हिंदुशास्त्रों में वर्णित कुछ अत्याश्चर्यकर कहानी
सनातनियों के ज्ञातार्थ और पालनार्थ रामायण, महाभारत, पुराणादि हिंदुशास्त्रों में वर्णित कुछ अत्याश्चर्यकर रोचक कथाओं का संक्षिप्त संग्रह
पृथ्वी पर आज तक जितने भी धर्म स्थापित हुए हैं, उन धर्मों के अनुयायी विश्वास करते हैं कि उनके धार्मिक ग्रंथों में वर्णित सृष्टिकर्ता ने इस ब्रह्माण्ड की स्थावर-चर आदि सब कुछ रचा है। मनुष्य द्वारा ग्रहण किए गए और आचरण किए जाने वाले विविध धर्मों में से ‘‘सनातन’’ नामक धर्म व्यापक रूप से प्रचलित है। इस धर्म के अनुयायी सामान्यतः हिन्दू नाम से परिचित हैं। वर्तमान हिन्दुओं में से कुछ लोग स्वयं को सनातनी कहकर पहचानेते हैं।
विभिन्न धर्मावलम्बियों में हिन्दू अथवा सनातनियों के पूर्वजों में कुछ पण्डितों ने रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद, पुराण आदि ग्रंथ रचना किया था जो हिन्दुशास्त्र के नाम से प्रचलित हुए। उन ग्रन्थों में विभिन्न देवता, दिव्य शक्तियां और महिमा, मुनि-ऋषि तथा उनकी तपस्या से प्राप्त तेज और शक्तियाँ, दानव-यक्ष-राक्षस और उनकी अपशक्तियाँ, विभिन्न कालों में महा-तेजस्वी अनेक राजाओं की कथाएँ वर्णित हैं। हिन्दुशास्त्रों में वर्णित है कि सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि — इन चार युगों के अंत में महाप्रलय होगा और सृष्टि का विनाश होगा। वर्तमान काल को कलियुग कहा गया है। कलियुग में अनेक पण्डितों ने लोकभाषाओं में मूल हिन्दुशास्त्रों के घटनाक्रमों में अपनी कल्पना के अनुसार परिवर्तन, वृद्धि, संयोग और विखंडन करके नये रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे मूल तथा परिवर्धित-परिवर्तित-संयोजित-वियोजित हिन्दुशास्त्र पढ़ने पर सनातनियों और अन्य धर्मावलम्बी पण्डितों में अनेक संशय उत्पन्न हो गए हैं।
हिन्दुशास्त्र पढने पर ज्ञात होता है कि विभिन्न देवता, मुनि-ऋषि और राजाओं में सत्यनिष्ठा, धर्मपरायणता, समदृष्टि, जितेन्द्रियता आदि गुणों से परिपूर्ण था।
वर्तमान समय में सनातनी जो श्रद्धाभाव से हिन्दुशास्त्रों की आदर करते हैं, उनमें हिन्दुशास्त्रों में वर्णित विभिन्न देवता, मुनि-ऋषि, क्षत्रिय राजाओं द्वारा पूर्वकाल में किए गए कार्यों को सनातनों का अवश्य कर्तव्य होना उचित है। हिन्दुशास्त्रों में वर्णित देवताओं, मुनि-ऋषियों, क्षत्रिय राजाओं के आचरित बिभिन्न कार्य तथा भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को दिए गए उपदेशों से संबंधित कुछ कथाएँ निम्नलिखित हैं—
विभिन्न जितेन्द्रिय देवता और मुनि-ऋषियों की इन्द्रियासक्तियों की कथाएँ:
नारायण और तुलसी की कथा
दानवों के राजा शंखचूड़ की पत्नी तुलसी थीं। तुलसी पतिव्रता और नारायण की एकनिष्ठ भक्त थीं। शंखचूड़ ने तपस्या करके वर पाया था कि उसकी पत्नी जब तक सती (पवित्र) रहेगी तब तक उसे कोई नहीं मार सकेगा। अर्थात शंखचूड़ की पत्नी की पवित्रता बनी रहने तक किसी को उसे मारने का सामर्थ्य नहीं होगा। वर मिलने पर शक्तिशाली शंखचूड़ के उत्पीड़न से सभी देवता परेशान हो गए और ब्रह्मा के नेतृत्व में महादेव शिव के समीप पहुँचे। देवों का देव महादेव तब शंखचूड़ के उत्पीड़न का समाधान हेतु नारायण के पास गए। सभी कथानक सुनकर नारायण ने कहा कि एक ओर महादेव त्रिशूल से शंखचूड़ से युद्ध करेंगे दुसरा और मैं स्वयं शंखचूड़ का पत्नी की सतीत्व को नष्ट कर दूँगा।
नारायण की सलाह पर शंखचूड़ जब युद्धक्षेत्र में महादेव से संघर्षरत थे, उसी समय नारायण ने शंखचूड़ का रूप धारण करके तुलसी के पास जाने से उन्हें अपने पति समझकर गलति करके नारायण के साथ सम्भोग किया तो तुलसी का सतीत्व नष्ट हो गए। दूसरी ओर जब तुलसी का सतीत्व नष्ट हुआ तो महादेव के हाथों से शंखचूड़ का वध हो गया। अपने पति की मृत्यु का समाचार सुनकर तुलसी ने समझ लिया कि नारायण ने धोखा किया है। क्रोध से प्रबल तुलसी ने नारायण को श्राप दिया कि नारायण पत्थर बन जाएंगे और तुलसी तत्काल शरीरत्याग करने का निर्णय कर लीं। नारायण ने तुलसी के श्राप को हँसकर स्वीकार किया और श्राप के प्रभाव से नारायण शालग्राम शिला बन गए।
श्राप देने के तुरन्त बाद तुलसी ने अपनी भूल समझी की उन्होने नरयोण को श्राप दिया हैं। तुलसी से शापित होकर नारायण ने तुलसी को वर दिया कि वह पवित्र तुलसी वृक्ष के रूप में पृथ्वी पर पूजित होंगी और तुलसी के पत्तों बिना शालग्राम की पूजा संपन्न नहिं होगी। नारायण के वर से देवी तुलसी का शरीर गण्डकी नदी बन गया और तुलसी के केशों से पवित्र तुलसी वृक्ष उत्पन्न हुआ। तब से तुलसी देवी गृह की आँगनियों में वृक्ष के रूप में स्थित होकर पूजित होती हैं।
नारायण और वृन्दा
स्कंद पुराण में वर्णित है कि भगवान नारायण ने वृन्दा नामक एक स्त्री के साथ बलात्कार किया था। असुरों के राजा जलन्धर क्रुद्ध होकर देवराज इंद्र के विरुद्ध युद्ध के लिए निकले थे। जलन्धर की पराक्रम से देवताओं परास्त हुए थे।
एक बार शिवपत्नि पार्वती को प्राप्त करने की लालसा में जलन्धर ने पार्वोती को लाने के लिए शिव के समीप दूत भेजा। जब जलन्धर की इच्छा पूरी न हुई तो वह विशाल सेना लेकर शिव के विरुद्ध युद्ध करने चला और युद्ध के दौरान मायाजाल द्वारा शिव को अपने वश में कर लिया तो सभी अस्त्र शस्त्र शिव के हाथ से गिर गए। जलन्धर ने शिव का रूप धारण कर के शिवपत्नि गौरी के निकट पहुँचा। पार्वती को दूर से देखते ही जलन्धर का वीर्य स्खलित हो गया। पार्वती ने शिबके रूप में जलन्धर को पहचान कर वहां से भाग गए। जलन्धर भी शिव के साथ युद्ध के लिये लौट गए। ऐसी स्थिति में पार्वती ने नारायण को स्मरण कराने से नारायण वहाँ पहुँचे तो पार्वती ने कहा, “हे नारायण, दैत्य जलन्धर ने एक अप्रतिम कृत्य किया, क्या तुम्हें उस दुष्ट दैत्य के आचरण का ज्ञान नहीं?” नारायण बोले, “हे देवी, जलन्धर ने ही मार्ग दिखाया है, हम भी उन्हीं मार्ग से चलेंगे, यदि हम ऐसा न करें तो जलन्धर का वध नहीं हो सकता और आपकी पवित्रता की भी रक्षा न हो पाएगी।”
जब जलन्धर शिव के साथ युद्ध में रत था, तब नारायण ने दानवराज जलन्धर की पत्नी वृन्दा की पतिव्रतता नष्ट करने की इच्छा से जलन्धर का रूप धारण कर लिया और जहाँ वृन्दा थी उस महल के अंदर प्रवेश कर गए।
उस समय वृन्दा को एक बुरा स्वप्न देखने से परेशान पति के लिए परेशान हो गए और वे एक ऋषि का दर्शन पाईं। वृन्दा ने उस ऋषि के पास जाकर जलन्धर का समाचार जानना चाहा। ऋषि के आदेश पर दो बंदर जलन्धर के मस्तक व शरीर ले आए। वह देखकर वृन्दा बेहोश हो गईं। होश आने से जलंधर का पत्नी उस ऋषि को अपना पति का प्राण लॉटाने के लिए अनुरोध किए तो ऋषि ने उस स्थान से अदृश्य होने से वृन्दा जीवित जलन्धर को वहाँ देख पाई।
