Quotes by चंद्रविद्या चंद्र विद्या उर्फ़ रिंकी in Bitesapp read free

चंद्रविद्या चंद्र विद्या उर्फ़ रिंकी

चंद्रविद्या चंद्र विद्या उर्फ़ रिंकी

@rk1996tgmailcom9244


कहानी: दस रुपए

स्टेशन पर भीड़ कम थी, पर आवाज़ें अब भी गूंज रही थीं।
आख़िरी लोकल के दरवाज़े से तीन चेहरे उतरते हैं —
थकी हुई सी ऋतु,
मुस्कुराता हुआ विजय,
और बातों में खोई स्नेहा।

ऋतु की चाल में थकान थी —
पर आँखों में एक हल्की-सी चमक भी,
जैसे खुद से कह रही हो,
"बस घर पहुंच जाऊं, फिर सब ठीक लगेगा..."

जेब टटोलती है —
एक सिक्का नहीं…
सिर्फ एक नोट — दस रुपए का।

"बस इतने ही?"
हँसी आती है कभी-कभी खुद पर —
वो हँसी जो आँखों के कोनों तक नहीं पहुँचती।

स्नेहा ने पूछा, "ऋतु, रिक्शा लें क्या? चलो ना, बहुत थक गए हैं!"
विजय बोला, "मैं पैसे दे दूँ यार, छोड़ न ये आदतें।"

ऋतु ने हल्का-सा सिर हिलाया।
"नहीं, मुझे एक दुकान से कुछ लेना है… आप लोग निकलो।"

स्नेहा ने दो बार पूछा, विजय ने मुस्कुरा कर हाथ हिलाया —
और फिर दोनों भीड़ में कहीं खो गए।

ऋतु ने गहरी साँस ली।
वो साँस जो सिर्फ़ थकान की नहीं थी,
वो साँस जो फैसले जैसी लगती है।

उसकी चाल अब बदल गई —
तेज नहीं,
पर ठोस — जैसे कोई अपने मन के भीतर चल रहा हो।

सड़क के दोनों ओर रोशनी थी —
पकोड़ों की खुशबू,
फ्राइज़ की चमक,
और ठेले पर रखे रसदार गुलाब जामुन।

एक दुकान से आवाज़ आई —
"दस के दो समोसे! गरम गरम!"

पैर रुक गए।
मन भी वहीं बैठ गया।
लेकिन दिमाग ने कहा —
"तेल... पेट दर्द... नहीं चाहिए।"

कुछ आगे —
जूस की दुकान।
"10 का मिक्स फ्रूट।"
प्यास थी, लेकिन खाली पेट पर सिर्फ़ रस?
"नहीं..."

हर दुकान के सामने जाकर खड़ी हुई,
फिर चल दी।
बार-बार जेब में हाथ डालती,
दस रुपए की तह खोलती,
फिर मोड़कर रख देती।

वो सिर्फ़ भूख से नहीं जूझ रही थी,
वो एक चयन कर रही थी — पेट या भविष्य।

रास्ता खत्म हो गया —
दुकानें पीछे रह गईं।
घर आ गया।

चप्पल उतारी,
थोड़ी देर दरवाज़े पर बैठी रही।
अंधेरे में उस दस रुपए के नोट को
एक बार और देखा।

"कल रिक्शे का किराया बनेगा,
या शायद एक ब्रेड का पैकेट…
लेकिन आज ये मुझे खुद पर गर्व दे गया है।"

ऋतु मुस्कुराई —
भूख से नहीं,
पर एक अद्भुत संतोष से।


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अंत में...

पाठक के लिए ऋतु अब सिर्फ़ एक किरदार नहीं —
हर वो स्त्री,
हर वो लड़का,
हर वो इंसान है
जिसने कभी 10 रुपए को
महज़ नोट नहीं,
बल्कि अपनी इच्छा और विवेक का पलड़ा माना है।

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बाबा अजीब थे—शब्दों में कहानी ढूंढना आसान होता है, मगर बाबा जैसे लोग सिर्फ शब्द नहीं होते, वे अनुभव होते हैं, वे अकुलाहट होते हैं।

