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एक उम्र कटी दो अलफ़ाज़ में, एक 'आस' में एक 'काश' में..!
ना अनपढ़ रहे ना क़ाबिल हुए..... ख़ामख़ां ज़िंदगी..... तेरे स्कूल में दाख़िल हुए
कटती नही है मुझसे अब ये 'उदास' रातें कल सूरज से कहूँगा मुझे साथ लेकर डूबे
दिन रात मेरे ख़यालों में घूमते रहते हो तुम्हारे पैरों में दर्द नही होता क्या..?
सुना है बहुत बारिश है तुम्हारे शहर में, ज़्यादा भीगना मत, अगर धुल गयी सारी ग़लतफ़हमियाँ, तो बहुत याद आएँगे हम...!
When I wear a mask in public, or decline an invitation to a party or to come inside, I want you to know that: + I am educated enough to know that I could be asymptomatic and still give you the virus. + No, I don’t “live in fear” of the virus; I just want to be part of the solution, not the problem. + I don’t feel like the “government is controlling me;” I feel like I’m being a contributing adult to society. + The world doesn’t revolve around me. It’s not all about me and my comfort. + If we all could live with other people's consideration in mind, this whole world would be a much better place. + Wearing a mask doesn’t make me weak, scared, stupid, or even “controlled.” It makes me considerate. + When you think about how you look, how uncomfortable it is, or what others think of you, just imagine someone close to you - a child, a father, a mother, grandparent, aunt, or uncle - choking on a respirator, alone without you or any family member allowed at the bedside. + Ask yourself if it was worth the risk? + Wearing a mask is not political.
मैं कौन ? एक नारी, आम जैसी काली न गोरी बांदी ना रानी। जन्म के समय मेरे चेहरे पर एक भी नक्श नहीं था इसलिए मैंने अपनी मिट्टी फिर से गूंध ली••• अपने हाथों से अपना चेहरा बनाया मेरा चेहरा बहुत सुन्दर नहीं, पर नक्श पूरे हैं जन्म के समय मेरा नाम भी कोई नहीं था एक नाम मैंने अपने आप रख लिया। मेरा नाम बहुत ऊंचा नहीं, पर मतलब पूरा है••• तवारीख मेरे हक में नहीं थी उसने तीखे - तीखे कांटे मेरे पल्लू में बांध दिए समाज मेरे खिलाफ था, उसने मेरे सिर पर अंधेरे का तंबू तान दिया ताकि मै आसमान कभी न देखूं••• मैं किसी चांद तारे से बात न करूं मेरे दिल को वह बर्ताव अच्छा न लगा। उसने सलाह दी, आओ चले जोगी बन जाये पर जंगल - जंगल कैसे जाती? मेरे पांव में लोहे की बेड़ियां थी, मैं खामोश रही। रिश्ते नाते सब छोड़ दिए, किताब की ओट में मुंह छिपाकर एक कोने में लगी। किताब को मेरे दिल का पता था उसने मुझे कई बातें बतायी। एक नयी दुनिया के बारे में कहानी सुनाई। फिर एक दिन आया, मैंने खुद कलम हाथ में पकड़ ली••• #अमृता_प्रीतम_ 🥀खामोशी के आंचल में 🥀
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