जलन्धर जीवित होकर वृन्दा को आलिंगन करके उस्की गले में चुम्वन किया। बाद में वृन्दा ने भी पति को जीवित देखकर बन में उन्का साथ सम्भोग किया। एक समय वृन्दा जलन्धर-रूप नारायण को पहचान लिया और क्रोध से कहा, “हे नारायण! तुम परस्त्रीगामी हो, तुम्हारे चरित्र पर धिक्कार!” नारायण की निन्दा करके और श्राप देने की बाद वृन्दा ने आत्महत्यार्थ आग में प्रवेश किया। नारायण ने उन्हें रोकने का प्रयत्न किया पर वृन्दा ने नहीं सुना। अंततः नारायण बार-बार उन्हें स्मरण करते हुए दग्धदेह वृन्दा के भस्म-रज से अपना शरीर ढककर उसी स्थान पर बैठे रहे। देवता और सिद्धगण उन्हें सांत्वना प्रदान करते रहे पर उन्हे शान्तिलाभ न हुईं।
ब्रह्मा और सरस्वती
देवताओं में अग्रणी और सृष्टिकर्ता माने जाने पर भी ब्रह्मा पृथ्वी पर पूजित नहीं होते। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि का कार्य करते समय एक अत्यन्त सुंदरी स्त्री को सृजन किया, जिसे सरस्वती, शतरूपा, गायत्री, सावित्री या ब्रह्माणी नाम से परिचित हैं। उस असामान्या सुंदरी के रूप को देखकर ब्रह्मा कामवासना से ग्रस्त हो गए। ब्रह्मा की आंखो मे घोर कामवासना देखने से सरस्वती ब्रह्मा की दृष्टि से छिपने का प्रयास करने लगीं। जिससे कि वे दृष्टि के अंतराल में न आ पाए, ब्रह्मा के स्कन्ध पर पाँच और पांच मुख उत्पन्न हो गए। सरस्वती ने ब्रह्मा के कामलोभ से बचने और सम्मान सुरक्षित रखने हेतु विभिन्न जीवों का रूप धारण करके भागते लगे। ब्रह्मा भी क्रमशः उन जीवों का पुरुष रूप धारण करके उनके साथ संभोग करने लगे और इस प्रकार अनेक प्राणियों की उत्पत्ति हुई। अन्ततः सरस्वती ब्रह्मा की कामवासना से बचने हेतु एक गुफा में आश्रय ले लीं। ब्रह्मा उसी गुफा में सरस्वती के साथ संभोग में लिप्त हुए। सरस्वती ब्रह्मा की कन्या थीं। परन्तु ब्रह्मा के साथ अबैध संभोग के अपराध पर महादेव ने ब्रह्मा का एक मस्तक काट दिया और शाप दिया कि धरती पर कोई भी कभी ब्रह्मा की पूजा नहिं करेगा।
ब्रह्मा और अमोघा
शान्तनु नाम के एक ऋषि की रूपवती पत्नी का नाम अमोघा था। एक दिन शान्तनु फल-फूल संग्रह हेतु वन में जाने के बाद ब्रह्मा अमोघा के पास आए। कामपीड़ित ब्रह्मा इंद्रिय नियंत्रित न कर पाए और महासती अमोघा के साथ संभोग करने के लिये उनका पीछा करने से अमोघा ने ब्रह्मा को निषेध करके पर्णशाला (पतों की बनायी घर) में प्रवेश कर लिया। ब्रह्मा ने उनका पीछा करके पर्णशाला में प्रवेश करने से अमोघा ने ब्रह्मा से कहा, “मैं पतिव्रता मुनिपत्नि हूँ, मैं कभी अपवित्र कृत्य नहीं करूँगी, यदि तूम जबरदस्ती मुझे संभोग करोगे तो मैं तुझे श्राप दूँगी।”
अमोघा ऐसा कहने से ब्रह्मा का वीर्य शान्तनु मुनि के आश्रम में गिर गया। वीर्य गिरते ही ब्रह्मा उसका हंसविमान पर आरूढ़ होकर आश्रम त्याग गए।
ब्रह्मा चले जाने के बाद शान्तनु मुनि आश्रम पर लौटे और आश्रम के बाहर हंस के पदचिन्ह देखे। जब उन्होंने अमोघा से पूछा कि क्या हुआ था, तब अमोघा ने शान्तनु को बताया कि एक कमण्डलुधारी चार मस्तकवाला व्यक्ति हंसविमान पर आकर आश्रम में प्रवेश करके मेरे साथ संभोग करने चाहा; मैंने शंकित होकर पर्णशाला के अंदर प्रबेश करके उनको तिरस्कार किया, तब वे वीर्यस्खलन करके मेरा श्राप के डर से भाग गए। यह सुनकर शान्तनु समझ गए कि आश्रम में आनेवाला वह व्यक्ति ब्रह्मा थे।
बृहस्पति और ममता
पुराणों में वर्णित वेदज्ञ महामुनि उतथ्य के पत्नी अनिंद्यसुंदरी ममता और उनके कनिष्ठ भ्राता देवपुरोहित बृहस्पति थे। एक दिन ज्येष्ठ भ्राता उतथ्य की अनुपस्थिति में बृहस्पति कामवश होकर ज्येष्ठ भ्राता की गर्भवती पत्नी ममता के साथ संभोग करने का प्रयास करने से ममता ने बृहस्पति को रोकने का चेष्टा किया। ममता ने बृहस्पति को फिर कहा कि वे उनका पति उतथ्य द्वारा गर्भवती हैं। अतः एक ही गर्भ में दो पुत्र नहीं हो सकते, और बृहस्पति अमोघरहेका होने के कारण उनका साथ संभोग अधर्म और अनैतिक है। ममता ने कहा कि उनके गर्भ में उतथ्य का पुत्र षड़ङ्गवेद का अध्ययन कर रहा है, अतः तुम यह दुष्कार्य न करो।
किन्तु बृहस्पति की कामोन्मत्तता उच्चतम सीमा पर पहुँच चुकी थी। ममता द्वारा सभी प्रयत्न विफल हो जाने पर बृहस्पति बलपूर्वक ममता के साथ संगम कर बैठे। जब ममता बाधित हुईं और बृहस्पति का स्खलन समीप था, तब ममता के गर्भस्थ पुत्र ने बाधा डालकर उनसे कहा, “हे पितृव्य, आप क्षमताशाली हो सकते हैं, परन्तु मैं इस गर्भाशय में पूर्व से उपस्थित हूं। अतः आप अपना वीर्यस्खलन रोकिए।” बृहस्पति इस तरह से निषेध करके गर्भ के पुत्र ने अपने पद से वीर्य का प्रवेशपथ को अवरुद्ध कर दिया और उस स्खलित वीर्य भूमि पर गिरकर वहाँ से भरद्वाज का जन्म हुआ। ममता के अजन्मे पुत्र से इस प्रकार से बाधित होने से बृहस्पति ने क्रोधित होकर उन्होंने ममता के अजन्मे पुत्र को श्राप दिया कि वह ‘‘दीर्घ तमोराशि’’ अर्थात अनेक कालों अन्धकार में रहेगा। जब वह जन्मा तो अभिशाप के फलस्वरूप वह जन्मान्ध हुआ और उसका नाम दीर्घतमा हुया। कालक्रम में दीर्घतमा एक वेदज्ञ ऋषि बना।
दूसरी ओर भरद्वाज के जन्म के बाद ममता ने अपने द्वारा जन्मे पुत्र न होने के कारण उसे पुत्र न मानकर त्याग दिया। तब बृहस्पति ने भरद्वाज को उतथ्य का क्षेत्रीय पुत्र मानकर पालन करने का प्रस्ताव देने पर ममता ने इनकार किया और भरद्वाज त्याग कर दिया तो बृहस्पति भी उसको त्याग दिया। तत्पश्चात मरुतों ने इस पुत्र का पालन किया। मरुतों भूत या भर हुया था और द्वाज या संकर पुत्र होने के कारण उसका नाम भरद्वाज रखा गया।
चन्द्र और बृहस्पति-पत्नि तारा
ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णित है कि चन्द्रमा ने भाद्रपद मास में कृष्णपक्ष की चतुर्थी को बृहस्पति का पत्नी तारा का हरण किया और शुक्लपक्ष की चतुर्थी को छोड़ दिया था। गुरु बृहस्पति ने तारा को ग्रहण करके गर्भवती तारा को फटकार ने से अपमानित तारा ने चन्द्र को श्राप दिया कि तुम मेरे श्राप के कारण कलंकित हो जाओ और जो तुम्हें देखेगा वह भी कलंकित होगा।
अश्वीनीकुमार और ब्राह्मण-पत्नि गोदाबरि
