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PURNIMA JOSHI

PURNIMA JOSHI

@purnimajoshi.674876


"राखी कुछ ऐसी भी"
पारस ने बहन के लिए घड़ी खरीदी ,नई साड़ी और बहुत सारे उपहार बच्चों और जीजा के लिए खरीदें । सोचा पत्नी देखेगी तो नाराज होगी ,सो उसने चुपचाप करके डिक्की में सारे उपहार छुपा दिए ।जब राखी के दिन बहन के घर जाने लगा तो पत्नी ने कहा "कार कहां लेकर जाओगे ? बस से चले जाओ , कार मुझे चाहिए ,मुझे भी तो अपने भाई के यहां जाना है ।पारस खाली हाथ बहन मोती के घर पहुंचा ।बहन ने खूब स्वागत सत्कार किया ,सुंदर सी राखी पारस को बांधी।घर के बने बेसन के लड्डू , मठरी,नमकीन और घर का बना अचार भाई को साथ ले जाने के लिए रख दिया ।भाई को जो पसंद था वह खाना भी बना कर खिलाया ।पारस की जेब में ज्यादा रुपए न थे, वापस भी जाना था ,पत्नी ने तो पर्स खाली करके भेजा था। पारस ने सोचा अब मोती को क्या दूं ?ध्यान आया गले में सोने की चेन है ,वही दे दी,मोती ने चैन पहनी ,पारस खुश हुआ ,सोचा, पत्नी को कह दूंगा कि रास्ते में किसी ने पार कर दी या खो गई ।विदाई के समय दोनों भाई बहनों की आंखों में आंसू थे ।बहन ने एक कागज की पुड़िया भाई को दी और जो नाश्ता बनाया था, वह सारा सामान भाभी को देने के लिए दिया और कहा रास्ते में कागज की पुड़िया खोलना ,तुम्हारे बचपन का एक खिलौना इसमें है ।भाई के जाने के बाद मोती ने पड़ोसन को कहा "अगले माह आपका उधर लौटा दूंगी "।पारस ने बस में बैठकर पुड़िया खोली, उसमें उसके बचपन का खिलौना था ,एक बंदर जो चाबी भरने पर नाचता था ।खिलौना देखकर पारस भावुक हो गया,याद आया दोनो भाई बहन मिलकर बचपन में इस बंदर से खेलते थे।फिर उसने देखा कि बंदर के गले में वही सोने की चेन थी ,जो उसने अपनी बहन को दी थी । पुड़िया के कागज पर लिखा था "माफ करना भैया! चैन लौटा रही हूं क्योंकि भाभी नाराज हो जाएगी, तुम खुश रहो ,बस! तुम्हारे प्यार के अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।तुम्हारा आना और मुझसे राखी बंधवाना ही मेरा नेग है।
पूर्णिमा जोशी"पूनम सरल "

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कान्हा की पुकार
हरी-भरी बगिया के,
फूलों पत्तों कलियों में,
राह में सजे देवदारों में,
मैं कब से तुमको ढूंढ रहा हूं।
झर झर झरते झरनों में,
कब से तुमको ढूंढ रहा मैं,
पथरीली चट्टानों नुकीले पत्थरों में,
कब से राह तुम्हारी तक रहा मैं।
कल कल रहती नदिया के स्वर में,
चल चल कहते लहरों के अंचल में,
सांसे तुम्हारी खोज रहा मैं,
कब से मैं कान्हा तुम्हें ढूंढ रहा मैं।
अलकों में सटे तेरे कानों में,
अद्भुत बंसी की तान सुना रहा ,
तुम्हारे मन की सीपीके भीतर,
अपने प्यार का मोती ढूंढ रहा मैं। तुम मीरा में राधा को खोज रहा मैं,
राधा में तुमसे मीरा को पा रहा मैं,
कौन हो तुम ना राधा ना मीरा,
फिर तुमको वृंदावन की गलियों में क्यों पुकार रहा मैं।
उन्मुक्त बादलों के जहां में,
चमकती दामिनी की झंकार में,
तेरी एक झलक पाने को मैं,
कितनी सुरभियो को महका रहा मैं।
कभी ब्रह्म मुहूर्त में जाग कर देखूं,
शाम सवेरे हर गली के फेरे कर जाऊं,
द्वार सारे खटखटा कर मैं प्रिया,
तुझको हरिद्वार ढूंढ आऊं मैं।
छम छम गिरती बारिश की बूंदों में,
कभी इंद्रधनुषी चुनरिया की ओट में,
तेरी किसी कविता के उपनाम में ,
मैं कान्हा तेरी प्रतीक्षा में तरस रहा हूं।
रोती बिलखती हर सुंदरी में,
अपनी दी मुंदरी ढूंढ रहा मैं,
तेरे घर के भीतर बाहर मौजूद मैं,
कब से चुपचाप खड़ा पहरा दे रहा हूं मैं।
बरखा की इसे रतिया में,
भीगे चेहरे से भीगे तेरे तकिए में,
तेरे सपनों में मधु मुस्कान ढूंढ रहा मैं,
हर युग में नाम अलग हो पर तुझको ही पुकार रहा मैं।
डा.पूर्णिमा श्रीधर जोशी*पुनमसरल*

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