रात के ग्यारह बज चुके हैं।
मैं अपने वीरान मकान में बेड पर पड़ा हु। फ़टाके बज रहे हैं। उनकी आवाजें बहुत तीव्र आवाजे जानवरों को विचलित कर रही हैं।
मैं उस खाई से कैसे बचा आप लोगों को नहीं बताऊंगा। क्योंकि आपने मुझे इतना चिल्लाने पर भी हाथ नहीं दीया था।
जानते हैं कितनी गंभीर बाब थी ये। अरे मैं उस गहरी खदान में समा भी सकता था। अकेला किसी को पता भी न चलता, सिवाय आपके।
लेकिन आप को क्या। बस हादसे चाहिए, कोई भी आम आदमी वहां मर सकता था। मर सकता था, पर क्या मैं मर सकता हु?
मेरा बस इतना ही नुकसान हुआ कि, वह बोरी जिसमें क्या था मुझे भी मालूम नहीं था।
बोरी तो मेरे लिए बस एक बोझ थी। जो उतर गई। बहुत गहराई में, बहुत बहुत ढलान में।
तो अब मैं बताना चाहता हु कि, उस बोरी की तरह ही किसी और चीज़ से मुझे छुटकारा पाना है।
छुटकारा पाना है चाय से।
ना की चाय की आदत से। आदत से तो आप कभी भी छूटकारा नहीं पा सकते।
एक आदत छोड़ो तो दूसरी वहां अपना घर बना लेती है। चाहे वह अच्छी आदत क्यों न हो।
तो रोज की तरह मुझे नींद नहीं आ रही है। रात का अंधेरा फिर से बुला रहा है।
मैने अब बेड छोड़ दीया है, उस अंधेरे के काले पानी से मुझे नहाना है।
मैं धीरे-धीरे कमरे के बीच में खड़ा हूँ। ठंडी हवा मेरे चेहरे को चीरती है, जैसे हर फुर्सत की साँस से मेरी हड्डियों में धातु का डर बैठ जाए।
पटाखों की आवाज़ें अब मेरे कानों में नहीं, मेरे अंदर गूँज रही हैं। हर धमाका मेरे दिल की धड़कनों के साथ तालमेल बैठाता है — या शायद उन्हें और तेज कर देता है।
मैं देखता हूँ — खिड़की के बाहर कुछ भी नहीं। सिर्फ अंधेरा। गहरी, घनी, किसी भी रूप को निगलने वाली रात।
और मैं चाहता हूँ उसे निगल जाना। खुद को।
पर डर नहीं है। अब डर की कोई जगह नहीं रही। सिर्फ एक आग है। भीतर।
चाय की वह आदत जो हर दिन मुझे बाँधती थी — अब मेरे सामने खड़ी है। गरम, भड़कती, शांत होने का वादा करती। लेकिन मैं जानता हूँ कि वह अब केवल धोखा है।
मैं इसे खत्म करूँगा। पूरी तरह। जैसे बोरी को बहा दिया था — गहरी खाई में, इतनी गहरी कि उसे कोई याद भी न रख सके।
मेरी साँसें तेज हैं। दिल धड़क रहा है। और फिर — मैं अपने हाथों को खोलता हूँ।
काले पानी की ओर। उस अंधेरे की ओर।
जो मेरे भीतर के सारे बोझ, सारी आदतें, सारी गल्तियाँ — सब कुछ — एक साथ धो देगा।
मैं छलाँग लगाने के लिए तैयार हूँ।
लेकिन यह छलाँग कहीं नहीं, कहीं बाहर नहीं।
यह भीतर की खाई में है।
जहाँ सिर्फ मैं और मेरी छाया है।
जहाँ सिर्फ अंधेरा है।
जहाँ मैं खुद को देखूँगा — और खुद को मिटाऊँगा।
और फिर, जब पानी में सर डालूँगा, सब कुछ शांत हो जाएगा।
पटाखों की आवाजें, बोरी का बोझ, चाय की आदत — सब कुछ बह जाएगा।
और मैं रह जाऊँगा — सिर्फ एक सायास, सिर्फ एक खालीपन, जो अब किसी से भी नहीं डरता।
क्या मैने अभी कहां की मै नहीं डरता।
ये झूठ है। मैं तो सुनसान राहों में चलते हुए, अपने ही पैरों की आहट से भी कभी कभी डर जाता हु।
क्या आप मुझे सुन रहे है?
