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जालसाज़ी का मुक़द्दमा थोपना है ज़िन्दगी पे मुझे यकीन है गवाहों की क़िल्लत नही होगी। -Johnny Ahmed क़ैस
धंधेवाली एक होटल का कमरा दो ख़रीदार और एक नंगा जिस्म जैसे लाश को गिद्ध नोचते हैं ख़रीदार उस जिस्म को नोचते हैं। होटल का वही कमरा एक बेजान सा थका हुआ नंगा जिस्म बिस्तर पे फेंके हुए कुछ नोट उस नंगे जिस्म को नोचने की कीमत। एक घर का छोटा सा कमरा दीवार पे लटकी किसी आदमी की तस्वीर दो पढ़ते हुए बच्चे बाहर से गुज़रते हुए कुछ लोग कहते हैं "ये उसी धंधेवाली का घर है।" -Johnny Ahmed क़ैस
सारे तीरथ करके देखें घूमे चारों धाम जब तक किन्तु मन मलिन मिले न तब तक राम -Johnny Ahmed क़ैस
प्रेम जब से बीता प्रेम का फागुन बन गया देख फ़क़ीरा रह गई ऊँगली में वो अँगूठी खो गया उसका हीरा। प्रेम प्रेम सब कोई कहै पर प्रेम ना चिन्है कोई लाख टके की और पते की कह गए बात कबीरा। -Johnny Ahmed क़ैस
पत्रकार खुदकों ज़िन्दा मानने वाली कुछ लाशें ज़िंदा लोगों के शहर में हर रात बाहर निकलती है ये झूठ का ज़हर उगलती हैं। ये लाशें उँगलियाँ बहुत उठाती है चिल्लाती है और शोर मचाती है उन पर जब मक्खियाँ भिनभिनाती हैं ये मक्खियों को उड़ाती है, और खुदकों ज़िन्दा बताती है हाँ बार-बार दोहराती है। खुदकों ज़िन्दा बताती है ये लाशें खुदकों पत्रकार बताती हैं हाँ ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाती हैं। -Johnny Ahmed क़ैस
कभी वो दुआ तो कभी दवा दे गया घुटन की हालत में मुझे हवा दे गया। दुश्मनों की भीड़ ने जब भी घेरा मुझे हिफ़ाज़त का एक नया रास्तां दे गया। दो कदम चलके जब रूह थकने लगी जिस्म में एक नई सी आत्मा दे गया। गर कभी वादा कोई तोड़ना चाहा तो वो ज़हन के सवालों की सज़ा दे गया। देखने जब लगा मैं लोगों की ख़ामियाँ हाथों में एक बड़ा सा आईना दे गया। नेमतों की फ़हरिस्त कितनी बे-अंत है देखो कब-कब ख़ुदा क्या-क्या दे गया। -Johnny Ahmed क़ैस
ख़ुशी भी ढूँढू तो बस दर्द का सामान मिले मुझे जो लोग मिले मुझसे परेशान मिले मैं अपने शहर का मुआइना जब करने लगा मुझे तो हर जगह सोते हुए दरबान मिले कहीं भी कूच करूँ मिलती हैं ज़िन्दा लाशें कभी-कभी ही तो ज़िन्दा हमें इंसान मिले जिन खिलौनों के संग बचपन अपना बीता आज देखा उन्हें तो सारे वो बे-जान मिले वो जिनकी आदत थी तंज़ करना औरों पे दाग-धब्बों से भरे उनके गिरेबान मिले जब अपनी ज़िन्दग़ी की लाश को देखा मैंने उसकी गर्दन पे मेरे हाथों के निशान मिले -Johnny Ahmed क़ैस
नया वादा आख़िर कैसे नए वादों पर ए'तिबार किया जाए पुरानी साज़िशों को कैसे दरकिनार किया जाए। क़ातिल क़त्ल की ताक़ में ज़मानों से सोया नहीं आख़िर सोए हुओं को कैसे होश्यार किया जाए। सच दिन-ब-दिन और कमज़ोर बनता जा रहा है चलो साथ मिलकर झूठ का शिकार किया जाए। देखों कितनी ऊँची हो गई है दीवारें नफरतों की चलो ज़हन की ताक़त से इनमें दरार किया जाए। खुद्दारी की स्याही भर लो अपनी कलम में तुम चलो अपने सब लफ़्ज़ों को हथियार किया जाए। जवाँ पीढ़ी ही तो इस मुल्क़ को आगे ले जाएँगी आओ अच्छी तालीम से इन्हें तैयार किया जाए। -Johnny Ahmed क़ैस
साफ़ साफ़ लिखा था सफ़्हे के हर सफ़ में साफ़ साफ़ लिखा था वो ना-तमाम किस्सा साफ़ साफ़ लिखा था। भले उल्फ़त में हमें बदनामी के दाग धब्बे मिले हमने नाम तुम्हारा पाक साफ़ लिखा था। मुझसे रिश्ता तोड़ना तुम्हारा तोड़ गया मुझको मेरी किस्मत में टूटना साफ़ साफ़ लिखा था। तेरे होठों की लर्ज़िशों में भी मेरा नाम नहीं था मेरी सिसकियों में तेरा वज़ूद साफ़ साफ़ लिखा था। क़रार-ए-इश्क़ पे तुमने कभी कुछ लिखा ही नहीं एक मेरा ही दस्तख़त वहाँ साफ़ साफ़ लिखा था। सच्चा भले नहीं कोई झूठा मुबालग़ा ही सही सुना है मेरी क़ब्र पर मजनू साफ़ साफ़ लिखा था। -Johnny Ahmed क़ैस
उसके चले जाने से कुछ ज़्यादा फ़र्क़ तो नहीं पड़ा ना मेरी रातों की तन्हाईयाँ बदली ना दिन का भीड़भाड़ बदला । साँस भी उतनी ही लिया करता हूँ अब भी और दिल भी वक़्त पर धड़कता रहता है। अब पूरे का पूरा बिस्तर मेरा और सिर्फ़ मेरा था अब तकिये को मोड़ने पे डाँटने वाला कोई न था। बस ये घर की सीढ़ियाँ ग़मगीन हैं अब उनपे उसके पैर जो नहीं पड़ते। घर की छत भी कुछ ख़फ़ा सी है, पूछती है मुझसे वो आजकल छत पे क्यों नहीं आती है। आँगन का झूला भी संग उसके झूलने को तरसता हैं और वहाँ का फ़व्वारा भी अब नहीं बरसता है फ़र्श तो जैसे बिना रंगोली बेवा सी लगती है अब रसोई भी बेचारी कहाँ पहली सी दिखती है खिड़कियाँ उसके गानों का इंतज़ार करती रहती हैं उसके न होने की वजह दीवारें पूछती रहती हैं। हाँ, बाग़ीचे के सारे फूल भी मुरझा गए हैं रात के जुगनू भी अब टिमटिमाते नहीं,, आसमान भी रातों को खाली खाली लगता है, अलमारी में रखी उसकी किताबें, तकिये के कवर पे जो उसने बनाये थे वो फूल और अचार की सारी बर्नियाँ भी उसे याद करती हैं। हाँ, उसके चले जाने से कुछ ज़्यादा फ़र्क़ तो नहीं पड़ा ना मेरी रातों की तन्हाईयाँ बदली ना दिन का भीड़भाड़ बदला.... -Johnny Ahmed क़ैस
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