part - 3
दिल्ली की रातें अब सयुग को डराती नहीं थीं।
पहले जिन सड़कों पर चलते हुए उसे अपने होने पर शक होता था, अब वही सड़कें उसे पहचानने लगी थीं।
कैफे के बाहर लगी छोटी-सी लाइट, अंदर आती कॉफी की खुशबू और लोगों की हलचल—यह सब अब उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका था।
लेकिन मन के भीतर एक कोना ऐसा था, जहाँ हर रात बेचैनी जाग जाती थी।
उस कोने में आयशा रहती थी, उसकी आँखों की नमी और उसके पिता की सख़्त नज़रें।
उस दिन के बाद से आयशा के पिता कैफे में दोबारा नहीं आए।
आयशा भी कुछ दिनों तक नहीं दिखी।
सयुग काम में डूबा रहता, लेकिन हर बार दरवाज़ा खुलने पर उसकी नज़र अनायास ही उधर चली जाती।
दिल मानने को तैयार नहीं था कि सब यूँ ही खत्म हो सकता है।
एक शाम जब कैफे लगभग खाली था, आयशा आई। उसके चेहरे पर थकान थी, आँखों के नीचे हल्के काले घेरे।
उसने बिना मुस्कुराए कुर्सी खींची और बैठ गई। सयुग उसके सामने पानी रखकर चुपचाप खड़ा रहा।
कुछ पल ऐसे गुज़रे जैसे शब्द रास्ता ढूँढ रहे हों।
आयशा ने कहा ,
“पापा बहुत नाराज़ हैं।
सयुग ने सिर हिला दिया। उसे यह बात पहले से पता थी, बस सुनना मुश्किल था।
“उन्होंने मेरी शादी की तारीख़ भी तय कर दी है।”
ये शब्द किसी हथौड़े की तरह उसके सीने पर गिरे।
वह कुछ कहना चाहता था, लेकिन आवाज़ गले में अटक गई।
आयशा की आँखों में आँसू थे, पर वह रो नहीं रही थी। शायद उसने रोने का वक़्त भी तय कर लिया था।
“मैं उनसे लड़ रही हूँ,” उसने आगे कहा, “लेकिन हर बार वो यही कहते हैं कि प्यार पेट नहीं भरता, इज़्ज़त नहीं दिलाता।”
सयुग को पहली बार अपनी हैसियत का अहसास हुआ। उसने मेहनत की थी, बदला था, लेकिन समाज की नज़र में वह अब भी वही था—एक गाँव का लड़का, बिना बड़े नाम के।
उस रात दोनों देर तक बैठे रहे।
कोई फैसला नहीं हुआ, लेकिन एक बात तय थी—वे एक-दूसरे को यूँ ही छोड़ नहीं सकते थे।
अगले कुछ हफ्तों में हालात और मुश्किल हो गए।
आयशा के घर में उसका फोन तक सीमित कर दिया गया।
मिलने पर रोक थी। हर बार जब सयुग उसे फोन करता, दिल धड़कता रहता कि कहीं आख़िरी बार तो बात नहीं हो रही।
दूसरी तरफ़, कैफे में काम बढ़ रहा था।
मालिक अब उस पर पूरा भरोसा करने लगे थे।
नए आउटलेट की प्लानिंग चल रही थी और सयुग हर मीटिंग में शामिल होता।
कामयाबी धीरे-धीरे उसके क़दम चूम रही थी, लेकिन दिल बेचैन था।
एक दिन कैफे के मालिक ने उसे अपने केबिन में बुलाया। उन्होंने सीधे बात की—नया आउटलेट खुलने वाला था और उसे उसकी ज़िम्मेदारी दी जा रही थी।
सैलरी बढ़ेगी, रहने के लिए बेहतर जगह मिलेगी, और सबसे बड़ी बात—एक पहचान।
सयुग ने बाहर निकलते हुए पहली बार महसूस किया कि वह सिर्फ़ संघर्ष नहीं कर रहा, आगे बढ़ भी रहा है।
उसी शाम उसने आयशा को मैसेज किया।
जवाब देर से आया, लेकिन जब आया तो उसमें एक लाइन थी—“मुझे तुम पर भरोसा है।”
यह भरोसा ही था जो उसे हर दिन मज़बूत बनाता गया।
लेकिन ज़िंदगी शायद उसे और परखना चाहती थी।
एक शाम आयशा अचानक कैफे में आई।
इस बार उसके साथ उसके पिता भी थे।
माहौल भारी हो गया। ग्राहकों की आवाज़ें जैसे धीमी पड़ गईं।
आयशा के पिता ने कुर्सी खींचकर बैठते हुए सीधा सयुग की तरफ़ देखा।
“बैठो,” उन्होंने कहा।
सयुग बैठ गया। उसके दिल की धड़कन तेज़ थी, लेकिन चेहरे पर शांति रखने की कोशिश कर रहा था।
“तुम्हें लगता है कि तुम मेरी बेटी के लायक हो?”