एक बार शान्त प्रकृति और बलवान सूर्यपुत्र अश्विनीकुमार ने एक अत्यन्त सुन्दरी ब्राह्मणी को तीर्थयात्रा में जाते हुए देखकर उस पर अत्यधिक कामवश हो गए। बार-बार ब्राह्मणी द्वारा नकारे जाने के बाद भी वे बलपूर्वक उसे नजदीकी पुष्पोद्यान में लाकर ब्राह्मणी को संभोग करके उनको गर्भवती कर दिया। उस क्रिया के बाद ब्राह्मणी लज्जित और भयभीत होकर गर्भपात करने के साथ साथ उसी सुन्दर पुष्पोद्यान में एक मनोहर पुत्र का जन्म हो गया। तब वह ब्राह्मणी, मातृस्नेह से नवजात शिशु को लेकर पति के पास गई और जो घटना हुई उसका वर्णन किया। ब्राह्मण क्रोधित हो गए और उस पुत्र सहित ब्राह्मणी को त्याग दिया। परित्यक्त होने पर ब्राह्मणी अत्यन्त लज्जित और दुःखित होकर तपस्या करके देहत्याग करके गोदावरी नामक नदी बन गईं।
इस बीच अश्विनी कुमार ने अपने पुत्र को मातृहीन देखकर स्वयं उसकी रक्षा की और उसे चिकित्सा शास्त्र, कला तथा मन्त्रविद्या का बिशेष शिक्षा दी। बाद में उस अश्विनी-वंशीय किसी व्यक्ति ने वैदिक धर्म का परित्याग करके ज्योतिष-शास्त्र के गणना द्वारा आय अर्जित करने लगे और इस पृथ्वी में गणक नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके वंशीय अन्य ब्राह्मण लोभ-प्रयुक्त शूद्रों के आगे दान-ग्रहन और प्रेतश्राद्धादि की सामग्रियाँ स्वीकार करने से अग्रदानी नाम से परिचित हुई।
वरुण और उतथ्य की पत्नी भद्रा
चन्द्रदेव की भद्रा नाम की एक सर्वाङ्गसुन्दरी कन्या थी। चन्द्र ने बहुत खोजबीन के बाद महर्षि उतथ्य को ही उस कन्या के योग्य वर ठहराया था। वह कन्या भी उतथ्य को अपने योग्य पति के रूप में पाने की अभिलाषा से अत्यन्त कठोर तपस्या में प्रवृत्त हो गई। कुछ दिनों बाद महर्षि अत्रि ने उतथ्य को आमन्त्रित करके भद्रा को उसके हाथों में सौंप दिया। जलाधिपति वरुण के मन में भद्रा के पाणिग्रहण की अभिलाषा थी। वह इच्छा पूरी न होने पर वरुण अत्यन्त दुखी हो गया। फिर एक दिन भद्रा को यमुनाजल में स्नान करते देखकर वरुण ने बलपूर्वक उसे हरण करके अपने पुर में लाया। वह पुर छह लाख ह्रद से घिरे सुशोभित थे, विविध सूरम्य प्रासादों से समाकीर्ण और सर्वकामसम्पन्न था। जलेश्वर वरुण ने भद्रा को उस पुर में लाकर उसके साथ परम सुख से विहार करने लगा।
इस ओर देवर्षि नारद ने यह वृत्तान्त उतथ्य को बता दिया। उतथ्य ने नारद के मुख से अपनी पत्नीहरण का समाचार सुनकर कहा, नारद! तुम तुरन्त वरुण के पास जाकर कहो कि, तुम लोकपालक हो, चन्द्रदेव ने उतथ्य को जिस कन्या को सौंपा है, तुमने उसे क्यों अपहरण किया? वरुण ने नारद के मुख से उतथ्य का यह वाक्य सुनकर कहा, नारद! तुम उतथ्य से कहना कि, यह सर्वाङ्गसुन्दरी मेरी अत्यन्त काम्य है। मैं इसे कभी त्यागूँगा नहीं। वरुण ने यह बात कही तो महर्षि नारद शीघ्र उतथ्य के पास जाकर बोले, वरुण के पास जाकर मैंने तुम्हारी पत्नी को लौटाने का बहुत अनुरोध किया था, पर उसने क्रोध से भरकर मुझे अपमानित करके भगा दिया। वह किसी तरह तुम्हारी पत्नी को लौटाने को तैयार नहीं। अतः अब तुम जो करना चाहिए करो। देवर्षि नारद ने यह बात कहते ही महर्षि उतथ्य वरुण पर अत्यन्त क्रुद्ध होकर शीघ्र ही सम्पूर्ण समुद्र का जल स्तम्भनपूर्वक पीने लगा। उस समय जलाधिपति वरुण ने उतथ्य को सम्पूर्ण जल पीते देखकर और सुखृदों द्वारा बारम्बार निन्दित होकर भी उतथ्य की पत्नी को त्यागा नहीं।
फिर महर्षि उतथ्य क्रोध से भरकर भूमि को आमन्त्रणपूर्वक बोले, तुम्हारा वह छह लाख ह्रदयुक्त स्थान कहाँ है? महर्षि उतथ्य ने ऐसा कहते ही समुद्र तत्क्षणात् वरुण के पुरी से अपसृत हो गया और वह स्थान उषर क्षेत्र के तरह दृश्यमान हो गया। तब महर्षि उतथ्य ने सरस्वती को सम्बोधनपूर्वक कहा, भद्रे! तुम तुरन्त इस स्थान से अपसृत होकर मरुदेश में प्रबाहित हो जाओ। यह स्थान तुम्हारे द्वारा त्यक्त होकर अपवित्र हो जाए। स्रोतस्वती सरस्वती ने उतथ्य का यह आदेश पाते ही तत्क्षण वहाँ से अपसृत हो गईं। तब वरुण ने अपना जलशून्य पुरी देखकर भयभीत होकर उतथ्य को उनका पत्नी को सौंपकर उसकी शरण में आ गया। महर्षि उतथ्य ने पत्नी को पुनः प्राप्त होकर प्रसन्नभाव धारणपूर्वक सम्पूर्ण जगत को जलकष्ट से और वरुण को इस विपत्तिजाल से मुक्त कर दिया।
सूर्य और कुन्ती
राजा कुन्तिभोज शूरसेन कन्या कुन्ती को बाल्यावस्था में अपनी कन्या के रूप में लालन पालन किया। कुन्ती के कुछ बोध के उदय होने पर उसे अग्निहोत्रीय अनल की पारिचर्या में नियोजित किया। बाद में एक दिन चातुर्मास्य व्रतावलम्बी दुर्वासा ऋषि वहाँ उपस्थित हुए, तो कुन्ती ने उनकी सेवा करके उन्हें अत्यन्त सन्तुष्ट करने से दुर्वासा ने उसे एक मन्त्र प्रदान किया। इस मन्त्र का पाठ करके कोई भी देवता को आह्वान करने पर वह आकर आह्वानकारी की मनोकामना पूरी करता है। फिर दुर्वासा चले गए तो कुन्ती मन्त्र की परीक्षा के लिए कौन देवता को आह्वान करे यह सोचने लगी। उस समय सूर्य को उदित देखकर कुन्ती ने वह मन्त्र पढ़कर उसे आह्वान किया तो सूर्यदेव मन्त्रप्रभाव से अपने मण्डल से अति सुन्दर मनुष्य मूर्ति धारण करके कुन्ती के सम्मुख अवतरित हुए। कुन्ती ने सूर्यदेव को आगमन देखकर अत्यन्त विस्मयान्वित होकर काँपते हुए तत्क्षण रजःस्वला हो गईं और कृतांजलि होकर बोलीं, देव! आपके दर्शन से ही मैं कृतार्थ हो गई हूँ, अब आप प्रस्थान करें।
यह सुनकर सूर्य बोले, कुन्ती! तुमने मन्त्र द्वारा मुझे क्यों आह्वान किया और आह्वान करके मुझे भजना क्यों नहीं कर रही हो? हे चारुलोचने, मैं अभी कामातुर हो गया हूँ, तुम्हारे प्रति मेरी प्रेमासक्ति हो गई है, अतएव मेरी कामना पूरी करो। मैं मन्त्रबल से तुम्हारे अधीन हो गया हूँ, अतएव रतिक्रीड़ा के लिए मुझे ग्रहण करो। सूर्यदेव का यह वचन सुनकर कुन्ती बोली, हे धर्मज्ञ! यह जान लिजिए की अभी मैं अनूढ़ा कुलकन्या हूँ, अतएव कोई दुरुक्ति न कहें।
सूर्यदेव ने यह सुनकर कुन्ती से कहा, यदि मैं आज व्यर्थ लौट जाऊँ तो समस्त देवगण के निकट निन्दाभाजन होऊँगा और यह मेरी लिए अत्यन्त लज्जा की बात है इसमें संदेह नहीं। कुन्ती! यदि आज तुम मेरी अभिलाषा पूरी न करो तो तुम्हें और जिस ब्राह्मण ने तुम्हें यह मन्त्र दिया है उसे अत्यन्त कठोर अभिशाप दूँगा। और यदि तुम मेरी अभिलाषा पूरी करो तो मेरे वर से तुम्हारा कन्यारूप और धर्म अपरिवर्तित रहेगा, कोई इस विषय को न जानेगा और मेरे सदृश तुम्हारा एक तेजोदीप्त संतान होगी।
