Jahan se khud ko paya - 1 in Hindi Motivational Stories by vikram kori books and stories PDF | जहाँ से खुद को पाया - 1

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जहाँ से खुद को पाया - 1

Part .1 


‎गाँव की सुबह हमेशा की तरह शांत थी। हल्की धूप खेतों पर फैल रही थी, हवा में मिट्टी की सोंधी खुशबू घुली हुई थी। वह उसी गाँव में पला-बढ़ा था, सयुग जहाँ हर कोई एक-दूसरे को नाम से जानता था। 
‎जहाँ शाम होते ही चौपाल भर जाती थी और रात को घरों से चूल्हे की आँच झलकती थी। सयुग के लिए यह गाँव ही उसकी पूरी दुनिया था।
‎उसके पिता सीधे-सादे किसान थे। कम बोलते थे, ज़्यादा सोचते थे। माँ हर वक़्त उसके लिए चिंतित रहती थी, लेकिन चेहरे पर सख़्ती कभी नहीं आने देती थी। 
‎घर में बहुत पैसा नहीं था, मगर इतना ज़रूर था कि किसी चीज़ की कमी महसूस न हो।
‎ सयुग को कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि ज़िंदगी कठिन भी हो सकती है। 
‎उसके लिए ज़िंदगी का मतलब था दोस्तों के साथ घूमना, हँसना, बेफ़िक्र रहना।
‎उसके दोस्त ही उसकी असली ताक़त और कमज़ोरी दोनों थे। कुछ दोस्त दिल के अच्छे थे, कुछ ज़्यादा शरारती। सयुग खुद बुरा नहीं था, लेकिन अक्सर गलत लोगों के साथ खड़ा मिल जाता था। 
‎उसे लगता था कि दोस्ती में सही-गलत नहीं देखा जाता। यही सोच एक दिन उसकी ज़िंदगी का रुख़ बदल देगी, इसका अंदाज़ा उसे नहीं था।
‎उस दिन दोपहर कुछ ज़्यादा ही गर्म थी। खेतों से लौटते हुए सयुग अपने दोस्तों के साथ नदी की तरफ़ चला गया। वही नदी, जहाँ बचपन में उसने तैरना सीखा था, जहाँ गर्मी में सब लड़के छलाँग लगाते थे। 
‎नदी के किनारे बैठकर सब बातें कर रहे थे—कभी किसी की शादी, कभी किसी की लड़ाई, कभी शहर जाने के सपने।
‎तभी दूर से एक लड़की आती दिखाई दी। सफ़ेद सूट पहने, बालों को हल्के से बाँधे, उसकी चाल में आत्मविश्वास था। 
‎वह गाँव के मुखिया की बेटी थी। पूरे गाँव में उसकी इज़्ज़त थी। पढ़ी-लिखी थी और अपने संस्कारों के लिए जानी जाती थी। 
‎वह नदी के किनारे टहलने आई थी, शायद कुछ पल सुकून के लिए।
‎सयुग चुप था। उसने बस एक नज़र डाली और फिर दोस्तों की बातों में खो गया।
‎ लेकिन उसके दोस्तों में से एक ने माहौल को मज़ाक समझ लिया। 
‎उसने हँसते हुए ऐसी बात कह दी, जो मज़ाक नहीं, गंदगी थी।
‎ वह शब्द हवा में तैरते हुए उस लड़की तक पहुँच गए।
‎लड़की का चेहरा पल भर में बदल गया। उसने कुछ कहा नहीं, बस एक कड़ी नज़र डाली और वहाँ से चली गई। 
‎नदी की लहरें उसी तरह बहती रहीं, लेकिन माहौल में एक अजीब सी चुप्पी उतर आई। 
‎सयुग का दिल थोड़ी देर के लिए भारी हुआ, मगर उसने भी कुछ नहीं कहा। उसे लगा, बात यहीं खत्म हो जाएगी।
‎वह गलत था।
‎शाम होते-होते गाँव में खबर फैल गई। मुखिया के घर में बात पहुँची।
‎ उस लड़की ने अपने पिता को सब बता दिया। उसकी आवाज़ काँप रही थी, लेकिन शब्द साफ़ थे। 
‎पिता का चेहरा सख़्त हो गया।
‎ उन्होंने बिना शोर किए पंचायत बुलाने का फ़ैसला किया।
‎अगले दिन चौपाल पर पूरा गाँव जमा था। बुज़ुर्ग, नौजवान, सब। सयुग को जब बुलाया गया, तो उसके साथ उसके माँ-बाप भी गए। 
