Jahan se khud ko paya - 2 in Hindi Motivational Stories by vikram kori books and stories PDF | जहाँ से खुद को पाया - 2

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जहाँ से खुद को पाया - 2

PART–2

‎दिल्ली की सुबह गाँव की सुबह जैसी नहीं होती। यहाँ सूरज निकलने से पहले ही शोर शुरू हो जाता है। हॉर्न, भीड़, भागते कदम और बेचैन चेहरे। 
‎रेलवे स्टेशन के एक कोने में बैठा सयुग आँखें मलते हुए उठा। रात भर नींद और जागने के बीच झूलता रहा था।
‎ ज़मीन सख़्त थी, शरीर दुख रहा था, लेकिन उससे ज़्यादा दर्द मन में था।
‎उसने आसपास देखा। कोई अख़बार बिछाकर सो रहा था, कोई अपना बैग सीने से लगाए बैठा था, कोई बिना किसी चिंता के चाय पी रहा था।
‎ सब अपनी-अपनी लड़ाइयों में उलझे थे। यहाँ किसी को किसी से फ़र्क नहीं पड़ता था। 
‎यही दिल्ली की सबसे बड़ी सच्चाई थी।
‎भूख ने पेट में ऐंठन पैदा की। 
‎जेब टटोली—कुछ सिक्के और थोड़े से नोट। 
‎उसने स्टेशन से बाहर निकलकर एक छोटी सी चाय की दुकान पर चाय और सूखी रोटी ली।
‎ चाय गर्म थी, लेकिन दिल ठंडा। हर घूंट के साथ उसे माँ की याद आ रही थी—वही माँ जो सुबह उठते ही उसके लिए चाय रखती थी।
‎खाना खत्म होते ही वह काम की तलाश में निकल पड़ा।
‎दिल्ली की सड़कें लंबी थीं और हर सड़क पर सैकड़ों सपने चलते थे।
‎ कोई ऑफिस की तरफ़ भाग रहा था, कोई ठेला खींच रहा था, कोई भीख माँग रहा था।
‎ सयुग हर दुकान, हर ढाबे के बाहर रुकता, पूछता—“काम है क्या?”
‎कहीं से जवाब नहीं, कहीं से हँसी, कहीं से दुत्कार।
‎दोपहर होते-होते पैर भारी हो गए। सिर में दर्द होने लगा। एक जगह उसे लगा शायद यहीं बैठ जाए, लेकिन फिर पिता की आवाज़ कानों में गूँज गई—“ज़िंदगी भागने से नहीं, लड़ने से बनती है।”
‎वह फिर उठा।
‎शाम के वक़्त एक छोटे से कैफे के बाहर “स्टाफ़ चाहिए” लिखा दिखा। 
‎अंदर से बर्तनों की आवाज़ आ रही थी। उसने हिम्मत जुटाकर अंदर कदम रखा।
‎ मालिक अधेड़ उम्र का आदमी था, आँखों में सख़्ती थी, पर  चेहरे पर थकान भी।
‎“काम कर लेगा?”
‎“हाँ।”
‎“तनख़्वाह कम है, काम ज़्यादा।”
‎“कोई बात नहीं।”
‎यही बातचीत उसके लिए नई ज़िंदगी की शुरुआत बन गई।
‎पहले दिन उसने बस बर्तन धोए। 
‎हाथों में छाले पड़ गए। पानी ठंडा था, साबुन आँखों में जल रहा था।
‎ लेकिन उसने शिकायत नहीं की। रात को उसे कैफे के पीछे एक छोटे से कमरे में सोने की जगह मिली। 
‎वह ज़मीन पर लेटा और पहली बार दिल्ली में चैन की साँस ली। 
‎छत थी, पेट भरा था—इतना काफ़ी था।
‎दिन बीतने लगे। सुबह जल्दी उठना, काम करना, ग्राहकों की आवाज़ें सुनना।
‎ कई बार लोग उसे ऊपर से नीचे तक देखते, जैसे वह कोई चीज़ हो।
‎ पहले उसे बुरा लगता था, फिर आदत हो गई। 
‎उसने सीख लिया था कि इस शहर में इज़्ज़त धीरे-धीरे कमाई जाती है।
‎एक महीने बाद मालिक ने उसकी मेहनत देखी। उसे बर्तन से हटाकर वेटर बना दिया।
‎अब वह लोगों से बात करता, ऑर्डर लेता।
‎ यहाँ उसे पहली बार एहसास हुआ कि वह लोगों को समझ सकता है, संभाल सकता है।
‎इसी कैफे में एक दिन वह लड़की आई।
‎सादा-सा सूट, खुले बाल, आँखों में अनजान सी चमक। वह अकेली बैठी थी, किताब पढ़ रही थी। 
‎सयुग ने पानी दिया। उसने मुस्कुराकर धन्यवाद कहा।
‎वो मुस्कान कुछ अलग थी—घमंड नहीं, अपनापन।
‎उसका नाम आयशा था।
‎आयशा अक्सर आने लगी। कभी कॉफ़ी, कभी किताब, कभी बस चुप्पी।
‎ धीरे-धीरे बातें शुरू हुईं। आयशा ने कभी यह नहीं पूछा कि वह कहाँ से है, क्या है।
‎ वह बस सुनती थी। और शायद इसी वजह से सयुग पहली बार बिना डर के अपनी कहानी सुनाने लगा।
‎गाँव, माँ-पिता, पंचायत—सब।
‎आयशा ने कुछ नहीं कहा, बस एक बात कही—“गलती से इंसान छोटा नहीं होता, रुक जाने से होता है।”
‎यह शब्द  सयुग के भीतर कहीं गहरे बैठ गया।
‎दोनों की दोस्ती गहरी होती चली गई।
‎ लेकिन हर कहानी में सुकून ज़्यादा देर नहीं टिकता। एक दिन आयशा ने रोते हुए सच बताया—उसकी शादी तय हो चुकी थी।
‎ बहुत बड़े घर में। परिवार के फ़ैसले के खिलाफ़ जाना उसके लिए आसान नहीं था।
‎सयुग उस रात देर तक जागता रहा। उसे लगा जैसे ज़िंदगी फिर से उससे कुछ छीनने आई है।
‎लेकिन इस बार वह भागा नहीं।
‎उसने और मेहनत की। कैफे का काम संभालने लगा। नए आइडिया दिए। 
‎कुछ ही समय में मालिक ने उसे मैनेजर बना दिया। 
‎पहली बार उसे लगा—वह सिर्फ़ जी नहीं रहा, कुछ बन भी रहा है।
‎एक दिन आयशा के पिता कैफे में आए। उन्होंने सयुग को ऊपर से नीचे तक देखा। उनकी आँखों में सवाल थे, शक था।
‎“तुम मेरी बेटी के लिए क्या हो?”
‎सयुग ने सीधा जवाब दिया—“मैं उसकी इज़्ज़त हूँ।”
‎कमरा शांत हो गया।
‎वह मुलाक़ात एक इम्तिहान की तरह थी, जिसका नतीजा अभी आना बाकी था।
‎उस रात सयुग छत पर खड़ा दिल्ली की रोशनियाँ देख रहा था। उसे पहली बार लगा कि वह उस लड़के से अलग हो चुका है जो गाँव से भागा था। लेकिन लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई थी।
‎क्योंकि असली परीक्षा अभी बाकी थी।


‎To Be continue.........


‎  आगे जानने के लिए next part का इंतजार करे। 
‎ 
‎.           Writer..............Vikram kori.            .