सवाल सादा था, लेकिन उसके पीछे सालों की सोच छुपी थी।
सयुग ने एक पल सोचा, फिर बोला, “लायक होने का फ़ैसला मैं नहीं कर सकता। लेकिन मैं इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि मैं उसे कभी छोटा महसूस नहीं होने दूँगा।”
आयशा के पिता ने हल्की मुस्कान दी, जिसमें तंज़ ज़्यादा था।
“ये बातें किताबों में अच्छी लगती हैं। असल ज़िंदगी में पैसों और हैसियत से रिश्ते चलते हैं।”
उन्होंने अपनी बात खत्म की और उठ गए। जाते-जाते सिर्फ़ इतना कहा—“अगर सच में कुछ बन सको, तो शायद बात हो।”
वह मुलाक़ात एक चुनौती बन गई।
उसके बाद सयुग ने खुद को पूरी तरह काम में झोंक दिया। नया आउटलेट खुला और कुछ ही महीनों में सफल हो गया।
उसने खर्च और मुनाफ़े को समझा, कर्मचारियों को संभाला, ग्राहकों से रिश्ते बनाए।
मालिक ने उसे पार्टनर बनाने की बात छेड़ी। यह सुनकर उसे यकीन ही नहीं हुआ।
उसी दौरान उसे गाँव से खबर मिली। माँ बीमार थी। यह सुनते ही उसका दिल बैठ गया।
इतने सालों बाद भी वह गाँव नहीं गया था। डर था—नज़रें, सवाल, पिता की चुप्पी। लेकिन अब वह रुक नहीं सकता था।
गाँव लौटने का सफ़र दिल्ली आने से कहीं ज़्यादा भारी था। जब वह घर पहुँचा, माँ ने उसे देखते ही गले लगा लिया। पिता पहले तो चुप रहे, फिर बस इतना कहा—“अच्छा किया जो आ गया।”
उस एक वाक्य में बरसों का फासला सिमट गया।
गाँव वालों की नज़रें अब अलग थीं। वही लोग, जो कभी फुसफुसाते थे, अब पूछते थे—“दिल्ली में क्या करता है?”
सयुग ने पहली बार महसूस किया कि इज़्ज़त धीरे-धीरे लौट रही है।
दिल्ली वापस आकर उसने आयशा को सब बताया। माँ से मिलने की बात, पिता का बदला लहजा।
आयशा की आँखों में उम्मीद चमक उठी। उसने कहा कि वह भी अब और छुपकर नहीं रहना चाहती।
लेकिन जैसे ही उन्हें लगा कि रास्ता साफ़ हो रहा है, एक नई मुसीबत सामने आ गई।
आयशा के लिए चुना गया लड़का अचानक उनके सामने आ खड़ा हुआ।
वह आत्मविश्वासी था, सफल था और अपने रिश्ते को किसी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहता था। उसने साफ़ कहा कि आयशा उसकी होने वाली पत्नी है।
सयुग को पहली बार खुला टकराव दिख रहा था।
उस रात वह देर तक सोचता रहा। उसे समझ आ गया कि यह लड़ाई सिर्फ़ प्यार की नहीं, पहचान की भी है। उसे साबित करना होगा—खुद के लिए, आयशा के लिए, और उन सबके लिए जिन्होंने उसे कम आँका था।
सुबह होने से पहले उसने एक फैसला कर लिया।
अब वह सिर्फ़ इंतज़ार नहीं करेगा।
अब वह सामने खड़ा होगा।
और यही फैसला उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मोड़ बनने वाला था।
To Be continue..........
Writer............. Vikram kori.