सूर्यदेव ने यह कहकर एकाग्रचित्ता और अत्यन्त लज्जिता कुन्ती को संभोगान्ते अभिलषित वर देकर प्रस्थान कर गए। फिर कुन्ती गृह के अंदर में अपना गर्भधारण गोपन रखकर रहने लगी। यह केवल उसकी प्रिय धात्री के सिवा अन्य कोई यहाँ तक कि उसकी माता तक न जानती थी। इस प्रकार कुछ दिन बीतने पर अति गोपनीय रूप से उसी गृह में एक मनोहर पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र सूरम्य कवच और कुण्डलशोभित तथा सूर्य के समान तेजःपुञ्जसम्भूत कलेवरविशिष्ट हुआ। तदर्शने कुन्ती अत्यन्त लज्जिता होने पर धात्री ने उसके हाथ धारणपूर्वक कहा, सुन्दरि! जब मैं हूँ तो तुम्हारी चिन्ता क्या? फिर संतान को त्यागने की इच्छुक होकर मञ्जूषा में उसे रखकर कुन्ती बोली, पुत्र! मैं दुखी होने पर भी प्राणाधिकस्वरूप तुम्हें त्याग रही हूँ, क्या करूँ अभी मैं इतनी ही दुर्भाग्यशाली हो गई हूँ कि सर्वसुलक्षणान्वित तुम्हें त्यागने को बाध्य हूँ। पुत्र, आशीर्वाद करती हूँ, वह गुणातीत और गुणमयी सर्वेश्वरी विश्वजननी कात्यायनी अम्बिका मेरी अभिलाषा पूरी करने के लिए तुम्हें स्तन्यदुग्ध देकर रक्षा करें। हाय! मैं अभी दुष्टा स्वैरिणी के समान तुम्हें निर्जन वन में त्यागकर जानती नहीं कब फिर प्राणोपेक्षा प्रिय तुम्हारे इस मुखपद्म का दर्शन करूँगी। पुत्र! निश्चय ही मैं पूर्वजन्म में त्रिजगत् की माता जगदम्बिका की आराधना नहीं की, उसी लिए मैं भाग्यहीन हुई हूँ। प्रिय पुत्र अभी तुम्हें वन में त्यागकर स्वकृत इस पाप को स्मरण करके निरन्तर संताप से दग्ध होऊँगी।
इन्द्र और अहल्या
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने अहल्या नामकी एक अपरूपा रमणी को सृजन किया था। ‘अहल्या’ शब्द का अर्थ ‘अनिन्दनीया’। ‘जिसके अंगों में कोई विरूपता नहीं वह ही अहल्या’। ‘अहल्या का पति कौन होगा - इस विषय में ब्रह्मा चिन्तित हो रहे थे। देवताओं के राजा होने के कारण इन्द्र सोचते थे, अहल्या उनका ही पत्नी होगी, किन्तु ब्रह्मा ने अहल्या को गौतम मुनि के पास रखने का निर्णय लिया और बहुत काल व्यतीत होने पर गौतम ने अहल्या को ब्रह्मा के हाथों प्रत्यर्पित किया। गौतम के संयम देखकर ब्रह्मा अत्यन्त सन्तुष्ट होकर अहल्या का गौतम से विवाह कर दिया। अहल्या को गौतम की पत्नी रूप में देखकर देवताओं हताश हो गए। इससे देवराज इन्द्र भयंकर क्रुद्ध हुया औत गौतम के आश्रम में उपस्थित होकर अहल्या को देखा और कामपीड़ित होकर अहल्या का बलात्कार किया।
अहल्या का बलात्कार करके भागते समय गौतम ने इन्द्र को देख लिया तो क्रोधपरवश इन्द्र को अभिशाप दिया, “इन्द्र! तुम परिणाम न सोचकर निरभय चित्त से मेरी पत्नी का बलात्कार किया हो। अतः देवराज, मेरे अभिशाप से तुम समर में शत्रु के कब्जे में हो जाओगे और तुम्हारे शरीर पर योनि के समान क्षत उत्पन्न होकर गात्रवेदना से अशेष यातना भोगोगे। मर्त्यवासी और मुनि ऋषिगण तुम्हारे उस रूप को देखकर उपहास करेंगे।” फिर गौतम ने अपनी पत्नी अहल्या को अत्यन्त तिरस्कार करके कहा, “मेरे आश्रम में तुम सौन्दर्यहीन पाषाण होकर रहो।” यह सुनकर अहल्या रोते हुए बोलीं, “विप्रश्रेष्ठ! स्वर्गवासी इन्द्र ने तुम्हारा रूप धारण करके मुझे बलात्कार किया है, इसमें मेरी कोई प्रेरणा न थी”। गौतम द्वारा अभिशप्त होकर इन्द्र ने सहस्र वर्ष सूर्य की आराधना करके उसके वर से गात्र के सहस्र योनिचिह्न सहस्र नेत्ररूप में परिणत होकर सहस्राक्ष नाम से प्रसिद्ध हुए।
इन्द्र और ऋषि देवशर्मा की पत्नी रुचि
ऋषि देवशर्मा की पत्नी अतुलनीया सुन्दरी रुचि के प्रति इन्द्र की लालसा थी। देवशर्मा स्त्रीचरित्र और इन्द्र की परस्त्रीलालसा के विषय में अवहित होने के कारण रुचि को सावधानता से रक्षा करते थे। एक दिन उन्होंने अपने प्रिय शिष्य विपुल से कहा, मैं यज्ञ करने जा रहा हूँ, मेरी अनुपस्थिति में तुम अपनी गुरुपत्नी की सावधानी से रक्षा करोगे। सुरेश्वर इन्द्र रुचि को सदा कामना करते हैं, वे बहुत प्रकार की माया जानते हैं, वज्रधारी किरीटी, चण्डाल, जटाधारी, कुरूप, रूपवान, युवा, वृद्ध, ब्राह्मण या अन्य वर्ण, पशुपक्षी या मक्षिका-मशकादि के रूप भी धारण कर सकते हैं। दुष्ट कुक्कुर जैसे यज्ञ का घृत लेहन करता है, वैसे ही देवराज रुचि को उच्छिष्ट न कर सके यह देखना।
देवशर्मा चले जाने पर विपुल ने सोचा, मायावी इन्द्र को निवारण करना मेरे लिए कठिन है, मैं पौरुष से गुरुपत्नी की रक्षा करने में समर्थ न होऊँगा। अतएव योगबल से गुरुपत्नी के शरीर में प्रवेश करके पद्मपत्र पर जलबिन्दु के समान निर्लिप्तभाव से रहूँगा, इससे मेरा अपराध न होगा। ऐसा सोचकर महातपः विपुल रुचि के निकट बैठकर अपनी नेत्ररश्मि रुचि के नेत्र में संयोजित करके गुरुपत्नी के शरीर में निर्लिप्तचित्त से प्रवेश किए। रुचि स्तम्भित हो गई, उसके देहमध्य विपुल छाया के तरह रहने लगा।
ऋषि देवशर्मा की शंका सत्य सिद्ध करके इन्द्र आकर्षक रूप धारण करके उपस्थित होकर देखा, आलेख्य में चित्रित मूर्ति के समान विपुल स्थविर नेत्रों से बैठे हैं और उनके निकट पूर्णचन्द्रनिभानना पद्मपलाशाक्षी रुचि भी उपवेशित हैं। इन्द्र के रूपदर्शन से बिस्मिता रुचि बोलने का प्रयास किया “तुम कौन हो?” किन्तु समर्थ न हुई। इन्द्र मधुरवाक्य से बोला, सुन्दरि, मैं इन्द्र हूँ, कामातुर होकर तुम्हारे पास आया हूँ, मेरी अभिलाषा पूरी करो। रुचि को निश्चेष्ट और निर्विकार देखकर इन्द्र ने पुनः उसे आह्वान किया, रुचि उत्तर देने का प्रयास किया तो विपुल गुरुपत्नी के मुख से बोले, क्यों आए हो? ऐसा वाक्य निर्गत होने पर रुचि लज्जित हुई, इन्द्र भी उद्विग्न हुआ और देवराज ने दिव्यदृष्टि से देखा, महातपः विपुल दर्पण के अंदर प्रतिबिम्ब के समान रुचि के देहमध्य स्थित हैं। इन्द्र अभिशाप की शंका से त्रस्त होकर काँपने लगा। इन्द्र की अवस्था देखकर विपुल अपने शरीर में प्रवेश करके बोले, अजितेन्द्रिय दुरबुद्धि पापात्मा पुरंदर, तुम देवता और मनुष्य की पूजा अधिक दिन न पाओगे। गौतम के अभिशाप से तुम्हारा सर्वदेह में योनिचिंह हो गया था वह क्या भूल गए हो? मैं गुरुपत्नी की रक्षा कर रहा हूँ, तुम दूर हो जाओ, मेरा गुरु तुम्हें देखेगा तो अभी भस्म कर देगा। तुम स्वयं को अमर समझकर मुझे अवज्ञा न करो। तपस्याओं असाध्य कुछ नहीं हैं जानकर इन्द्र निरुत्तर रहकर अन्तर्हित हो गया।
शिव और विष्णु का मोहिनी रूप