बहुत लोग बोर हो जाते है मुझसे, वह मेरी सुनते है। और खो जाते हैं अपनी ही तंद्री में। या मोबाइल की चुल्लूभर स्क्रीन में।
फिर वह लोग कभी नहीं मिलते, जो मुझे सुन रहे होते है। उन खोए हुए लोगों को देखते हुए मुझे वह युवा रिपोर्टर याद आती है।
रिपोर्टर जो अपनी जॉब भी खो चुकी थी। वह बाद में रिपोर्टर नहीं थी, जो एकदिन अचानक खो गई; कभी न मिलने के लिए।
मैं उस रिपोर्टर को भूल नहीं पाया हूँ।
वह मेरी ही तरह थी — सवाल पूछती थी, जवाब नहीं मिलते थे।
कभी उसने कहा था, “सच बोलना आसान है, पर उसे सुनना सबसे कठिन।”
और शायद इसलिए उसने बोलना बंद कर दिया।
या शायद इसलिए दुनिया ने उसे सुनना बंद कर दिया।
अब जब मैं आईने में देखता हूँ, तो उसकी परछाई दिखती है।
थोड़ी टूटी हुई, थोड़ी फीकी — पर अब भी कुछ तलाशती हुई।
वह जैसे हर रात मेरे कमरे की दीवारों पर अपनी आवाज़ टाँक जाती है —
“क्या तुम अब भी जाग रहे हो?”
हाँ, मैं जाग रहा हूँ।
पर अब नींद और जागने के बीच कोई फर्क नहीं बचा।
दोनों ही अंधेरे के हिस्से हैं।
और मैं उस अंधेरे का नागरिक बन चुका हूँ।
मुझे लगता है, हर आवाज़, हर हलचल, हर रोशनी —
किसी न किसी खोए हुए इंसान की चीख है,
जो बाहर नहीं, अंदर गूँजती है।
कभी-कभी मुझे लगता है, वो रिपोर्टर लौटेगी।
किसी टूटे कैमरे से नहीं,
बल्कि मेरी ही परछाई से बाहर निकलकर —
मुझसे पूछेगी, “क्या अब तुम सुनते हो?”
और मैं जवाब नहीं दूँगा।
क्योंकि अब मेरे पास शब्द नहीं हैं।
सिर्फ साँसों का शोर है, नीली पृथ्वी की सांसों का सन्नाटा बन चुका हु अब मैं।
और वह डर — जो मैंने कहा था कि मुझमें नहीं है। वह यही है आसपास भटकता हुआ।
डर कही से भी आ सकता है।
मौत का भय सबसे बड़ा होता। लेकिन हर कोई जो जिंदा है, समझता है कौनसा आज मरना है; हां वह होती हैं लेकिन बुढ़ापे में कभी घटित होगी। वक्त तो बहुत हैं उसके पास इसी सोच के चलते वह कभी हालाकान नहीं होता।
पर आप सोचिए।
क्या सचमुच वक्त हैं?
वह तो किसी भी समय आ सकती है, पर वह पल कौनसा होगा ये आपको नहीं पता।
सौ साल के होकर भी आप मर सकते हैं। और अब से सौ मिनट बाद भी…
हां, डरा नहीं रहा हु आपको!