पाँच साल तक मैंने उन्हें देखा—एक बूढ़े मगर मेहनती इंसान को। जितना जोश मैंने नौजवानों में नहीं देखा, उतना उनके झुके कंधों में दिखता था। बाबा लोहे की बनी चीज़ें—बैठी, छलनी, चूल्हा, कढ़ाई—बेचते थे। पसीने से भीगी उनकी कमीज़ जैसे मेहनत की गवाही देती थी।

फिर एक दिन, जब मैं पड़ोस की आंटी के साथ गप्पें मार रही थी, बाबा लौटे। पाँव में फटे लेकिन मज़बूत जूते, और हाथ में वही झोली। उन्होंने मुझे देखा और बोले, “बिटिया, कपड़े धो देगी?”

शब्द मेरे गले में अटक गए। आंटी उठकर चली गई, मगर मैं वहाँ से हिल न सकी। थोड़ी झिझक के बाद मैंने ‘हाँ’ कह दिया। उन्होंने कुर्ता और धोती पकड़ा दी। जब कपड़े धोने लगी, तब महसूस हुआ कि ये महीनों से नहीं धुले थे।

फिर ये सिलसिला चलता रहा। हर महीने, दो महीने में बाबा कपड़े लेकर आ जाते। मैं अब बिना संकोच धो देती। मगर एक दिन बाबा आना बंद हो गए।

समय बीत गया। मैं बाबा को भूल गई… या शायद भूलने का नाटक करने लगी।

B.Ed. की अंतिम परीक्षा के दिन बाबा फिर दिखे। मगर इस बार उनके हाथ में लोहे का सामान नहीं, एक कटोरी थी… और वो लोगों के आगे फैला रहे थे हाथ। मेरा हृदय जैसे किसी ने मरोड़ दिया हो। मगर मेरे पास किराए भर के ही पैसे थे। आगे बढ़ गई। मगर मन न माना। दौड़कर लौटी, बैग से केला और पाँच रुपये निकालकर उनके हाथों में रख दिए।

लेकिन जब उन्होंने पैसे लिए, तो मेरे भीतर कुछ चुभ गया—मेहनत वाले हाथों में भीख?

अगले दिन फिर दिखे बाबा। इस बार कुछ खाने को रख आई। सोचा—काश मैं अमीर होती। लेकिन उस दिन समझ में आया, अमीर पैसा नहीं, दिल से होते हैं।

आख़िरी परीक्षा के दिन टिफिन में थोड़ा ज़्यादा खाना रखा। स्टेशन पहुँची… बाबा को ढूँढा… मगर वो कहीं नहीं थे।

फिर कभी नहीं मिले।

आज भी जब ज़िंदगी की भीड़ में चलती हूँ, तो कोई कोना भीतर से कहता है—क्या सच में हमने बाबा को खो दिया, या खुद को?

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मुझे पसंद थे चूड़ी पायल,
साड़ी , झुमके , काले– काजल।
लेकिन डरता था , क्या लोग कहेंगे ?
पहनूंगा तो , क्या लोग हंसेंगे ?
ये आसपास के लोग है कहते ,
ये हाव भाव तेरे ठीक नहीं ।
ये सजना– संवरना , हैं मर्दों की सीख नहीं ।
तू पुरुष है , तू सख्त बन ।
तू क्षत्रिय का पूत है , क्षत्रिय सा रक्त बन।
मारा – पीटा , न जाने कितने दिन की भूख सही।
मैं बच्चा दर्द की पीड़ा , दर्द न मुझसे सही गई।
बोल पुरुष है , क्या अब भी स्त्री जैसा बर्ताव करेगा ?
रहा इसी तरह जो तू, हमारे लिए अपमान बनेगा।
कुल का तू अभिशाप बनेगा।
एक बार नहीं , सौ बार कहा ,
खुद से झूठ मैने बार – बार कहा ।
लेकिन मन को न मार सका।
तो खुद को मैं मारने चला ।
लेकिन उसमे भी मैं हार गया।
जख्मी शरीर ले,
छोड़ घर से भाग गया।
उम्र थी बारह बहुत डरा मैं
इस जालिम दुनियां में , न जानी कितनी बार मरा मैं।
छक्का, हिजड़ा लोग बुलाते।
मुंह पर हंसते मुझे चिढ़ाते ।
देख मुझे तालियां बजाते।
अगर लोग इनके जैसे , निर्दय है होते ।
अगर समझते होते मैं भी इंशा हूं ।
दर्द मुझे भी होता है,
तो यह दर्द की वजह न होते।
कई बार मैं सोचा ,
क्यों न पूरी स्त्री मैं ?
क्यों मैं न पूर्ण पुरुष बना ?
अगर होते है दुनिया में , इन जैसे ज़ालिम लोग।
तो शुक्र है मैं नही इसके जैसा हूं
कौन है कहता मैं नहीं पूरा ?
असल रहे यह आधे अधूरे।

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#मूंछ #चंद्रविद्या
मिट्टो तुम्हारी मूंछे होती
होती तो फिर वह कैसी होती ?
छोटी लंबी पतली काली ।
अलबेली– सी बड़ी निराली ।
या फिर अभिमान में ऐंठी होती
मोटी तगड़ी घणी बाबरी ,
पहलवानों सी बैठी होती ।
शायद या फिर समय का चस्का होता ।
अपने अपने रस का होता
आधुनिकता का रंग चढ़ाए
अंग्रेजी पढ़ी –लिखी वह
होती थोड़ी हाय–फाय ।

रिंकी उर्फ चंद्रविद्या

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मैं लिखना चाहती हूं ....
दर्द के कुछ किस्से ,
कुछ जिंदगी के हिस्से,
कुछ नई और पुरानी
लिख देना चाहती हूं मैं
सारी की सारी कहानी
नदियां की वो धारा
वो अंतहीन किनारा
कुछ खीझ भरे
कुछ दुख हरे
ईर्ष्या घृणा और श्रृंगार
वो भाव तुम्हारे सारे
कुछ जीत तुम्हारी
कुछ हार हमारी
लिख देना चाहती हूं मैं ...
वो कथा सारी की सारी ।
मस्ती गुस्सा और मजाक
दिल के वह सारे राज।
लिख देना चाहती हूं मैं आज
बालपन की शैतानियां
यौवन का वो अल्हड़पन
बुढ़ापे के अनुभव सारे
जीवन के सारे एहसास
मैं लिख देना चाहती हूं
प्रेम की परिभाषा ,
अनकही वह सभी भाषा
जिसे पढ़ने की सबकी आशा ।
मैं लिख देना चाहती हूं ....
गरीबों की वह भूख सभी
अमीरों के वो सुख सभी
अधूरेपन के वो सारे एहसास
कुछ मन के , कुछ तन के ,
संपूर्ण होने होने की आशा
अधूरे मन की निराशा ।
मैं लिख देना चाहती हूं ....
अपने मन की अभिलाषा ।

रिंकी उर्फ चंद्रविद्या

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वह मस्तक को चूम रहे ।
कहे स्वप्न में वो ,
मेरी यह सांस तुम्हारी ।
मैं वेदना की भेट चढ़ी ,
स्वप्नों में भी, स्वप्न बने तुम ,
जीवन भर रही आश तुम्हारी ।
नहीं प्रतीक्षा अब करना चाहती ।
पीड़ा से न वरना चाहती ।
सखियां भी अब मुझे चिढ़ाए,
क्या तुम्हारे प्रिय अब तक न आए ?
बोलो अब क्या और कहूं
क्या कह दूं प्रिय ?
अब तुम न कभी आओगे ।
अश्रु जीवन के नाम लिखी ,
और जोग मेरे जीवन का उपहार बना ।



- चंद्रविद्या चंद्र विद्या उर्फ़ रिंकी

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साहिल को चाय की लत ऐसी लगी थी कि चाय की एक चुस्की अगर शाम के चार बजते - बजते न मिले तो , उसके सिर में दर्द हो जाता था।
कई बार तो सकीना ने साहिल की इस आदत से तंग आकर झुंझला कर कह दिया था कि " किसी भी चीज की ऐसी आदत अच्छी नहीं साहिल मगर तुम्हे
मेरी सुननी ही कहां है ? कल से चाय पीनी हो तो तुम्हीं बना लेना। मै तुम्हे बनाकर नहीं देने वाली।"
लेकिन साहिल की आदत कहां सुधरती वह तो चाय का दीवाना ठहरा शाम की चार हो , या सुबह की आठ । साहिल को तो चाय चाहिए । वो भी सकीना के हाथों की ही ।
एक दिन इसी चाय की वजह से सकीना और साहिल में बहस हो चली और सकीना साहिल से नाराज होकर बैठ गई ।
जब शाम को चार बजा साहिल ने चाय नहीं मांगा , न चाय के लिए सकीना को आवाज़ लगाई । उस दिन न जाने क्यों सकीना का ही ध्यान बार बार घड़ी की ओर जाता और मन ही मन सोची -
" न जाने क्यों ? अभी तक चाय के लिए आवाज नहीं आई , चाय का वक़्त हो चला कही वो नाराज तो नहीं कल की बात से। बार बार सकीना बड़बड़ाती और घड़ी की तरफ देखती ।वह इंतजार में थी , कब साहिल चाय के लिए आवाज लगाएंगे बस यही उसके मन में चलते रहा '
जब 4 से 5 और 5 से 6 बज गया और साहिल का जबाव नहीं आया तो खुद ही रसोई में जाकर चाय बनाने लगी और अपने आप से ही बोलती रही " कौन सा मै उनके बुरे के लिए बोलती हूं , फिर भी उन्हें बुरा लग जाता है ।चाय कोई अमृत थोड़ी न है न जाने क्यों इतना गुस्सा नाक पर चढ़ आता है उनके । जब इतना ही गुस्सा है तो चाय खुद ही बनाकर पी क्यों नहीं लेते? "
चाय बनाने के बाद धीरे से सकीना कमरे का दरवाजा खोलकर झांक कर देखती है की साहिल क्या कर रहे है? साहिल अपने कुछ कागजों में उलझा और लैपटॉप पर शायद किसी फाइल पर काम कर रहे थे । फिर धीरे से हिचकिचाहट के साथ कमरे में सकीना आती है ,और धीरे –से जाकर मेज़ पर चाय की प्याली रख दिया । और कुछ देर यू हीं चुपचाप सामने खड़ी रही । शायद साहिल के बोलने का ही इंतजार कर रही थी । दोनों एक दूसरे को बिना देखे कुछ देर यूहीं सोचते रहे फिर धीरे से साहिल ने चाय की प्याली की तरफ हाथ बढ़ाया और अपने होठों से लगा लिया और धीरे से कहा- सकीना जब तक तुम्हारे हाथों की चाय न मिले तो काम करने में वो मजा नहीं आता ।
और तुम्हारी नाराजगी चाय में जान डाल देती है । इतना बोलकर साहिल के होठों पर एक लंबी सी मुकराहट फैल गई । जिसे देख कर सकीना भी मुस्कुरा देती और कहती है–
" क्या करु साहिल जी आपको चाय पीने की आदत जो हो गई है और मुझे आपके लिए चाय बनाने की "
फिर दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े

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बाबू साहब की हाथ में एक घड़ी थी । दिखने में बड़ी ही कीमती लग रही थी । वो किसी भद्र महिला के साथ बैठे रेस्ट्रोंट में चाय को चुस्कियां ले रहे थे । मिनी उन्हें उत्सुकता से टुकुर टुकुर देख रही थी ।वैसे तो मिनी बाबू साहब को हमेशा देखा करती थी। वो एक बड़ी सी कार में आया करते , कार किस कंपनी की है , यह तो नहीं मालूम होता मगर सफेद रंग की लंबी गाड़ी थी। हमेशा चमचमाती थी जैसे आज ही खरीदी हो । मिनी हमेसा उनके आने का इंतजार करती थी । क्योंकि बाबू साहब पैसे से अमीर तो लगते थे ही , दिल के भी अमीर नजर आते थे । कभी कभी दो पैसे दे देते मिनी को , तो कभी कुछ खाने को । मिनी मुस्कुराकर सर झुकाकर धन्यवाद कह देती और बाबू साहब बदले में मुस्कुराकर सिर पर हाथ फेर देते । बाबू साहब जिस कंपनी में काम करते थे मिनी उसी कंपनी के बाहर ही भीख मांगा करती थी । और रात को सड़क के किनारे तो कभी किसी मंदिर की सीढ़ी पर जहां सोने के लिए भिखारियों का जमाबड़ा लगता वहां सो जाया करती । मिनी अकेली नही थी मिनी जैसी और भी कई थी कुछ उससे बहुत बड़े तो कुछ उससे भी छोटे मगर सबका अपना कहने के लिए कोई न कोई था । मगर मिनी का कोई नहीं । एक रोज़ मिनी के बाबू साहब नहीं आए । मिनी उनका इंतजार करती रही और इसी तरह एक दिन दो दिन और ऐसे ही सप्ताह गुजर गए ।मगर मिनी को उसके बाबू साहब नजर नहीं आए । मिनी को लगा बाबू साहब कही चले गए है कुछ दिन बाद आ जाएंगे । शायद , आज पहली बार मिनी के दिल में आया बाबू साहब से उसका रिश्ता सिर्फ पैसों का लगाव नहीं था बल्कि दिल से भी लगाव था । क्योंकि बाबू साहब के पैसे में भीख की खुशबू नहीं बल्कि प्रेम और इज्जत की आती थी । धीरे धीरे दिन बीतते गया मिनी की आंखों में बाबू साहब के लिए अब भी इंतजार था मगर दिन सप्ताह और महीना बीत गया । मिनी को लगा उसके बाबू साहब अब यह जगह हमेशा के लिए छोड़कर चले गए । अब उसके बाबू साहब कभी नहीं आयेंगे । शायद उनका तबादला कही ओर हो गया हो । अब शायद मिनी भी इंतजार करना छोड़ चुकी थी । मिनी अब रोज की भांति गाड़ियों के पीछे भागती कई बाबू साहबों के कुर्ते खींचती तो दो चार पैसे आ ही जाते ।और मिनी के पेट भरने लायक हो ही जाता । एक बार मिनी ऐसे ही किसी एक गाड़ी वाले के पीछे भाग रही थी परंतु शायद गाड़ी वाले में दया नहीं थी । वह मिनी को कुछ दे न पाया और गाड़ी रफ्तार से आगे बढ़ गई । मिनी फिर भी दौड़ी शायद इस आश में कि अभी भी कही दया बची हो , मगर पैरों ने जवाब दे दिया वह गाड़ी की भांति तेज - दौड़ न सकी। जैसे ही वह रुकी पीछे से आ रहे बहुत तेज बाइक चालक से टकरा गई शायद बाइक वाले ने अपना कंट्रोल खोल दिया था । मिनी वही सड़क की कुछ दूरी पर जा गिरी । मिनी को लगा जैसे वो हवा में थी और अब उसके पास चंद सांसे ही बची हो । मिनी के मन में एक आखिरी बार बाबू साहब से मिलने की इक्षा जाग उठी । उसके बाद मिनी को आखिरी बार सिर्फ हल्का धुंधला सा दिखा फिर न जाने क्यों अंधेरा छा गया उसके बाद मिनी को कुछ याद नहीं । शायद मिनी को लगा उसकी जिंदगी यही तक थी । ऐसा नहीं था मिनी के अपने सपने नहीं थे । मिनी अपने सपने में कई बार स्कूल गई थी । मिनी यथार्थ में भी स्कूल जाना चाहती थी मगर मिनी का स्कूल में नाम कौन लिखवाता मिनी जैसे बच्चों को देख कर लोग दूर से ही भगा दिया करते है । कही कुछ मांग न ले । फिर उनकी मजबूरियों को कौन समझे ? कई घंटे बीत गए मिनी की पलके फड़फड़ाने लगी , उसने धीरे धीरे आंखे खोली उसे समझ नहीं आया। क्या वह मर चुकी है और यदि मर चुकी है तो क्या अभी वह स्वर्ग में है । तभी उसे अपने शरीर में कुछ दर्द का एहसास हुआ और कुछ लोगों की फुसफुसाहट धीरे धीरे उसके कानो तक पहुंची जिससे वह इतना तो समझ गई कि अभी वह जिंदा है । उसने धीरे - धीरे अपनी आंखे इधर उधर घुमाई। चारों तरफ सफेद दीवार थी जिस पर कोई दाग नहीं था । कुछ हरे रंग की चादर लोहे से बने स्टैंडो पर लटकी थी । उसे समझते देर न लगा वह अस्पताल में है ।अचानक एक हाथ उसके सिर पर बड़े प्यार से किसी ने सहलाया मिनी ने हल्का सा अपनी आंखे की पुतलियों को ऊपर की ओर उठाया जिससे उसकी गर्दन भी ऊपर की ओर उठ गई उसे दर्द का अहसास हुआ उसने हल्की- सी आह भरी । किसी ने मीठी सी मनमोहक आवाज में बहुत प्यार से पूछा " मिनी तुम ठीक हो ज्यादा दर्द तो नहीं " । अरे हां यह तो बाबू साहब है वो अचंभे में मगर उत्साहित हो चुकी थी ।क्या उसके बाबू साहब ने उसे बचाया ? क्या उसके बाबू साहब उसके लिए आए है ? हजारों सवाल मन में उमड़ रहे थे । वह उठना चाहती थी परंतु उसके बाबू साहब ने उसे मना किया । मगर मिनी अपने बाबू साहब को देख अपने सारे दर्द भुला बैठी वह जल्दी से उठ कर बैठ गई । उसके मुख से बस एक ही वाक्य निकला बाबू साहब आप इतने दिन क्यों नहीं आए ? पता है मैं रोज आपको ढूंढती थी । बाबू साहब के आंखों में अथाह प्रेम छलक उठा उनके हृदय में एक टीस उठी और एक अफसोस भाव नजर आया बाबू साहब ने सोचा ! क्या वो आता तो मिनी के साथ ऐसा नहीं होता? और मिनी उसके मन में उसके लिए इतनी इज्जत। , इतना प्रेम क्यों ? विजय (मिनी के बाबू साहब ) को घटना स्थल के लोगो ने बता मिनी जब बेहोश थी उसके आखिरी शब्द बाबू साहब थे । विजय के हृदय में उस बच्ची के लिए अंतहीन प्रेम उबर उठा यही तो बुलाती थी उसकी मिनी बाबू साहब । विजय ने प्यार से मिनी के सिर पर हाथ फेरा और बोले मिनी आज से तुम हमारे साथ हमारे घर रहना । वहां तुम्हारी जैसी एक और छोटी मिनी है । जो तुम्हारी ही तरह प्यारी है । बाबू साहब के आंखों में आंसू थे और मिनी के भी ।

