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*"संकल्प"- लघुकथा* "तुझे पता है ना... मैं हमेशा सच बोलता हूँ मगर कड़वा बोलता हूँ। सीधी सच्ची बात अगर मेरे मुँह से तू सुनना चाहता है ना तो सुन... तू कामचोर था...तू कामचोर है।" राजेश, मयंक को समझा समझा कर थक जाने के बाद अपने हाथ खड़े करता हुआ बोला। "लेकिन भइय्या....(मयंक ने कुछ कहने का प्रयास किया।) " अब मुझे ही देख...मैं भी तो तेरी तरह इसी शहर में पिछले दो साल से हूँ लेकिन देख...गांव में इसी शहर की बदौलत मैंने पक्का मकान बना लिया...नयी मोटरसाइकिल खरीद ली और तूने बता इन दो सालों में क्या कमाया है? तेरे राशन तक का खर्चा भी तो मैं...(राजेश ने बात अधूरी छोड़ दी।) "मगर भइय्या...मम्...मैं दरअसल... "पहली बात तो यह समझ ले कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। अब मुझे ही ले...अगर मैं भी तेरी तरह शर्म करता रहता ना तो आज तेरे जैसे ही मैं भी धक्के खा रहा होता। बोल मानेगा ना मेरी बात?" राजेश लाड़ से मयंक के बालों में अपनी उंगलियाँ फिराता हुआ बोला। "ठीक है भइय्या...अब से जैसे आप कहेंगे, मैं वैसे ही करूँगा।" कर्ज़े में डूबे माँ बाप का चेहरा सामने आते ही असमंजस में डूबा मयंक अपने मन को पक्का करता हुआ बोला। "शाबाश...ये हुई ना मर्दों वाली बात। ले....ये पकड़ चूड़ियाँ, नयी साड़ी और मेकअप का सामान। कल ठीक 10 बजे अच्छे से तैयार हो के आ जाना। मैं पीरागढ़ी चौक पर तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।" कहते हुए राजेश वहाँ से चल दिया। चेहरे पर दृढ़ संकल्प लिए मयंक का चेहरा अब उज्ज्वल भविष्य की आस में चमक रहा था।
"पते की बात"- "क्या करें यार...यहाँ इस स्साले लॉक डाउन में फँस कर बहुत बुरा हाल हो गया है। पता नहीं कब छुटकारा मिलेगा। इससे अच्छा घर चले जाते।" नरेश बड़बड़ाया। "अरे!...क्या खाक घर चले जाते? कोई जाने देता तब ना। सुना नहीं तूने कि बाडर पर ही रोक के रख रहे हैं..घर जाने नहीं दे रहे। तो जब घर पहुंचना ही नहीं है तो जैसे यहाँ..वैसे वहाँ।" रमेश उसे समझता हुआ बोला। "हुंह!...जैसे वहाँ...वैसे यहाँ। शक्ल देखी है इस सड़ी सी सरकारी बिल्डिंग की...पेंट प्लास्टर सब उधड़ा पड़ा है। ऐसे लग रहा है जैसे जेल में ठूंस दिया गया हो। ऊपर से मच्छर इतने कि रात तो रात...दिन में भी ऊंघने नहीं दे रहे। और फिर बंदा खाली भी कब तक बैठा रहे? ऐसे बैठे बैठे तो हमारे शरीर को जंग लग जाएगा।" नरेश बुरा सा मुँह बनाता हुआ बोला। "हाँ यार ये तो सही कहा तूने। इन कंबख्त मारे मच्छरों ने तो बुरा हाल कर रखा है। चलते फिरते तक तो फिर भी ठीक...जहाँ पल दो पल को बैठने लगो...इनकी भैं भैं चालू हो जाती है।" रमेश हाथ से मच्छर उड़ाता हुआ बोला। "वेल्ले काम इन सरकारी बंदों से जितने मर्ज़ी करा लो लेकिन नहीं...हाड गोड़े चलाने में तो इन्हें शर्म आती है।" कुर्सी पर आराम फरमा रहे अफसर को देख नरेश मुँह बनाता हुआ बोला। "हाँ!...