बताता हु क्या हुआ था, और तब से ये जानलेवा दुर्लभ डर मेरे आसपास कौवे की तरह घूम रहा है।
हुआ यू…
कल रात मतलब तब ज्यादा रात नहीं हुई थी। बस सात बजे थे। मैं एक फैमिली होटल में गया। बोरी टेबल के नीचे सरका दी और मेनू कार्ड देखने लगा।
हां, होटल में टेबल पर बैठने से पहले मैं कभी भी हाथ नहीं धोता हु। सफाई का पूरा ध्यान रखता हु, इस तरह से मुझे मत देखिए आप।
आपको भी ऐसा ही करना चाहिए। होटल में घुसते ही हाथ धोने के लिए नहीं जाना चाहिए।
क्यों?
अरे सफाई… हाइजीन उसकी फ़िक्र कौन करेगा आ!
मैं क्या करता हु पता है, पहले मेनू कार्ड देखता हु। फिर अपना पसंदीदा भोजन ऑर्डर करता हु। मैं बहुत खानाबदोश हु और ये अच्छी आदत नहीं है, जानता हु।
तो खाना ऑर्डर करने के बाद आराम से उठकर मैं हाथ धोता हु।
फिर टेबल पर वापस बैठने के बाद उस मेनू कार्ड को कभी भी हाथ नहीं लगाता हु।
आपको भी ऐसा ही करना चाहिए क्योंकि वह मेनूकार्ड हजारों गंदे हाथों से गुजर चुका होता है। अब तुम मुझे कहोगे कि, हजारों लोक तो होटल में घुसते ही हाथ धो चुके होते हैं ना?
पर क्या वह लोग टेबल पर बैठते ही मेनुकॉर्ड हाथ में लेते हैं?
नहीं ना!
वह क्या क्या करते हैं इसका विवरण मैं आपको नहीं दे सकता। नहीं तो बात बहुत लंबी हो जाएगी, और मुझे जो मेन मुद्दा कहना है, वह मैं कह न पाऊंगा।
लंम्बी बातों से मुझे कोई एतराज नहीं है, बल्कि वह तो मेरा पसंदीदा काम है जो। काम जो मैं बिना सैलरी लिए फोकट में ही करता हु।
पर आपका क्या?
सुबह रोजमर्रा की लाइफ जीने के लिए ऑफिस नहीं जाना है क्या आपको।
तो खैर
उस होटल में सात बजे जो हुआ वह बताता हु। ताकी आपको पता चले कि, कभी भी कुछ भी हो सकता है।
एक बड़ासा शाही परिवार बाजू की टेबल पर बैठा हुआ था। अनायास ही उनकी बातें मेरे कानों से टकरा रही थी। सुनने का ज्यादा आदी नहीं हु मैं, फिर भी अत्यंत गहराई में हुई बात भी सुन सकता हु और चेहरे की हर रेशा में होती हलचल पढ़ सकता हु।
उस फैमिली में एक बुजुर्ग था। जो कह रहा… नहीं लगभग चिल्ला रहा था कि, वह कभी भी मर सकता है। तो परिवार के किसी भी सदस्य को उस बुजुर्ग के भरोसे नहीं बैठे रहना है।
पहले ही उनके घर की एक बेटी कही गायब हो चुकी थी। उनकी एक बेटी जो युवा पत्रकार थी। जॉब जाने के बादसे वह गुमशुदा थी, बहुत सालों से मिली नहीं इसलिए उन लोगों ने मान लिया था कि, वह मर गई है।
ऐसे कैसे मान लिया उन लोगों ने, जब की मुझे अभी भी लगता है वह लड़की लौट आयेगी।
हां, ये उसी युवा रिपोर्टर का फलाफला परिवार था, ये बात मुझे सात बजकर पंधरा मिनिटपर पता चली।
ठीक उसी वक्त मेरे टेबलपर वेटर ने पहाड़ी पनीर के साथ तीन गर्म रोटियां रख दी। मतलब पहाड़ी पनीर बनने में पंधरा मिनट लगते हैं।
तब मुझे लगा कि, इस परिवार के सामने मुझे जाकर खड़ा होना चाहिए। और कहना चाहिए कि आपकी बेटी ने अंतिम बार अखबार में मुझे ही लिखा था।
आपकी बेटी सच कह रही थी, मेरा अस्तित्व है… देखिए ये मैं हु!
