नहीं अपितु स्वयं को शिकार होने से बचने की थी। (पृष्ठ 289)
- 'मुझे मंत्री बन लेने दे एक बार, उसकी गर्दन मरोड़ कर मैं उसे तेरे हाथ में पकड़ा दूँगा। मगर अभी चुप रहो। तुम नहीं जानते, इन छोटी-छोटी बातों का चुनाव पर बहुत प्रभाव पड़ता है।' (पृष्ठ 290)
- पैसों और बाहुबल के दम पर नेता महोदय चुनाव जीत गए और अपने रसूख की बदौलत मंत्रीमंडल में स्थान पाने में भी कामयाब हो गए। (पृष्ठ 295)
- प्रधान, थोड़ा धीरज रख। तेरा काम मेरे जेहन में पहले से ही है। मैं उसे भूला नहीं हूँ...ऐसा करते हैं किसी दिन तेरे गाँव का दौरा रख लेते हैं। लोगों का धन्यवाद भी हो जाएगा और लगे हाथ तेरे काम के लिए उप मंडल अधिकारी को भी थोड़ा खींचकर कह दूँगा। (पृष्ठ 295)
- इसे अच्छाई की जीत कहें या बुराई की हार, केहर सिंह सरपंच की सभी तमन्नाएं धराशायी होकर रह गईं। आगामी छ: महीनों तक वह अस्पताल में उपचाराधीन रहा। (पृष्ठ 297)
जब गाँव का मुखिया ही अपनी सारी बुराइयों के साथ गाँव का भला करने वाले के पीछे पड़ जाए और मंत्री भी उसका साथ देने लगे तो न्याय ईश्वर के हाथों हो जाता है। शायद यही सीख इस भाग की विशेषता बन गई है।
समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमे