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Dr. Suryapal Singh

Dr. Suryapal Singh Matrubharti Verified

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(296)

सपने बुनते हुए

कभी सुना था उसने
सपने मर जाने से
मर जाता है समाज
आज सपने बुनते हुए
भावी समाज के
वह बुदबुदाया
'चोर को चोर कहना ही
काफी नहीं है'
दो बार और फुसफुसाकर कहा
पर तीसरी बार उसने हाँक लगा दी
'चोर को चोर कहना ही काफी नहीं है।'
तभी एक व्यक्ति दौड़कर आया
'क्या कहोगे मित्र?
किसी चोर को क्या कहोगे ?
सांसद विधायक अधिकारी
या और कुछ।"
'कौन हो तुम ?'
उसी रौ में वह गरज उठा
'गरजो नहीं, मैं एक चोर हूँ
मुझे क्या कहोगे?
चोर को चोर कहना
सचमुच उसका अपमान करना है।'
उस ने सुना या नहीं
पर चौथी हाँक लगा दी
गिर पड़ा लड़खड़ाकर
अविष्ट-सा छा गई बेहोशी।
चोर को लगा कि यह आदमी
चोरों का हितैषी है
उसने उसे उठाया
नर्सिंग होम में भरती कराया
दो घण्टे बाद
उसने आँखें खोली
चोर ने ईश्वर को धन्यवाद दिया
बोल पड़ा 'कुछ सोचा है
चोर को क्या कहोगे?
उसके लिए गोष्ठियाँ-भोज
जो भी करोगे
व्यय की चिन्ता न करना
मैं वहन करूँगा।
देखो मौके पर तुम्हारे
मैं ही काम आया।
तुम्हारे ईमानदार साथी
घरों में दुबके होंगे
कहाँ निकलते हैं
ईमानदार लोग
घरों से बाहर?
तुम ठीक कहते हो
चोरों को भी गरिमा के साथ
जीने का हक है
बड़ी चोरियाँ करके भी
संभ्रान्त लोग
सम्मानित ही रहते हैं
हम छोटे चोर हैं
सम्मान की ज़रूरत
हमें ही सबसे ज्यादा है।
तुम्हारे कथन से
मैं भी उत्साहित हुआ हूँ
सच है नहीं कहना चाहिए
चोर को चोर
हम पूरी मदद करेंगे
तुम्हारे अभियान में।'
शब्दों के अर्थ की
अलग दिशाएँ देख
सोच में खो गया वह
'ओ अर्थछवियो !
कहाँ है तुम्हारा वास
मेरे या चोर के मन में?
ऐसा क्या है जो
कर देता है भिन्न
मेरे अर्थ को उससे?
क्या सचमुच अर्थ
संदेश में नहीं होता?
सपने जन-जन के
क्या बिखरते हैं इसी तरह
अर्थों के जंगल में?'
उसको चिन्ता मग्न देख
चोर ने मुस्कराकर कहा
'चिन्ता छोड़ो
आपके अभियान का
दायित्व मेरा है
सारी चिन्ताएँ मेरे ऊपर छोड़
निश्चिन्त हो जाओ
बस छोटे चोरों को
गरिमा दिलाओ।'

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डॉ. सूर्यपाल सिंह की ग़ज़लें- नए पत्ते से
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(20)

हवा में बह रही अफ़वाह रोको तो।
सभी खेलें लहू से फाग रोको तो ।

रहे जो दोस्ती में डूब कर बरसों
बुझाते खून से वे प्यास रोको तो ।

गली-कूचे सभी सूने हुए देखो,
जले हैं गाँव के सद्भाव रोको तो।

लगे बरसों गृहस्थी को बनाने में,
वही अब हो रही है ख़ाक रोको तो।

सियासत बाँटती है खूब खेमों में,
मगर हम सब लगाते आग रोको तो ।


(21)

मरा है आँख का पानी जलाते घर ज़रा रोको ।
अभी वे पोछ कर सिन्दूर आते घर ज़रा रोको ।

उदासी आँख की उनको न कुछ भी दिख रही कोई,
भरे विद्वेष से काटें सभी के पर ज़रा रोको।

यहाँ बेख़ौफ़ ज़ालिम घूमते भयभीत करते हैं,
शिविर में कैद हैं बच्चे सताते डर ज़रा रोको।

यही वह देश है जन्में जहाँ, पाते हवा पानी,
इसी के हम निवासी पर करें बेघर ज़रा रोको।

बिना अब बस्तियाँ उजड़े उन्हें संतोष कैसे हो?
लिए शमशीर वे सब लपलपाते कर ज़रा रोको ।


(22)

फुदक कर खेलते थे आज बच्चे थरथराते हैं।
घटा कुछ गाँव में ऐसा सभी आँखें चुराते हैं।

चली आँधी कहीं ऐसी सभी बेबस दिखाई दें,
सहज विश्वास टूटा लोग अफ़वाहें उगाते हैं।

बड़ी बेसब्र है दुनिया, लड़ें हर बात पर क़ौमें
न कोई ग़म गुनाहों का तनिक क्या खौफ खाते हैं?

कराते खेल मजलिस में उफानों को हवा देते,
कभी बे-आबरू होते मगर आँखें दिखाते हैं।

घटाते जोड़ते हैं रोज़ दंगों का असर कितना?
चुनावी गणित में हैं दल, किधर बॅंट वोट जाते हैं?


(23)

कहीं कोई बग़ावत पर उतरता क्यों जरा सोचो।
बहुत दिन तक दुसह अन्याय सहता क्यों ज़रा सोचो।

हमेशा से दबाते आ रहे, कब तक सहन करता,
तनिक चेता, जुआ काँधे न धरता क्यों ज़रा सोचो।

सदा ही जो ठगा जाता वही करता बग़ावत भी,
तुम्हारी इन सज़ाओं से न डरता क्यों ज़रा सोचो।

न पाकर न्याय क़ौमें भी बगावत पर उतर आतीं
प्रशासन से कहीं विश्वास डिगता क्यों ज़रा सोचो।

अभी तक तो नहीं हम दे सके हैं न्याय की दुनिया,
भला स्वर यह बग़ावत का उभरता क्यों ज़रा सोचो।


(24)

परिन्दे शहर छोड़ गए गाँव चलें ।
अब शहर क़त्लगाह हुए गाँव चलें।
यहाँ हिन्दू मुसलमाँ की बस्ती है,
चलो कोई आदमी के गाँव चलें।


(25)

न सपने ख़त्म होते हैं किसी के हार जाने से।
नई कोंपल निकलती है, ज़रा सा प्यार पाने से ।
नई दुनिया अगम सागर, लहर उठती कहीं गिरती,
बढ़ें नाविक न डरते जो भँवर की मार खाने से ।


(26)

ज़मीं पर फूटते जो ज़लज़ले, हैं आग बरसाते ।
जिन्हें उनको बुझाना था वही हैं आग भड़काते ।
जलाने का जिन्हें चस्का बनाएँ घर कहाँ से वे,
न जिसने घर कभी सींचा उसे घर याद कब आते?

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डॉ. सूर्यपाल सिंह की ग़ज़लें- नए पत्ते से
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(14)

काँटों की तक़दीर न पूछो।
कैसे हुए फ़कीर न पूछो ।

फूल सभी सुख से जीने की,
करते क्या तदबीर न पूछो।

जंगल जंगल हिरन डोलकर,
चाभे बैठ करीर न पूछो।

सुख के पीछे मारा मारी,
दुख घर की शहतीर न पूछो।

कौन भर्तृहरि घर से पीड़ित
बनता यहाँ फ़कीर न पूछो।


(15)

मीर यहीं सोचा है, ज़रा धीरे बोलो।
पोखर भी रोया है, ज़रा धीरे बोलो।

उलझे हैं युवा बहाते खून की नदियों,
बचपन भी खोया है, ज़रा धीरे बोलो।

वे खाते हैं बातें बनाने की रोटी,
लोइयाँ न पोया है, ज़रा धीरे बोलो।

सत्ता कहती है कुण्डली मारे बैठी,
जन जन को टोया है, ज़रा धीरे बोलो।

खेतों में फसलें ही उगानी थीं लेकिन,
कीकर ही बोया है, ज़रा धीरे बोलो ।


(16)

जब यहाँ आकाश में बादल खिले हैं।
गाँव से मजबूरियों के ख़त मिले हैं।

बादलों से है गुज़ारिश बरस जाएँ,
झील है सूखी शिकारे तट लगे हैं।

पार्लर में सज रहे दुष्यंत कितने ?
शापिता शाकुन्तलाएँ तरु तले हैं।

जर-ज़मीं-जंगल-खदानें घर लिया ही,
नज़र पानी पर टिकी क्या हौसले हैं?

अब घरों में भी नहीं कोई सुरक्षित,
लौट आती चिट्टियाँ द्वार बदले हैं।


(17)

याद तेरी बरस मन छुई रात भर ।
सावनी बूँद टुप टुप चुई रात भर

मन बहुत था कि साथी बनें, सँग रहें,
पर नियति जाल बुन खुश हुई रात भर ।

लोग कहते कि जोड़े बना रब रहा,
फिर अलग क्यों ? चुभे ज्यों सुई रात भर ।

कल्पना की उड़ानें उड़ातीं बहुत,
मन रहा एक छूई-मुई रात भर ।

खुश रहो तुम बना आशियाँ और में,
मन्द जलता रहूँ ज्यों खुई रात भर ।


(18)

लुटेरे हौसले आकाश अब छूने लगे साथी ।
नया घर जो बनाया है टपक चूने लगे साथी ।

ग़रीबे के पसीने से खड़े होते महल सारे,
उसी की झोंपड़ी में आग अब दिन में लगे साथी ।

कहीं पूरी कमाई से न बनती झोंपड़ी कोई,
कहीं आकाश छूते घर डराते से लगे साथी ।

दिशा जो देश को देनी नहीं हम दे सके कोई,
नया प्रारूप गढ़ने में अवश होने लगे साथी ।

हमें 'पर' और 'निज' का भी न आया मेल करना कुछ,
सदा विघटन रहे सेते वही बोने लगे साथी ।


(19)

वही गुस्सा, वही नफरत, वही शैतान की बातें।
कहीं हम भूल आए हैं खरे इंसान की बातें ।

जुगुप्सा में पली पीढ़ी न जाने क्या करे साथी ?
नई दुनिया बसानी गर करें ईमान की बातें ।

बहाने सैकड़ों होंगे किसी को क़त्ल करने के,
मगर हम व्यर्थ में क्यों नित लड़ें कर आन की बातें।

गुनह करता कहीं कोई जमातों को सज़ा फिर क्यों?
ख़ता क्षण की सज़ा सदियों करें हम शान की बातें।

जलेंगी बस्तियाँ सारी सदाकत हार जाती गर,
भले ही ज़लज़ले आएँ करें इमकान की बातें।

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डॉ. सूर्यपाल सिंह की ग़ज़लें- नए पत्ते से
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(8)

अभी यदि कड़क ठंडक है कभी मधुरात तो होगी ।
ज़रा बहके क्षणों की कुछ अभी तक याद तो होगी।

परिन्दे भी पुराने मीत को कुछ याद रखते हैं,
जिया था जिन क्षणों को अब वही सौगात तो होगी ।

सभी कहते किसी के काम आता है नहीं कोई,
जनाज़े में जुटे हैं लोग कोई बात तो होगी ।

निशा है यह अमावस की, अकेला हूँ, घना जंगल,
गरजते हैं उमड़ बादल कहीं बरसात तो होगी।

बड़ी मुश्किल हुई जब अश्रु निकले भीड़ में, दिन में,
उन्हें समझा रहा हूँ दिन ढले फिर रात तो होगी।

(9)

भयंकर ऑंधियाँ हों पर नहीं गिरते नए पत्ते ।
किसी की भीख पर कोई नहीं पलते नए पत्ते ।

भँवर से नित लड़ा करतीं हमारी डोंगियाँ छोटी,
लहरती जब हवाएँ हों क़दम रखते नए पत्ते ।

सदा आसान होती हैं बड़ी मुश्किल भरी राहें,
नुकीले सख़्त काँटों सँग मचल उठते नए पत्ते ।

जगातीं भोर की किरणें खुशी से नाचतीं कोंपल,
कठिन पतझार का झर झर नहीं झरते नए पत्ते ।

नई पीढ़ी अगर चाहे तमाशा ही बदल डाले,
समय कितना डराता हो, नहीं डरते नए पत्ते।

(10)

उजाले को सियासी मार जब घायल बनाएगी।
कहाँ से रोशनी कोई घरों को जगमगाएगी ?

नहीं होते सभी के घर पहाड़ी रायसीना पर,
भला कब गह्वरों में ज़िन्दगी दियना जलाएगी?

सियासी खेल के माहिर जुआ खेलें खुले मन से
रखें वे देश को फड़ पर तभी सुख नींद आएगी।

जलाते जो निजी घर को, निजी हित ताक पर रखते,
उन्हीं से रोशनी कोई ज़रा सी झलमलाएगी ।

नया घर यदि बनाना है नए औज़ार भी लाओ,
तराशोगे सभी हीरे तभी घर चमक आएगी।

(11)

हाथ कितनों के यहाँ खूं से सने हैं ।
आप चुप बैठे यहाँ, क्यों अनमने हैं ?

वे सितम की हद बनाते पार करते,
देखते हैं भाड़ में कितने चने हैं?

बरगलाते वे यही कहते फिरेंगे,
भेड़िए के सामने हम मेमने हैं

जग गए है मेमने नाखून सेते
भेड़िए के सामने आकर तने हैं ।

यह क्षणिक उत्तेजना है वे कहें, पर
मेमने फौलाद के साँचे बने हैं ।

(12)

क्यों वे लिए तलवार? कुछ पता नहीं।
किस पर करेंगे वार? कुछ पता नहीं ।

मासूम है डोली में बैठी वधू,
ले जायें किधर कहार ? कुछ पता नहीं।

मौसम की उमस में सभी लिए -दिए,
कब पड़ रही बौछार ? कुछ पता नहीं।

बँहगी लिए कांधे प्रेमी गा रहा,
कब तक बचेगा प्यार ? कुछ पता नहीं ।

मझधार में कश्ती, मौसम उन्मत्त
लड़ सकेगी पतवार कुछ पता नहीं।

(13)

जब हमारी आँख में गुस्सा उगा है।
कह रहे वे आदमी रातों जगा है‌।

नींद की कुछ गोलियाँ इसको खिलादो,
सो रहे, फिर उत्सवों का रतजगा है ।

वे तिजोरी भर रहे हैं देश हित में,
क्या भला यह देश से कोई दग़ा है?

फड़फड़ाते पक्षि शावक कुनमुनाते,
बाज कब इन शावको के मुँह लगा है ?

इश्तिहारों से सजी दुनिया चमकती,
आदमी कितने क़रीने से ठगा है?

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सूर्यपाल सिंह की ग़ज़लें- नए पत्ते से
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(1)

घुँघरू से प्यार करे कोई ।
कैसे व्यापार करे कोई?

पुतली के बीच बसा करके,
कैसे इक़रार करे कोई?

शब्दों में प्यार बँधा कब है ?
कैसे इज़हार करें कोई ?