शिव विष्णु के मोहिनी रूप दर्शनेच्छुक हुए तो विष्णु ने शिव से कहा, “समुद्र मंथनकाले असुरों ने जब अमृतभांड अपहरण किया था तब मैं एक सुन्दरी रमणी के रूप धारण करके उन्हें मोहित करके देवताओं का कार्य सिद्ध किया था। हे महेश्वर, चूंकि आप इच्छा प्रकट की है, अतः मैं आपको कामातुर व्यक्तियों का अत्यन्त अभिलषित अपना वह रूप दिखाऊँगा।” ऐसा कहकर विष्णु तत्क्षणात अन्तर्हित हो गया और महादेव और उमा चारों ओर दृष्टि घुमाकर उसे ढूँढने लगे। अकस्मात् नानाविध फूल और अरुणवर्ण पल्लवयुक्त वृक्षशोभित निकटवर्ती एक उपवन में महादेव ने अपूर्व सुन्दरी एक रमणी को कन्दुक लिये क्रीड़ारत देखा। उसके नितम्बदेश उज्ज्वल वस्त्र से आच्छादित और मेखला शोभित था। वह कन्दुक का अवक्षेपण और उत्क्षेपण करके खेल रही थी, तब उसके स्तनद्वय कम्पित हो रहे थे और उसके उस स्तनभार से लगता था कि उसका सुकोमल शरीर के मध्यभाग प्रत्येक पदक्षेप में भग्न हो जाएगा, ऐसा रूप से वह अपने कुसुमतुल्य कोमल चरण इधर-उधर संचालित कर रही थी। उस रमणी का मुखमण्डल आयत, सुन्दर, चञ्चल चक्षुः से सुशोभित और उसके नयनयुगल कन्दुक के उत्क्षेपण और अवक्षेपण के साथ घूम रहे थे। अति उज्ज्वल कर्णकुण्डल उसके उज्ज्वल गण्डदेश नीलााभ प्रतिबिम्ब से सुशोभित कर रहे थे और खुले केशराशि उसके मुखमण्डल को और आकर्षक किया। कन्दुक लेकर खेलते-खेलते उसका वस्त्र शिथिल हो गया था और केश स्खलित हो गए थे। वह सुन्दर बायें हस्त से केश बंधन का प्रयास कर रही थी और दाहिने हस्त से वह कन्दुक लिये खेल रही थी। इस रूप से विष्णु आत्ममाया से समग्र जगत् विमोहित कर रहे थे।
महादेव जब उस सुन्दरी रमणी को कन्दुक लिये खेलते देख रहे थे, तब वह रमणी भी उनके प्रति क्षण-क्षण दृष्टिपात करके सलज्जा होकर हल्के हास्य कर रही थी। उस सुन्दरी रमणी को निरीक्षण करके और उस रमणी द्वारा प्रतिनिरीक्षण करते देखकर महादेव अपनी परम सुन्दरी पत्नी उमा और निकटस्थ पार्षदों को भुल गए। रमणी के हस्त से अकस्मात् कन्दुक दूर गिर गया तो वह कन्दुक की पश्चात् धावन करने लगी तो महादेव के सामने ही वायु ने उसके कटिदेश के सूक्ष्म वस्त्र उड़ा लिया तो महादेव ने देखा, उस रमणी का प्रत्येक अङ्ग अनिन्द्यसुन्दर है और वह रमणी भी महादेव को निरीक्षण करने लगी। वह रमणी उनके प्रति आकृष्ट है सोचकर महादेव उसके प्रति कामासक्त हो गए। उस रमणी के साथ रमण करने की बासना से शिव इतने उन्मत्त हो गए कि भवानी के समक्ष ही वे निर्लज्ज होकर उस सुन्दरी के पश्चात् धावन करने लगे। प्रबल वायुप्रभाव से वह सुन्दरी रमणी इसी बीच विवसना हो गई थी और वह शिव को अपनी ओर धावित देखकर अत्यन्त लज्जित होकर हँसते-हँसते वृक्ष के अन्तराल में छिप गई और शीघ्र स्थान बदलने लगी। महादेव की कामताड़ना अनियन्त्रित हो जाने से कामान्ध हस्ती जैसे हस्तिनी की ओर धावित होता है, महादेव भी उसी प्रकार सुन्दरी की ओर धावित हुए। तीव्र वेग से रमणी के पीछे धावित होकर महादेव ने उस सुन्दरी की वेणी आकर्षणपूर्वक उसे आलिङ्गन कर लिया। हस्ती द्वारा आलिङ्गिता हस्तिनी के तरह विष्णु के योगमाया से निर्मित नितम्बिनी सुन्दरी महादेव द्वारा आलिङ्गिता होकर अलुलायित केश से महादेव के बाहुपाश से मुक्त होकर तीव्र वेग से पलायन किए। मत्त हस्ती जैसे ऋतुमती हस्तिनी का अनुगमन करता है, अमोघवीर्य महादेव भी उसी प्रकार उस सुन्दरी के पश्चात् धावन करने लगे और तब उनका वीर्य स्खलित हो गया था। पृथिवी के जहाँ-जहाँ महादेव का वीर्य पतित हुआ था, वे-वे स्थान स्वर्ण और रौप्य के खनियों में परिणत हो गए थे। मोहिनी का अनुसरण करते हुए महादेव नदी, सरोवर, पर्वत, वन और उपवन तथा जहाँ-जहाँ ऋषिगण स्थित थे उन सभी स्थानों पर गए थे। महादेव का वीर्य सम्पूर्णरूप से स्खलित होने पर उन्होंने उपलब्धि किया कि कैसे वे विष्णु की माया में वशीभूत हो गए थे और तब वे उस मोह से निवृत्त हो गए।
पराशर और सत्यवती तथा कृष्णद्वैपायन वेदव्यास का जन्मकथा
कृष्णद्वैपायन वेदव्यास महाभारत के रचयिता और अन्यतम प्रमुख चरित्र हैं। वेदव्यास के पिता महामुनि पराशर और माता सत्यवती। एकदा पराशर यमुना नदी पार करने के निमित्त एक नाओ में चढ़े जिनकी चालिका परमासुन्दरी धीवरकन्या सत्यवती थी। सत्यवती के रूप दर्शन से पराशर कामातुर होकर सत्यवती को संभोग करने चाहे तो सत्यवती बोलीं, कुमारी अवस्था में आपके साथ मेरा मिलित होने का कथा कोई जान लेगा या प्रकट हो जाएगा तो मेरा विवाह नहीं होगा। सत्यवती के कथा सुनकर पराशर घन कुज्झटिका सृष्टि करके बोले तुम्हारे साथ मेरा मिलन किसी के दृष्टिगोचर नहीं होगा और मेरे वर से तुम्हारे शरीर में कुमारी का लक्षण अटूट रहेगा। पराशर और सत्यवती के मिलन से सत्यवती गर्भवती हुईं और यथासमय एक द्वीप में एक पुत्र को जन्म दिया। उस पुत्र के गात्रवर्ण अत्यन्त कृष्ण और जन्म द्वीप में होने के हेतु उसका नामकरण हुआ कृष्णद्वैपायन वेदव्यास।
अयोनिज, शुक्रोत्पन्न, नियोगपद्धति तथा यज्ञोत्पन्न विभिन्न मुनि-ऋषि, राजपुत्र एवं राजकन्या की कथाएँ:
युवनाश्व और मान्धाता की कथा
इक्ष्वाकुवंश में युवनाश्व नामक एक राजा थे। उन्होंने मन्त्रियों पर राज्यभार अर्पण करके वन में जाकर संतानकामना में योगसाधना करने लगे। एक दिन वे क्लान्त और पिपासार्त होकर च्यवन मुनि के आश्रम में प्रवेश करके देखा यज्ञवेदी पर एक कलश जल रखा है। युवनाश्व ने जल माँगा, किन्तु उनका क्षीण कण्ठस्वर कोई सुन न सका। तभी उन्होंने उस कलश से जलपान करके अवशिष्ट जल फेंक दिया। च्यवन एवं अन्य मुनि जागृत होकर देखा कलश जलशून्य। युवनाश्व के स्वीकारोक्ति सुनकर च्यवन बोले, राजन्, आपने अनुचित कार्य किया है, आपके पुत्रोत्पत्ति के निमित्त यह तपःसिद्ध जल रखा था। जलपान करने के फलस्वरूप आप ही गर्भवती होकर पुत्र प्रसव करेंगे किन्तु गर्भधारण का कष्ट अनुभव नहिं करेंगे। शतवर्ष पूर्ण होने पर युवनाश्व के बाम पार्श्व को भेदकर एक सूर्यतुल्य तेजस्वी पुत्र निर्गत हुआ। देवता शिशु को दर्शन करने आये। वे बोले, यह शिशु क्या पान करेगा? ‘मां स्यति’ (मुझे पान करेगा) — यह वाक्य कहकर इन्द्र ने अपनी तर्जनी उसके मुखमध्य प्रविष्ट कराने से शिशु ने उसे स्तन्यवत चूसने लगा। इसलिए उसका नामकरण हुआ मान्धाता। यह मान्धाता रामचन्द्र के पूर्वपुरुष थे।
विभाण्डक मुनि, ऋष्यशृङ्ग मुनि तथा रामचन्द्र आदि चार भ्राताओं का जन्मकथा
एकदा विभाण्डक मुनि दीर्घकाल तपस्या से श्रान्त होकर नदी में अवगाहन कर रहे थे, इतने में अप्सरा उर्वशी को दर्शनमात्र वे कामातुर हो गये तो जल के अंदर में उनका शुक्रपात हो गया। उसी समय एक तृषित हरीणी विभाण्डक मुनि के स्नानान्ते उस स्थान से विभाण्डक के शुक्रमिश्रित जलपान करके गर्भवती हुई और यथाकाल में एक मानवशिशु प्रसव किया। इस मानवशिशु के मस्तक पर हिरण के तरह शृङ्ग था। उस शिशु का ऋष्यशृङ्ग नामकरण किया गया। ऋष्यशृङ्ग बाल्यावस्था से ही सदा ब्रह्मचर्य में निरत रहते थे और पिता विभाण्डक के सिवा अन्य कोई मनुष्य भी नहिं देखा था। उसी समय अंगदेश में राजा थे लोमपाद, वे अयोध्या के राजा दशरथ के मित्र थे। राजा लोमपाद की कन्या शान्ता के साथ ऋष्यशृङ्ग का विवाह हुआ था। इसी ऋष्यशृङ्ग मुनि ने राजा दशरथ द्वारा आयोजित पुत्रेष्ठि यज्ञ सम्पादन करने पर, दशरथ की तीन पत्नियाँ कौशल्या के गर्भ से राम, कैकेयी के गर्भ से भरत तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न नामक चार पुत्रों को जन्म हुया।
(प्रथमः सच में क्या हरीणी वीर्यमिश्रित जलपान करके गर्भवती हुई थी, या विभाण्डक हरीणी के साथ मिलित होने के कारण गर्भवती हुई थी – यह संदेह के ऊर्ध्व नहीं। द्वितीयः राम, भरत लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न को क्या दशरथ के पुत्र कहा जाना यौक्तिक?)।
मत्स्यगन्धा या सत्यवती का जन्मकथा
शुक्तिमती नदी के निकट राजा उपरिचर की राजधानी था। कोलाहल नामक पर्वत शुक्तिमती नदी के गर्भ में एक पुत्र एवं एक कन्या उत्पन्न किया था। राजा उपरिचर ने उस पुत्र को सेनापति एवं कन्या को पत्नी बनाया। एक दिन मृगया करते हुए राजा उपरिचर अपनी ऋतुस्नाता रूपवती पत्नी गिरीका को स्मरण करके कामाविष्ट हो गये जिससे उनका शुक्रस्खलन हो जाने से उस शुक्र को एक श्येनपक्षी को सौंपकर बोले, तूम शीघ्र जाकर गिरीका को यह शुक्र अर्पण करो। पथिमध्य में अन्य एक श्येनपक्षी के आक्रमण से वह शुक्र यमुना के जल में पतित हो गया तो अद्रिका नामक ब्रह्मशाप से मत्स्यरूपी एक अप्सरा ने उस शुक्रमिश्रित जल पान करके गर्भिणी होकर दशम माहिना में धीवर के जाल में पकड़ी गयी। धीवर ने उस मत्स्य के उदर में एक सुंदर पुरुष एवं एक सुन्दरी कन्या संतान पाकर राजा उपरिचर के निकट ले जाने का समय उस अप्सरा शापमुक्त हो गयी। उपरिचर ने पुरुष संतान को रखकर धीवर से कहा, यह कन्या तुम्हारी ही हो। उस सुन्दरी कन्या का नामकरण सत्यवती किया गया और उसका दुसरा नाम था मत्स्यगन्धा।
द्रोणाचार्य का जन्मकथा
देवगुरु बृहस्पति के पुत्र महर्षि भरद्वाज गंगा में स्नान करने गये थे। उसी स्थान पर अनिन्द्यरूपयौवनसम्पन्ना सुंदरी अप्सरा घृताची तब स्नान कर रही थी। नदी की खरस्रोत में घृताची का अङ्गवस्त्र बह गया जिससे जलमध्य में नग्निका सुन्दरी घृताची को दर्शन करके भरद्वाज कामोन्मत्त हो गये और तत्क्षणात उनका वीर्यपात हो गया। भरद्वाज ने उस स्खलित वीर्य को संग्रहपूर्वक एक 'द्रोण' या कलश नामक पात्र में संरक्षित किया। उस संग्रहीत वीर्य से एक पुत्र का जन्म हुआ। द्रोण में रक्षित वीर्य से जन्म लेने के कारण उस पुत्र का नाम द्रोणाचार्य रखा गया।
कृपाचार्य एवं कृपी का जन्मकथा
महर्षि गौतम के पुत्र शरद्वान अजेय धनुर्विद थे तथा उनका पराक्रम एवं धनुर्विद्या में पारदर्शिता देवराज इन्द्र को शंकित किया था। एकदा महर्षि गौतम के पुत्र शरद्वान जब वन में तपस्या कर रहे थे, तब इन्द्रप्रेरित अति सूक्ष्म वस्त्रपरिधिता उद्भिन्नयौवना एक अप्सरा वहाँ आगमन करके मनोहर भङ्गिमा से शरद्वान को आकृष्ट करने लगी। उस अप्सरा की मनोहर अङ्गभङ्गिमा से शरद्वान कामातुर हो गये जिससे उनका वीर्यस्खलन होकर एक शर के अग्रभाग पर पतित हुआ तो स्खलित वीर्य द्विधाबिभक्त होकर भूमौ पर पतित होते ही एक शिशुपुत्र एवं एक शिशुकन्या का जन्म हो गया। उन शिशुद्वय को देखकर राजा शान्तनु ने राजप्रासाद में आनयन करके शिशुपुत्र का नाम कृप एवं शिशुकन्या का नाम कृपी रखा।
विचित्रवीर्य, धृतराष्ट्र, पाण्डु एवं विदुर का जन्म वृत्तान्त
शान्तनु के साथ सत्यवती का विवाह होने पर सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य नामक शान्तनु के दो पुत्रों का जन्म हुआ। कनिष्ठ पुत्र यौवनलाभ करने के पहले ही शान्तनु का मृत्यु हो गया जिससे भीष्म ने चित्रांगद को राजपद में अभिषिक्त किया। चित्रांगद बलदर्प से मनुष्य देव असुर गन्धर्व सबको नीच मानते थे। एक दिन गन्धर्वराज चित्रांगद से बोला, तुम्हारा और मेरा एक ही नाम है, मेरे साथ युद्ध करो नतुबा अन्य नाम ग्रहण करो। तभी कुरुक्षेत्र में हिरण्मती नदीतट पर दोनों का घोर युद्ध हुआ जिसमें शान्तनुनन्दन चित्रांगद मारा गया तो भीष्म ने नाबालक विचित्रवीर्य को राजपद में अधिष्ठित किया। विचित्रवीर्य यौवनलाभ करने पर भीष्म ने उसके विवाह के निमित्त विमातृ की अनुमति लेकर अम्बा अम्बिका एवं अम्बालिका नामक काशीराज की तीन कन्याओं को बलपूर्वक हस्तिनापुर ले आये।
विवाह के पहले काशीराज की ज्येष्ठा कन्या अम्बा ने भीष्म से कहा, मैं स्वयंवर में शाल्वराज को पति के रूप में वरण करती थी, वे भी मुझे पत्नी के रूप में चाहते हैं, मेरे पिता को भी उसमें संमति है। अम्बा की मनोबासना सुनकर भीष्म ने अम्बा को शाल्वराज के पास भेज दिया और अन्य दो कन्या अम्बिका एवं अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह दिया। विचित्रवीर्य दो सुन्दरी पत्नियों को पाकर अत्यधिक कामासक्त के हेतु क्षयरोग से ग्रस्त होकर मर गए। पुत्रशोक से कातर सत्यवती ने अपने दो पुत्रवधुओं को सान्त्वना देकर भीष्म से कहा, राजा शान्तनु के वंशरक्षा का भार अब तुम्हारा है। तुम धर्म के तत्त्व एवं कुलाचार सबिशेष अवहित हो, अतएव मेरे आदेश में वंशरक्षा के निमित्त दो भ्रातृवधुओं के गर्भ में संतान उत्पन्न करो अथवा स्वयं राज्य में अभिषिक्त होकर विवाह करो।
भीष्म बोले, माता, मैं त्रिलोक का समस्त त्याग कर सकता हूँ किन्तु जिस प्रतिज्ञा का किया है वह भङ्ग नहीं कर सकता। महाराज शान्तनु का वंश जिससे रक्षा होगा उसके निमित्त क्षात्रधर्मसम्मत उपाय बता रहा हूँ, सुनिए — “पुराकाल में परशुराम द्वारा पृथ्वी निःक्षत्रिय हो जाने पर क्षत्रियस्त्रीयां वेदज्ञ ब्राह्मण के साथ संभोग करके संतन प्राप्त किया था, “पुत्रोत्पत्तिः अभवत्, वेदे वर्णितम् अस्ति यत् क्षेत्रजः पुत्रः विवाहकारिणः पुत्ररूपेण गण्यते।“ धर्मात्मा बलि इस धर्मसम्मत उपाय को अवलम्बन करके महर्षि दीर्घतमा द्वारा अपनी स्त्री सुदेष्णा के गर्भ से अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, पुण्ड्र एवं सुह्म नामक पञ्च तेजस्वी पुत्रों को प्राप्त कर चुके थे”।
भीष्म के पास ऐसी सुनकर सत्यवती किंचित् लज्जितभाव से अपना पूर्व इतिहास प्रकट करके बोलीं, कन्यावस्था में महामुनि पराशर के औरसे मेरा एक पुत्र हुआ था उसका नाम कृष्णद्वैपायन वेदव्यास। भीष्म, तुम और मैं अनुरोध करेंगे तो कृष्णद्वैपायन उसके भ्रातृवधुओं के गर्भ में पुत्र उत्पन्न करेंगे।
अतःपर सत्यवती स्मरण करने पर वेदव्यास हस्तिनापुर आगमनपूर्वक अम्बिका के साथ मिलने से उसके गर्भ में धृतराष्ट्र को, अम्बालिका के साथ मिलने से उसके गर्भ में पाण्डु को तथा एक दासी के साथ मिलकर उसके गर्भ में विदुर को उत्पन्न किया।
गान्धारी के दुर्योधन आदि शत पुत्र एवं एक कन्या का जन्मवृत्तान्त
महर्षि वेदव्यास ने गान्धारी को वर दिया था कि उसके एकशत् पुत्र होंगे। यथाकाल में गान्धारी गर्भवती हुईं, किन्तु दो वर्ष व्यतीत होने पर भी उनका कोई संतान भूमिष्ठ न हुई। अपरत्र कुंती का एक पुत्र युधिष्ठिर का जन्म हो चुका जानकर वे अधीर एवं ईर्षान्वित होकर अपना गर्भपात कर लिया तो लोहे के तरह कठिन एक मांसपिण्ड प्रसूत हुआ। वे उस मांसपिण्ड को परित्याग करने जा रही थीं उस समय वेदव्यास आकर बोले, मेरा वाक्य वृथा नहिं होगा। अतः वेदव्यास के उपदेश से गान्धारी ने शीतल जल में मांसपिण्ड भिजवाकर रखा, उससे अङ्गुष्ठप्रमाण एकशत् एक भ्रूण सृष्टि हुआ। उन भ्रूणों को उन्होंने पृथक् पृथक् घृतपूर्ण कलशों में रखा तो एक वर्ष पश्चात् एक कलश में दुर्योधन जन्मग्रहण किया। दुर्योधन जन्मग्रहण करने के एक माहिने व्यतीत होने पर शेष एकशत् भ्रूणों से दुःशासन, दुःसह आदि और निन्यानब्बे पुत्र एवं दुःशला नामक एक कन्या जन्मग्रहण की। गान्धारी गर्भिणी रहने के समय एक वैश्या धृतराष्ट्र की सेवा कर रही थी जिसके फलस्वरूप उस वैश्या के गर्भ से युयुत्सु नामक एक पुत्र जन्मग्रहण किया।
धृष्टद्युम्न एवं द्रौपदी का जन्मवृत्तान्त
एकदा द्रोणाचार्य के द्वारा पराजित हो जाने पर द्रुपद प्रतिशोध एवं पुत्रलाभ के लिए अत्यन्त व्यग्र हो गये। वे गंगा एवं यमुना तट पर चलते चलते एक ब्राह्मणों के बसती में आये। उसी स्थान पर याज एवं उपयाज नामक दो ब्रह्मर्षि निवास करते थे। उपयाज की पदसेवा करके द्रुपद बोले, मैं आपको दस कोटि गाभी दान करूँगा, आप मुझे ऐसा पुत्र प्राप्ति का उपाय करें जो पुत्र द्रोणाचार्य का वध करे। उपयाज राजी न हुए, तथापि द्रुपद उनकी सेवा करने लगे। एक वर्ष व्यतीत होने पर उपयाज बोले, मेरा ज्येष्ठ भ्राता याज शौच-अशौच विचार नहीं करते। वे गुरुगृ में वास करने के समय दुसरों का उच्छिष्ट भिक्षान्न भोजन करते थे। याज धन की आशा करते हैं तथा आपके लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करेंगे। याज के प्रति श्रद्धाहीन होते हुए भी द्रुपद ने उनके पास प्रार्थना किया तो याज सहमत हुए एवं उपयाज को सहायक के रूप में नियुक्त किया।
यज्ञ समाप्त होने पर याज ने द्रुपद की पत्नी को आह्वान करके कहा आपके दो संतान उपस्थित हुए। अतः याज ने यज्ञाग्नि में आहुति दी तो यज्ञाग्नि से एक अग्निवर्ण वर्ममुकुटभूषित खड्ग एवं धनुर्वाणधारी कुमार गरजते हुए आबिर्भूत हुए। पाञ्चालजन हृष्ट होकर साधु साधु कहने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई — यह राजपुत्र द्रोण का वध करेगा। तत्पश्चात् यज्ञवेदी से एक कुमारी आबिर्भूत हुई। वह सुन्दरी, श्यामवर्णा, पद्मपलाशलोचना, कुंचित कृष्णकेशा एवं उसके अङ्गसौगन्ध बहुत दूर भी अनुभूत हो रहा था। पुनर्वार आकाशवाणी हुई — समस्त नारियों में श्रेष्ठा इस कृष्णा के निमित्त क्षत्रियक्षय एवं कुरुवंश का सर्वनाश होगा। द्रुपद एवं उनकी पत्नी ने इस कुमार एवं कुमारी को पुत्र-कन्या के रूप में प्राप्त करके अत्यन्त संतुष्ट हुए। कुमार का नामकरण धृष्टद्युम्न एवं कुमारी का नामकरण कृष्णा किया गया तथा द्रुपद की कन्या होने के कारण द्रौपदी नाम से भी अभिहित हुई।
मांसाहार के विषय में युधिष्ठिर को भीष्म का उपदेश:
युधिष्ठिर भीष्म से बोले, पितामह, आपने कई बार कहा है कि अहिंसा परम धर्म है। आपके पास यह भी सुना है कि पितृगण आमिष भोजन से अधिक तृप्त होते हैं इसलिए श्राद्ध कार्य में विभिन्न प्रकार का मांस दिया जाता है। हिंसा किए बिना मांस कैसे प्राप्त होगा? भीष्म बोले, जो सौंदर्य, स्वास्थ्य, आयु, बुद्धि, बल और स्मरणशक्ति की कामना करते हैं वे हिंसा त्याग करते हैं। स्वयंभुव मनु ने कहा है, जो मांसाहार और पशुहत्याएं नहीं करता वह सर्वजीवों का मित्र और विश्वासपात्र है। नारद ने कहा है, जो व्यक्ति पराई मांस भक्षण करके अपना मांस बढ़ाना चाहता है वह कष्ट भोगता रहता है। मांसाहारी व्यक्ति मांसाहार त्याग दे तो जो पुण्यफल प्राप्त करता है, वेदाध्ययन और सभी यज्ञों के अनुष्ठान करने पर भी वैसा फल नहीं मिलता। मांस भोजन में आसक्ति उत्पन्न हो जाए तो उसे त्यागना कठिन होता है। मांसाहार त्याग देने पर सभी प्राणी अभय प्राप्त कर लेते हैं। मांसभोजी न रहे तो कोई पशुहत्यां नहीं करेगा, मनुष्य मांस भोजन के लिए पशुघातक हो गया है। मनु ने कहा है, यज्ञ आदि कर्मों और श्राद्ध में पितृगण के उद्देश्य से जो मंत्रपूत संस्कृत मांस निवेदित होता है वह पवित्र है, उसके अतिरिक्त अन्य मांस अपवित्र और अभक्ष्य है।
युधिष्ठिर ने पुनः कहा, मांसाहारी व्यक्ति पिठा शाक आदि सुस्वादु भोजन की अपेक्षा मांस भोजन से अधिक तृप्त होते है। मेरा अभिमत है कि मांस के तुल्य सुस्वादु और सरस भोजन कुछ नहीं है। अतएव, आप मांसाहार और मांस वर्जन के दोषगुण का वर्णन करें। भीष्म बोले, तुम्हारा वाक्य सत्य है, मांस से अधिक सुस्वादु कोई भक्ष्य द्रव्य नहीं है। क्षीणदेही दुर्बल इन्द्रियसेवी और श्रांत लोगों के लिए मांस ही श्रेष्ठ भोजन है, उससे शीघ्र बलवृद्धि और पुष्टिलाभ होता है। तथापि जो व्यक्ति पराई मांस भोजन करके अपना मांस बढ़ाना चाहता है उससे अधिक क्षुद्रमति और नृशंस कोई नहीं है। वेद में वर्णित है कि पशुगण यज्ञ के लिए सृजित हुए हैं, अतएव यज्ञ के अतिरिक्त अन्य कारण से पशुहत्यां राक्षस का कर्म है। प्राचीन काल में महामुनि अगस्त्य अरण्य के पशुओं को देवताओं के लिए उत्सर्ग कर चुके थे, इसलिए क्षत्रियों के लिए यज्ञ के निमित्त मृगया धर्मसम्मत है।
विश्वामित्र और चंडाल की कथा:
युधिष्ठिर भीष्म से बोले, पितामह, धर्म लोप हो जाने पर मनुष्य परस्पर को बंचना करने लगते हैं, अनावृष्टि के फल से खाद्याभाव हो जाता है, समस्त धन दस्युओं के हाथ लग जाता है, उस आपत्काल में जीवनयापन कैसे करना समीचीन है? भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा, मैं एक प्राचीन कथा सुनाता हूं, सुनो –