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ठहरती शाम और ठंड से बेहाल ,
ढलते शाम ने कहां अब वक्त हो चला।
उठते औजार और थके चेहरे पर घर जाने की आस।
भूख की लालकता , छोटे बच्चे –सी उत्सुकता ।
धुंधले और मटमेल सही ।
मेहनतगरो की शायद निशान ही यही ।
छटपटाहट में न जाने क्यों ?
यह रास्ते लंबे नजर आते ,
घर तक का सफर फिर भी न जाने क्यों ?
महकते से नजर आते ।
रास्ते की चकाचौंध नजर नहीं आती ,
बस नजर आती है द्वार पर खड़ी एक आस ।
और भूख को घर के खाने की तलाश ।
साइकिल की टीन– टिन में एक अलग –सा सुकून है
बच्चों की उत्सुकता से
एक बार फिर से भर जाता जुनून है
थक जाता है शरीर , लेकिन मन नहीं थकता ।
बच्चों के चेहरे की खुशी ,
इससे ज्यादा जेब में और कुछ नहीं ।
वो भी क्या दौर था ,
न होकर भी पास सब था ।
✍️रिंकी उर्फ चन्द्रविद्या

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_बहुत दिनों के बाद आई याद
कच्चे टिकोलो और नमक मिर्ची का स्वाद
खट्टी– मीठी इमली के दाने
नमक नींबू घोल– घोल सारे पी जाने
गोल – गोल काले शहतूत
चोरी चुपके डब्बे से सूखे दूध
पापा के कंधे , दादी की कहानी
मां की बेलन और मीठी आनाकानी
खेल पुराने , अट्ठन्नी और दो आने
अनकही एहसासों से मीठे जज्बातों से
वो बचपन भी क्या थे जमाने ।

✍️रिंकी उर्फ चंद्रविद्या

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