आँखें जब आँखों से मिलती,
कैसे तकरार करे कोई ।

स्वाती की बूँद कौन जाने,
काश! इन्तज़ार करे कोई ।


(2)

शहर-गाँव दोनो परेशान क्यों हैं?
रुधिर में रिसे आज शैतान क्यों हैं?

कहीं जुल्म होता रहा है यहाँ पर,
मगर देश सरकार अनजान क्यों हैं?

सदा वंचितों की लड़ाई कठिन है,
वही गर उठें सब हलाकान क्यों हैं?

फसल जो न बोता कटाता वही है,
हुए आज इनसान हैवान क्यों हैं?

यहाँ बादलों की गरज सुन रहे हम,
न है बूँद पानी, न इमकान क्यों है?


(3)

जिधर देखिए आज कुहरा घना है ।
यहाँ चोर को चोर कहना मना है।

सदा लूटते जो वही तर्क गढ़ते,
न कोई धवल, पैर सब का सना है ।

नहीं सोचते वे किसे लूटते हैं?
भरे जेब उनकी यही साधना है।

न ईमान बेचो कहा है सभी ने,
मगर बेचते वे, कहाँ कुछ सुना है?

लगा बंदिशें देश को हाँकते वे,
ज़रा भी यहाँ शोर करना मना है।


(4)

कभी लौटकर वक़्त आता नहीं है।
समय बेरहम कुछ बताता नहीं है।

सताए हुए जो समय कीचकों से,
भरोसा उन्हें जग दिलाता नहीं है ।

जवानी कभी गर गिरे पस्त होकर,
कभी दौड़ कोई उठाता नहीं है ।

उठा जो सृजन को नया रंग देने,
गिरा गर कहीं तड़फड़ाता नहीं है

बड़ी खाइयाँ पाटने जो चला है,
बवंडर उसे खुद डराता नहीं है।

(5)

रुलाकर किसी को न खुश होइएगा।
निरन्तर खुशी की फ़सल बोइएगा।

भले ही बहुत तंग हों हाथ लेकिन,
किसी का कभी टेट मत टोइएगा।

कभी पाँव फिसलें मिले हार तो भी,
नई रोशनी ले निडर सोइएगा।

यहाँ कालिखों का लगाना शगल है,
उसे साँच की आँच खुद धोइएगा।

चुनौती परोसे तुम्हें ज़िन्दगी जब,
सृजन की नरम लोइयाँ पोइएगा।

(6)

बोल तू, लड़खड़ाते न चल, बोल तू ।
बाँध खंजर चला पर न बल, बोल तू ।

कौन तू ? क्या किसी ने तुझे सीख दी,
लाल आँखें तुम्हारी सजल, बोल तू ।

तू शराफ़त कहाँ छोड़ आया बता,
इस तरह क्यों किया दल बदल, बोल तू?

रब बुलाता तुझे हाथ खोले हुए,
मुटि्ठयाँ बाँध यूँ कर न छल, बोल तू?

ज़ालिमों ने सदा हार मानी यहाँ,
कौन सी राह तेरी निकल, बोल तू?

(7)

किसी तरु के नए पत्ते कभी क्या टूट गिरते हैं?
बिना पूछे मगर आँसू कसक कर खुद निकलते हैं।

धवल बेदाग़ काजल कोठरी से निकल आना है,
कली के पंख ख़ारों से घिरे पर रंग भरते हैं।

बनाया बाँस का बेड़ा अगम नद पार जाने को,
बढ़ाओ हौसला पतवार जो निज कर पकड़ते हैं।

ज़रा सी रोशनी कोई अँधेरे में दिशा देती,
सहारे एक जुगनू आदमी तम चीर चलते हैं।

कभी बाज़ार में कुछ वस्तुएँ या ढोर बिकते थे,
मगर अब आदमी नित ढोर की ही भाँति बिकते हैं।

न अब बाज़ार सच्चाई बयाँ करते ज़रा सोचो,
जिसे सब सोचते असली वहीं नकली निकलते हैं।

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