तूने देखा गोदाम में? रंग रोगन का सारा सामान आया पड़ा है लेकिन इन स्सालों को गप्पबाज़ी से फुरसत मिले तब तो सोचें इस सब के बारे में।" रमेश, नरेश के कान में फुसफुसाया। "इन स्सालों को तो बस बैठे बैठे तनख्वाह चाहिए एकदम खरी...शर्म भी नहीं आती भैंन के......@@#$%#@$ को।" वितृष्णा से वशीभूत हो नरेश ने गाली दी। "यार...वैसे एक बात कहूँ? शर्म तो थोड़ी बहुत हमें भी आनी चाहिए कि दस दिन से बैठे बैठे मुफ्त में इनका दिया खा रहे हैं।" रमेश कुछ सोचता हुआ बोला। "कौन सा इनकी जेब से जा रहा है? सरकारी पैसा है..सरकारी पैसे की तो ऐसे ही लूट होती है।" नरेश ने अपनी समझाइश दी। "लेकिन यार...मेरा दिल नहीं मान रहा...ऐसे मुफ्त के माल से तो अच्छा है कि...( रमेश के चेहरे पर ग्लानि के भाव थे।) "हम्म!...बात तो यार तू सही कह रहा है। क्यों ना एक काम करें?" नरेश खड़ा होता हुआ बोला। "क्या?" "और लोग भी तो हम जैसों को खिला के कुछ न कुछ पुण्य कमा ही रहे हैं।" "तो?" रमेश ने प्रश्न किया। "हमारा भी तो कोई फ़र्ज़ बनता है।" "हाँ!...यार, बात तो तू सही कह रहा है लेकिन हम लेबर क्लास लोग..कर ही क्या सकते हैं?" "करना चाहें तो यार...बहुत कुछ कर सकते हैं।" "जैसे? "जैसे इस बिल्डिंग को ही लो...इसी की ही सफाई पुताई कर के चमका देते हैं।" "अफसर लोग मान जाएंगे?" रमेश ने शंका ज़ाहिर की। "बात कर के देखते हैं...इसमें क्या हर्ज है? वैसे... ये तो यार तूने एकदम पते की बात की। मैं अभी अफसर साब से बात कर के आता हूँ।" नरेश उठ कर खड़ा होता हुआ बोला। "रुक...मैं भी साथ चलता हूँ। इस बहाने हाड गोड्डों को जंग भी नहीं लगेगा।"
अगर 70 के दशक की फिल्मों का सा कथानक या फिर देव आनंद या धर्मेंद्र की पुरानी थ्रिलर फ़िल्मों जैसा प्लॉट अब अगर पढ़ने को मिले तो यकीनन आप बोर हो जाएँगे और उसे उबाऊ मान पढ़ना बंद कर देंगे लेकिन अगर वही कहानी लुगदी साहित्य याने के पल्प फिक्शन के बादशाह स्व.वेदप्रकाश शर्मा ने लिखी होगी तो उसमें ज़रूर कोई ना कोई ऐसी खास बात होगी कि आप उसे अंत तक आसानी से पूरा पढ़ जाएँगे। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ जब किंडल पर मैंने उनका उपन्यास "विधवा का पति" पढ़ा। एक बार तो लगा कि बहुत पुराने प्लॉट पर उन्होंने अपनी कहानी का ताना बाना बुना है लेकिन जल्द ही मेरी ग़लतफ़हमी दूर हो गयी जब मुझे इसमें कदम कदम पर रहस्य, रोमांच से दो चार होना पड़ा। एक के बाद एक ट्विस्ट कहानी को अंत तक रोचक बनाते चले गए कि पता ही नहीं चला कि कहानी कब खत्म हो गयी। हिट फ़िल्म के सभी फॉर्मूलों का सही मिश्रण कहानी को अंत तक दिलचस्प बनाता चला गया। अगर पुरानी फिल्मों या उस तरह की कहानियों में आपकी रुचि है तो आपको उनको ये उपन्यास भाएगा। किंडल पर इसे ₹99/- मात्र में खरीद कर पढ़ा जा सकता है। किंडल के फायदे और नुकसान जल्द ही अपनी किसी पोस्ट में लिखूँगा।
"अरे वाह!...तुम तो एकदम मेरी बीवी जैसी हो।" संता कॉल गर्ल को कामुक अंदाज़ में यहाँ वहाँ छेड़ते हुए। कॉल गर्ल(खुश हो कर): "क्या सच?" संता(मायूस स्वर में): "हाँ!...उस पर भी तुम्हारी तरह मेरी छेड़खानी का कोई असर नहीं होता।" राजीव तनेजा