‎माँ का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। पिता की आँखों में शर्म और गुस्सा दोनों थे।
‎पंचायत में जब बात सामने आई, तो सबकी नज़रें सयुग पर टिक गईं।
‎ असली गलती उसके दोस्त की थी, लेकिन वह वहाँ मौजूद था, वह चुप था। 
‎यही उसकी सबसे बड़ी गलती बन गई। गाँव वालों की बातें तीर की तरह चुभ रही थीं। मुखिया की आवाज़ में दर्द और सख़्ती दोनों थे।
‎आख़िरकार माफ़ी माँगी गई। सयुग के पिता ने सबके सामने सिर झुका दिया।
‎ माँ की आँखों से आँसू बह निकले। 
‎उस पल सयुग को पहली बार लगा कि उसकी बेफ़िक्री ने उसके माँ-बाप को कितना छोटा कर दिया है।
‎घर लौटते वक्त कोई कुछ नहीं बोला। 
‎आँगन में कदम रखते ही पिता का गुस्सा फूट पड़ा। शब्द कड़वे थे, आवाज़ ऊँची थी।
‎ माँ बीच-बचाव करना चाहती थी, लेकिन पिता का दुख गुस्से में बदल चुका था। 
‎उन्होंने कह दिया कि अगर यही रास्ता चुनना है, तो घर छोड़ दे।
‎वह बात शायद गुस्से में कही गई थी, लेकिन सयुग के दिल में घर कर गई।
‎ उसे लगा, अब उसके लिए इस घर में कोई जगह नहीं बची।
‎ उस रात वह देर तक छत की ओर देखता रहा। 
‎माँ की सिसकियाँ कमरे से बाहर आ रही थीं। 
‎पिता खामोश थे। और वह—खुद से लड़ रहा था।
‎सुबह होने से पहले वह उठ गया। कुछ कपड़े एक थैले में डाले।
‎ माँ-पिता को बिना बताए घर से निकल पड़ा। गाँव की वही पगडंडी, जो उसे हमेशा सुरक्षित लगती थी, आज अजनबी सी लग रही थी। 
‎उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
‎स्टेशन पर खड़ी ट्रेन में बैठते वक़्त उसके हाथ काँप रहे थे। 
‎उसे नहीं पता था कि वह कहाँ जा रहा है। बस इतना पता था कि उसे दूर जाना है।
‎ ट्रेन ने सीटी दी और गाँव धीरे-धीरे उसकी आँखों से ओझल हो गया।
‎दिल्ली पहुँचना आसान था, लेकिन दिल्ली में जीना नहीं। स्टेशन पर उतरते ही शोर, भीड़ और अनजान चेहरे उसे निगलने लगे।
‎ उसके पास न रहने की जगह थी, न कोई काम। पहली रात उसने प्लेटफॉर्म पर बिताई। 
‎ठंडी ज़मीन, ऊपर से तेज़ रोशनी और चारों तरफ़ भागती ज़िंदगी।
‎उस रात उसने बहुत देर तक सोने की कोशिश की, लेकिन नींद नहीं आई। माँ का चेहरा, पिता की चुप्पी, गाँव की नदी—सब आँखों के सामने घूमते रहे।
‎ उसे पहली बार एहसास हुआ कि आज़ादी इतनी भारी भी हो सकती है।
‎सुबह हुई तो भूख ने उसे जगा दिया। 
‎जेब में थोड़े से पैसे थे, जो उसने गाँव से निकलते वक़्त रखे थे। 
‎उसने चाय और एक सूखी रोटी ली। फिर काम की तलाश में निकल पड़ा। 
‎किसी ने उसे देखा भी नहीं, किसी ने सुना नहीं। हर दरवाज़े पर एक ही जवाब—काम नहीं है।
‎शाम होते-होते वह थक चुका था। 
‎मन में डर था, लेकिन कहीं गहरे एक ज़िद भी जन्म ले रही थी। उसने खुद से वादा किया कि वह हार नहीं मानेगा। चाहे जो हो जाए।
‎उसी रात, दिल्ली की चमकती सड़कों के बीच, सयुग ने अपनी पुरानी ज़िंदगी को पीछे छोड़ दिया। वह नहीं जानता था कि आगे क्या होगा, लेकिन इतना तय था कि अब उसे खुद को बदलना होगा।
‎और यहीं से उसकी असली कहानी शुरू होती है।
To Be continue........
‎  क्या सयुग को अब अनजान शहर ने अपना क्या सयुग
‎ को दिल्ली में काम मिला । ..........
‎ जानने के लिए अगले पार्ट का इंतजार करे । 


‎.                   Writer ............ Vikram kori ....