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Bhawna Saxena

Bhawna Saxena

@bhawnasaxena6833


#काव्योत्सव kavyotsav 2 जीवन
बनैली चाहतें

ख्वाहिशों के प्रेत कुछ
और चाहतें बनैली
संग मेरे रही चलती
मैं कहां कब थी अकेली!
भस्म कुछ परछाइयों की
मस्तक चढ़ाए फिर रही
धूप-छाँव सी ज़िन्दगी
हरदम रही बनकर पहेली।
आत्मा के दाग कुछ
भावनाओं के संगुफन
परत परत चढ़े अनुभव
मौन ही मन की सहेली।
चीरती आकाश को जब
बिजलियाँ उस पार तक
मन उड़ा करता असीमित
छोड़ पीड़ा की हवेली।
वासना के फेर में
जब पड़ गई मृदु चाहतें
नेह की राहें अचानक
हो गईं कितनी कसैली।
आज जो कल था वही
होकर यहाँ भी ना रही
बस यूँ ही फिरती रहीं
चाहतें मन की बनैली।

भावना सक्सैना

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#KAVYOTSAVA -2

बिछड़ कर डाल से
घूम रहीं है मुक्ति को
समा जाना चाहती है
वो अंक में धरती के
कि चुकाने है
कर्ज़ ज़िन्दगी के।
ठौर मिलता नहीं
बावरी घूमें यहाँ-वहाँ
इस कोने से उस कोने
हवा पर सवार
कभी घुस आती हैं
बिल्डिंग के भीतर
कुचली जाती हैं
भारी बूटों और
पैनी लंबी हील से।
धरती उदास है
कि एक वक्त था जब
शाख से जुदा हुई
सुनहरी पत्तियाँ
मचलती थी जब
उसके वक्ष पर
आलोड़ित होती
मृत्ति कणों में
होतीं उनसे एकाकार
उसका रोम रोम
पुलक जाता था
बरसते थे
आशीष सैकड़ों
जैसे कोई माँ
असीसती है
गलबहियाँ डाले
अपने लाडलों को
आज चीत्कार रही
धरती!!!
कि अपने आँचल के
जिस छोर से
आश्रय दिया उसने
विकास की बेल को
उसने ढाँप दिया है
कोमल मृत्ति कणों को
और सिसक रही है
धरा बेहाल, ओढ़े
सीमेंट-पत्थरों की चादर।

भावना सक्सैना

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