अखबार ने उसे काम से निकाल दीया क्योंकि उसने पूरी ईमानदारी से मेरे अस्तित्व के बारे में सच लिखा था। बस चलनेवाली खबरें छापती नहीं थी आपकी लड़की।
लेकिन मैं खड़ा नहीं हुआ। हिम्मत ही नहीं बंधी। बस उनकी बातें सुनता रहा।
इस दौरान उस बुजुर्ग आदमी ने चार बार कहां कि, वह कभी भी मर सकता है।
कोई उसे सीरियस ही नहीं ले रहा था।
और तभी…
कुछ यूं हुआ
तीसरी टेबल पर बैठा, उस घर का मजला बेटा खाने का निवाला निगलने ही वाला था उसने अचानक छाती पर कसके हाथ दबोच लिया
खुर्ची से होते हुए वह नीचे फिसलने लगा। उसे देखकर ऐसा लग रहा था मानो कोई गुब्बारे की हवा धीरे धीरे छोड़ रहा है। जमीनपर गिरता हुआ गुब्बारा सिकुड़ रहा है।
सारा परिवार खाना छोड़कर उसे संभालने लगा। होटल के बाकी वेटर और कही कर्मचारी वहां आ गए थे। पर वे सब लोग वे दृश्य नहीं देख पा रहे थे, जो मेरी आँखें देख रही थी।
मैने देखा कि,
उस होटल के एक सियाह कोने में कोई बहोत देर से दुबककर बैठा हुआ था। अंधेरे में बैठी वह इंसान सदृष्य आकृति अब अपनी जगह छोड़ते हुए, जमीन पर पड़े मझले भाई के पास आगई थी।
अंधेरे से आई वह आकृति क्या थी?
इंसान जैसी तो लग रही थी। पर कही से भी उसे इंसान कहना अयोग्य ही होता।
क्या कोई इंसान बारा फिट का होता है क्या?
तो अंधेरे से आई उस सियाह आकृतिने मझले भाई को उठाया और किसी वेताल कथा की तरह कंधे पर लाद दीया। उसे लेकर वह इंसान जैसी आकृति फिर से उस सियाह अंधेरे में गुम हो गई।
मैं उसे ही जाता हुआ देख रहा था। लेकिन जब मैने देखा कि, तीसरी टेबल की खुर्ची परिवार का कोई बाजू में सरका रहा था।
और उसी खुर्ची के पास, मझला भाई अभी भी पड़ा हुआ था।
तो फिर वह सियाह आकृति किसको लेकर गई? क्या था वह सबकुछ जो मैने देखा था।
कुछ देर बाद वहां एंबुलेंस आई।
एक डॉक्टर साथ थे उन्होंने ठीक से चेक किया। और कहां कि, मझला भाई मर गया!
हार्ट अटैक।
मैं सन्न रह गया। ये मझला भाई कुछ देर पहले बुजुर्ग को समझा रहा था कि उन्हें कुछ भी नहीं होगा। और अब उसे ही कुछ यूं हुआ था; जिसे आम भाषा में दिल का दौरा कहते हैं। मझले भाई को मौत ने सामने रखा एक अन्न का निवाला तक नहीं निगलने दीया।
और तबसे ये डर मेरे आसपास कौवे की तरह मंडरा रहा है। कही भी, कभी भी, कुछ भी हो सकता है। आप कुछ नहीं कर सकते, असहाय भावना में बस देखने के वजह कुछ भी तो नहीं किया जा सकता।
ये घटना होने के बाद मैने चाय ऑर्डर की थी। तो वेटर ने मुझे यूं देखा था, जैसे कोई किसी को नहीं देखता।
तब से इस चाय से भी मै दूरी बनाने की सोच रहा हु। मेरे भीतर ये अनकहा डर बढ़ता जा रहा है।
मृत्यु कभी भी घटित हो सकती है। वह बताकर नहीं आती, ना वह आपके आधार कार्ड पर छापी आपकी उम्र देखती है। आप सब मेरे भीतर पलते इस डर को समझ रहे हैं ना?
