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Anand M Mishra

Anand M Mishra Matrubharti Verified

@anandmmishra2311
(121)

सब अपनी-अपनी तरह से बनेंगे क्रूर,
कोई देशभक्ति का नाम देगा,
तो कोई समाज सेवा का नाम,
अपने को करेंगे गौरवान्वित
इससे धर्म-संस्कृति
अक्षुण्ण होगी।
कोशिश यही रखनी है कि
केवल दोषारोपण किया जाए।
अपना दोष दूसरों के सिर डालना है।
कोई विरोध न करे।
करनेवाले को बाहर करना।
वह संस्कृति की तरह आएगी
उसका कोई विरोधी न होगा
अन्य जन खामोश रहेंगे।
टुकुर - टुकुर देखेंगे।

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भारतीय संस्कृति

समझना भारतीय संस्कृति
अनुपम है प्रकृति की कलाकृति!
यहाँ की रही है वन-संस्कृति
ईश्वर की है अनूठी सत्याकृति
समाज के मूल आधार हैं ऋषि,
और जीविका के लिए है कृषि!
कण-कण में बसते हैं संत-भगवंत
सर्वदा रहता है यहाँ युवा-वसंत
निर्दोष एवम् स्वभाविक ग्राम्य-जीवन
ईश्वर भी जीते हैं यहाँ लोक-जीवन
आध्यात्मिक मूल्यों का अनुसरण
खग-मृग के साथ करते जन साधारण
लोक-संस्कृति रही है आत्म-निर्भर जीवन
जप-तप से करते धरा का संकट निवारण
होकर प्राकृतिक-नैसर्गिक जीवन अभ्यासी
यहाँ अवतरित होने देवों की चक्षु रहती प्यासी

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प्रेम की मूर्ति
कोरोना का समय है
सब घरों में बंद बाहर भय है
सहधर्मिणी पहले से अंदर है
कभी नहीं जाती बाहर है
अब बढ़ गया है उसका काम
उसे नहीं मिलता आराम
उसकी आजादी में दखल है
काम उसका नहीं सरल है
उसे लगता है कि सभी रुठे हैं
वास्तव में सभी बैठे हैं
भोजन ‘दो जून’ की जगह
‘चार जून’ वाला हो गया है
दो चाय नहीं चार चाय की होती फरमाइश
सुस्वाद व्यंजन बनाने की है आजमाइश
इससे दूध कभी जाता उफन
सब्जी जलकर हो जाती दफ़न
प्रेस करने से जल जाता कपड़ा
इतने से घर में हो जाता लफडा
फिर वह चीखने-चिल्लाने लगती है
बस साक्षात ‘प्रेम की मूर्ति’ लगती है

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मानव ने कर ली है
धरती को नष्ट करने की तैयारी
पर्वत-नदियों को काट-बांध कर
करते अपनी इच्छा पूरी

पेड़- पौधों को हटा-हटा कर
अपने को भगवान समझते
लेकिन भविष्य के खतरों से
हमेशा ही अज्ञानी बनते

प्रकृति हमेशा ही मित्र रही है
केवल देती मनुष्यों को प्राण
मिट्टी, जल और वायु देकर
किया है मनुष्यों का सम्मान

है अभी वक्त मानव समझे
प्रकृति के वरदान की कीमत
वैश्विक हो पारिस्थितिकी संरक्षण
संरक्षित करे, मनुष्य की किस्मत

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पेड़ हैं सच्चे
हरे-भरे तो लगे
बहुत अच्छे

कष्ट सहते
बदले में फल दें
दूर हों गम

आए मौसम
जब पतझड़ का
लाए वीरानी

नयी आशा ले
तपते हैं धूप से
हर टहनी

शांत शाख में
होती है आवाज
खग सुनते

सीना तान ये
धूप-छाँव में हँसते
व्यग्र रहते

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गगन - तारे
किसी से न भिड़ते
खुश रहते।

अगर दुख
मुफ्त में बेच पाते
तो अच्छा होता।

फ़ासले जब
महसूस होते हैं
तो बना भी लें।

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शुभ प्रभात