"सुनो!...रात का वक्त है और पहली बार तुम पर विश्वास कर के तुम्हें अकेला भेज रहे हैं। हमें ग़लत साबित मत करना बेटा।" "जी...अब्बू जान।" "ध्यान से जाना और किसी से फ़ालतू बात मत करना और अगर कोई कुछ खाने या पीने के लिए भी दे तो बिलकुल मत लेना।" "जी!.. "और हाँ!...वहाँ उस लफंगे तैय्यब से ज़रा दूर रहना। नीयत ठीक नहीं उसकी...जब भी देखो..तुम्हें घूरता रहता है।" "जी!...अब्बू जान।" इन नसीहतों के खत्म होते ही ट्रेन ने धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ ली। "सुनो!... क्या कह रहे थे तुम्हारे अब्बू जान?" धम्म से पास वाली सीट पर बेतकल्लुफी से पसरते हुए एक आकर्षक नौजवान हँसता हुआ बोला। "परे हटो...तुमसे ही दूर रहने के लिए कह रहे थे।" कहते हुए उसने भी खिलखिला कर लड़के के गले में बाहें डाल दी और फिर उस खाली कूपे में दोनों आलिंगनबद्ध हो गए। रात के और गहराते ही दोनों को एक बिस्तर में जाते देर ना लगी। सुबह स्टेशन के आते आते दोनों के चेहरों के रंग और भाव बदल चुके थे। एक तनाव सा लड़के के चेहरे पर जोंक की मानिंद चिपक सा गया था जबकि अपनी तरफ से लड़की खुद को नार्मल रखने का प्रयास करती हुई बार-बार अपने ढुलक आए आंसुओं को दुपट्टे के किनारे से पोंछ रही थी। स्टेशन से बाहर निकल कर युवक ने ऑटो किया और बुझे मन से उसे बाय कर अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया। लड़की ने बिना कोई जवाब दिए कुछ देर इधर उधर देखा मानों किसी का उसे इंतज़ार हो लेकिन कुछ देर तक किसी को आता ना देख उसने भी रिक्शा किया और अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ गयी। काफ़ी देर से संकोच में डूबे आँसूओं ने अब और लिहाज़ करने से इनकार कर दिया। हिचकियों और सिसकियों के बीच रिक्शा जब तय मंजिल पर रुका तो वहाँ हर तरफ मातम पसरा हुआ था और किसी के जनाज़े की तैयारी चल रही थी। मृत शरीर के आसपास काफी लोग इकट्ठा थे और ज़ोर ज़ोर से सबके रोने तथा विलाप करने की आवाज़ें आ रही थी। रिक्शेवाले को पैसे दे लड़की से भी अब रुका न गया और वो भाग कर दहाड़ें मार रोती हुई अंदर गयी और मृत शरीर के पास विलाप कर रहे एक युवक को झंझोड़ कर ज़ोर-ज़ोर से रोती हुई बोली “हम सब तो अनाथ हो गए भाई जान। ये सब कैसे हो गया भाई जान?...बोलो ना तैय्यब भाई जान..ये सब कैसे हो गया?”
पति:डार्लिंग…फटाफट तैयार हो जाओ…फिल्म की टिकट लाया हूँ… पत्नी(खुश होकर):अरे!…वाह…कौन सी फिल्म है? पति:सात खून माफ पत्नी(मुँह बनाते हुए):दिमाग घास चरने चला गया है क्या तुम्हारा?…..मुझे नहीं देखनी ये बकवास फिल्म पति:अरे!…तुम्हें नहीं पता…बहुत बढ़िया फिल्म है …इसमें प्रियंका चोपड़ा पूरे सात…. पत्नी:पता है…पता है…सब पता है…गिन के पूरे सात खून करती है… पति:इसलिए तो चलो…चलकर देखते हैं कि कैसे वो सच्चे प्यार की तलाश में भटकते हुए…. पत्नी:हुँह!…ऐसे अगर सच्चे प्यार की तलाश में खून होते चले जाएँ तो मेरा तो आधा मोहल्ला ही साफ़ हो जाए… राजीव तनेजा
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