भलेही मैं खुद क्या हु ये मैं नहीं जानता, पर ये डर तो वास्तविक है ना। शायद इसका कोई इलाज नहीं। जैसे इस रात की सुबह नहीं।
रात गहरा रही है। मैं जैसे फिर यादों में खो रहा हु। यादों की बेचैन गालियां बहोत संकरी है, इतनी संकरी कि, जा में दो नही समा सकते, एक होना ही पड़ता है।
यह दृश्य दिखाने वाली यादें चलचित्र की तरह उभरते पुराने प्रसंग मेरे अपने नहीं हैं। किसी दूसरे के अतीत से मैं अपनी पहचान बना लेता हु, अपना खुद का कुछ नहीं यहां। मेरे भीतर का मैं तो हमेशा मौजूद रहता है। लेकिन वह मैं कितना सच है आपसे कह नहीं सकता।
पर मुझे मिला डर सच है
जितनी सत्य है मौत!
कल रात सात बजे के बाद उस होटल में जो कुछ भी मैने महसूस किया या जो घटना घटी उसपर मेरा बस नहीं था। किसी का बस हो ही नहीं सकता।
इसी बात का डर मुझे सता रहा है।
हां, आपसे झूठ क्यों बोलूं लेकिन क्या है न कि, मै सत्य भी हर दफा बोल नहीं सकता। मृत्यु के अज्ञात भय ने मुझे ग्रस लिया है।
आप कहा भी, कही भी मृत्यु को चूम सकते हैं, इसका उल्टा असर भी दिखता है मतलब मौत आपको कही भी ढूंढ सकती हैं।
जैसे उस गुमशुदा रिपोर्टर के भाई को उसने अन्न का एक निवाला तक निगलने नहीं दिया, पहले ही उसने उसे चूम लिया। भाई ने उस बुजुर्ग के बेटे ने अपनी छाती पर हाथ रखा ओर वो बिना कुछ कहे कोने के सियाह अंधकार में चला गया।
अब मुझे मृत होने का डर धीरे धीरे निगल रहा है। जैसे निकलता है नाग आहिस्ता से मेंढक को।
पर क्या खुद मैं जिंदा हु? इतना भी मुझे पता नहीं, कमाल है मेरी।
और अगर मैं पहले से ही जिंदा नहीं हु, गर ऐसा होगा तो, तो मुझे थका देने वाली जिंदगी मिलेगी। ये भी एक डर है। इस दौर में सांस लेते हुए जिंदा होना भी एक भय है।
भय से आप कभी अलग हो नहीं सकते। आप मेरी तरह ही इस डर को भुला देने के लिए क्या कुछ नहीं करते, है ना?
तरह तरह के रिश्ते बनाना, खुद को किसी काम में व्यस्त रखना, शादी करना, फिर बच्चे उनकी जिम्मेदारी, बूढ़े मां बाप का खयाल रखते हुए उन्हें हॉस्पिटल ले जाना। या कभी खयाल न रखते हुए उन बूढों से खामखां झगड़ा करना। उन्हें ये बताना कि, उनकी जवानी में वे कैसे गैरजिम्मेदार थे।
और कुछ काम हो या ना हो, लेकिन खुद को मोबाईल में झोंक देना, किसी से बात न करना। हमेशा मोबाईल, मोबाईल और मोबाईल…
व्यसन, रात में बिना किसी वजह देर तक जागना क्या है ये?