त्रेता और द्वापर युग के संधिकाल में बारह वर्ष तक घोर अनावृष्टि हुई थी। कृषिकार्य असंभव हो गया, चोरों और राजाओं के उत्पीड़न से ग्राम नगर आदि जनशून्य हो गए, गाय आदि पशु खाद्याभाव से नष्ट हो गए, मनुष्य क्षुधातुर होकर परस्पर के मांस भक्षण में प्रवृत्त हो गए। ऐसे आपत्काल में महर्षि विश्वामित्र ने स्त्री पुत्रों को एक जनपद में रखकर क्षुधातुर होकर खाद्य की खोज में विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते हुए एक दिन वे चंडालों के बस्ती में पहुंचे और बिखरे हुए सारमेयचर्म, शूकर और गर्दभ के अस्थि तथा मृत मनुष्य के मलिन वस्त्र देखे। कहीं मुर्गा और गर्दभ की ध्वनि सुनाई दे रही थी, कहीं चंडाल एक दूसरे से कलह कर रहे थे। विश्वामित्र ने खाद्य की खोज की, किंतु कहीं मांस अन्न या फलमूल न देख पाने पर दुर्बलता वश अवसन्न होकर भूमि पर गिर पड़े। अकस्मात् उनकी दृष्टि पड़ी, एक चंडाल के गृह में सारमेय का मांस रखा है। विश्वामित्र ने विचार किया, प्राणरक्षा के लिए चोरी करने में अधर्म नहीं होगा। रात्रिकाल में चंडाल निद्रित हो जाने पर विश्वामित्र उस चंडाल के गृह में प्रवेश करते ही चंडाल जागृत होकर कहा, कौन हो तुम मांस चोरी कर रहे हो? तुम्हें मैं मार डालूंगा।
विश्वामित्र उद्विग्न होकर बोले, मैं विश्वामित्र हूं, क्षुधा से मृतप्राय होकर तुम्हारे गृह में कुत्ते का मांस चुराने आया हूं। मेरा वेदज्ञान लुप्त हो गया है, मैं खाद्य-अखाद्य विवेचना में अक्षम हूं, अधर्म जानकर भी चोरी कर रहा हूं। अग्नि जिस प्रकार सर्वभुक है, मैं भी अब वैसा ही सर्वभुक हूं।
चंडाल सम्मानपूर्वक शय्या त्याग करके कृतांजलि होकर कहा, महर्षि, ऐसा कर्म न करें जिससे आपकी धर्महानि हो। पंडितों के मत से सारमेय शियाल से भी अधम है, फिर उसके पश्चाद्देश का मांस अन्य अंगों के मांसापेक्षा अपवित्र है। आप धार्मिकों के अग्रगण्य हैं, प्राणरक्षा के लिए अन्य उपाय अपनाएं। विश्वामित्र बोले, मेरा कोई अन्य उपाय नहीं है। प्राणरक्षा के लिए कोई भी उपाय सही है, क्षुधा निवारण करके सबल होकर धर्माचरण करने पर पापक्षालन हो जाएगा। वेदरूप अग्नि मेरी शक्ति है, उसी के प्रभाव से मैं अभक्ष्य मांसभोजन से क्षुधाशांति करूंगा। चंडाल बोला, कुत्ते के मांस भक्षण से आयुवृद्धि नहीं होती, प्राण तृप्त नहीं होता, अतएव आप अन्य खाद्य संग्रह का उपाय करें या क्षुधा दमन करके धर्मरक्षा करें।
विश्वामित्र बोले, असहनीय क्षुधा में मेरे निकट हरिण का मांस और कुत्ते का मांस समान है। मेरा प्राणसंशय हो गया है, असत् कार्य करने पर भी मैं चंडाल नहीं होऊंगा। चंडाल बोला, ब्राह्मण कुकर्म करने पर ब्राह्मणत्व नष्ट होता है इसलिए मैं आपको निवारण कर रहा हूं। नीच चंडाल के गृह से कुत्ते का मांस चुराने पर आपका चरित्र दूषित होगा, आपको अनुताप करना पड़ेगा।
विश्वामित्र चंडाल की कोई आपत्ति न मानकर मांस लेकर वन में लौट आए। अनन्तर, देवगण को निवेदन पूर्वक सपरिवार मांस भोजन करेंगे ऐसा सोचकर विश्वामित्र ने विधिपूर्वक अग्नि प्रज्ज्वलित करके लाए गए कुत्ते के मांस को रंधन करके देवगण और पितृगण को आह्वान किया तो देवराज इंद्र ने प्रचुर वर्षा करके औषधि और प्रजाजनों को संजीवित किया। इससे विश्वामित्र का पाप नष्ट हो गया और वे परमगति प्राप्त कर गए।
भीष्म द्वारा वर्णित शास्त्रानुसार विवाहभेद, कन्या का अधिकार, वर्णसंकर और पुत्रभेद:
युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा, पितामह, किस प्रकार के पात्र में कन्यादान करना उचित है? भीष्म बोले, स्वभाव चरित्र विद्या कुल और कर्म देखकर गुणवान पात्र में कन्यादान करना समीचीन है। ऐसे विवाह को ब्राह्मविवाह कहते हैं, ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए यही विवाह प्रशस्त है। वर और कन्या के परस्पर प्रणयजनित विवाह को गंधर्व विवाह कहते हैं। धन द्वारा कन्या क्रय करके जो विवाह होता है उसका नाम आसुर विवाह है। आत्मीयों को हत्या करके क्रंदनरत कन्या से विवाह का नाम राक्षस विवाह है। उत्तरोक्त दोनों विवाह निंदनीय हैं। ब्राह्मण आदि प्रत्येक वर्ण के पुरुष अपनी समवर्णा या निम्नवर्ण की कन्या से विवाह कर सकता है। ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए समवर्णा पत्नी ही श्रेष्ठ है। तैंतीस वर्ष के पात्र को दस वर्ष की कन्या और इक्कीस वर्ष के पात्र को सात वर्ष की कन्या विवाह को करेगा। ऋतुमती हो जाने पर कन्या तीन वर्ष प्रतीक्षा करने के बाद स्वयं पति वरण करेगी। केवल बागदान करने से या पण ग्रहण करने से विवाह संपन्न नहीं होता, मंत्रपाठ और होम करके कन्या सम्प्रदान करने पर ही विवाह संपन्न होता है। सप्तपदी गमन के बाद पाणिग्रहण मंत्र सम्पूर्ण होता है।
युधिष्ठिर ने फिर भीष्म से पूछा, कन्या रहते हुए अपुत्रक व्यक्ति का धन अन्य कोई प्राप्त कर सकता है क्या? भीष्म बोले, कन्या पुत्र के समान है, उसके पैतृक धन में अन्य कोई अधिकारी नहीं होगा। पुत्र हो भी तो माता के यौतुक धन में केवल कन्या का अधिकार है। अपुत्रक व्यक्ति का दौहित्र भी पुत्र के समान अधिकारी है। युधिष्ठिर बोले, आप वर्णसंकर की उत्पत्ति और कर्म के विषय में कहें। भीष्म बोले, पिता ब्राह्मण और माता ब्राह्मणकन्या हो तो पुत्र ब्राह्मण, माता क्षत्रियकन्या हो तो पुत्र मूर्धाभिषिक्त, माता वैश्यकन्या हो तो पुत्र अंबष्ठ और माता शूद्रकन्या हो तो पुत्र पर्शव नाम से प्रसिद्ध होता है। पिता क्षत्रिय और माता क्षत्रियकन्या हो तो पुत्र क्षत्रिय, माता वैश्यकन्या हो तो पुत्र माहिष्य और माता शूद्रकन्या हो तो पुत्र उग्र नाम से प्रसिद्ध होता है। पिता वैश्य और माता वैश्यकन्या हो तो पुत्र वैश्य और माता शूद्रकन्या हो तो पुत्र करण नाम से जाना जाता है। शूद्र और शूद्रा का पुत्र शूद्र ही होता है।
निम्नवर्ण के पिता और उच्चवर्ण की माता का संतान निंदनीय होता है। क्षत्रिय और ब्राह्मणी का पुत्र सूत, उनका कर्म राजाओं की स्तुतिपाठ है। वैश्य और ब्राह्मणी का पुत्र वैदेहक या मौली, उनका कर्म अन्तःपुर रक्षण, उनका उपनयन आदि संस्कार नहीं है। शूद्र और ब्राह्मणी का पुत्र चंडाल, वे कुल के कलंक हैं, ग्राम के बाहर रहते हैं और घातक का कर्म करते हैं। वैश्य और क्षत्रिय की पुत्री वाक्यजीवी वंदी या मागध। शूद्र और क्षत्रिय की पुत्री मत्स्यजीवी निषाद। शूद्र और वैश्य की पुत्री सूत्रधार। शास्त्र में केवल चतुर्वर्ण का धर्म निश्चित है, वर्णसंकर जातियों का धर्म का कोई विधान नहीं है, वे संख्या में भी अत्यधिक हैं।
परिशेष में भीष्म बोले, औसरजात पुत्र आत्मस्वरूप है। पति की अनुमति से अन्य से उत्पन्न संतान का नाम निरुक्तज, बिना अनुमति से संतान हो तो उसका नाम प्रसूतिज। बिनमूल्य प्राप्त दुसरो का पुत्र दत्तकपुत्र, मूल्य से प्राप्त पुत्र को कृतकपुत्र कहते हैं। गर्भवती कन्या के विवाह के बाद जन्मा पुत्र को अध्योढ़ कहलाता है। कुमारी कन्या का पुत्र को कानीन कहलाता है।
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