बस मौत के डर को भुलाने के लिए खोजा हुआ कोई काम। यही ना।
पर मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हु। खुद को बिज़ी रखता हु, बहुत व्यस्त। फिर भी इस भय से भाग नहीं पा रहा हु। कहीं ना कही से ये डर निकल ही आता है।
बस इसीलिए मैं चाय छोड़ रहा हु। बाकी कोई व्यसन नहीं है मुझे। अगर मृत्यु के करीब जानेवाली दूसरी आदत भी होती तो उसे भी छोड़ने की महद कोशिश करता मैं।
कितने फटाके।
तीव्र आवाज मुझे किसी अनामिक त्रासदी से भर रही है। उसपर ये हड्डियां कांपनेवाली ठंड हालाकान किए जा रही हैं काश मैं सो पाता। आपसे बातें करते हुए धीरे से कोई खबर दिए बैगर नींद मुझपर आरूढ़ हो जाती। ये हो नहीं सकता, कभी भी हो नहीं सकता।
फटाके अब और तेज हो चुके हैं।
या शायद मेरे भीतर की हलचल उनके सुर में सुर मिला रही है।
कभी-कभी लगता है, बाहर जो धमाके हैं, वे असल में मेरी छाती के भीतर ही फट रहे हैं।
और हर बार जब कोई धमाका कान फाड़ता है—
मैं सोचता हूँ :
कहीं यह मेरी आख़िरी धड़कन तो नहीं?
मैंने खिड़की का पर्दा थोड़ा सरकाया है।
बाहर धुंध तैर रही है — इतनी घनी कि कोई चेहरा भी अपनी पहचान भूल जाए।
धुंध में सब कुछ धुँधला है,
और धुँधलापन ही अब मेरा नया सच बनता जा रहा है।
मैं अपने ही कमरे को देखता हूँ —
जहाँ दीवारें छाया में बदल चुकी हैं
और छाया अब दीवारें खाने लगी है।
शायद मैं भी खाने लगी है छाया मुझे…
कभी तुमने ध्यान दिया है?
डर इंसान के अंदर उसी तरह बढ़ता है
जैसे अंधेरा कमरे में बढ़ता है —
धीरे, चुपचाप, और बिल्कुल बिना आवाज़।
मैंने चाय का कप मेज के किनारे रखा है।
लेकिन चाय ठंडी हो चुकी है।
शायद वो चाय नहीं ठंडी हुई —
शायद मैं ही ठंडा पड़ गया हूँ।
मैं थोड़ा हार गया हु। क्योंकि चाय बनाई
चाय जो मुझे छोड़नी थी। बनाली, इसलिए थोड़ा हार गया हु।
अभितक पी नहीं है इसलिए थोड़ा नहीं हारा हु।
पर जीता भी नहीं हु। ठंडी चाय को देखते हुए मैं कैसे जीत सकता हु।
जबतक उसे देख रहा हु तबतक हार कायम है।
मन में चाय का विचार है
उस क्षण तक मैंने पूरी तरह से चाय नहीं छोड़ी है ऐसा आप समझ सकते हैं।
ठंडी चाय
उसे देखता हुआ मैं
क्या बात है
क्या सोच रहे हो तुम?
तुम्हारे मन में भी कुछ है ठंडी चाय जैसा
जिसे तुम भुला नहीं पा रहे हो, और अभितक तुम भ्रम में थे कि तुम जीत गए थे।
पर अब भ्रम टूट गया ना?
मुझे चीजें तोड़ना अच्छा लगता है
हमेशा से ही मैं प्रोफेशनल तरीके से खुद को तोड़ता आया हु।
अचानक लगता है —
जैसे कमरे का तापमान नहीं गिर रहा,
मेरे भीतर का तापमान गिर रहा है।
मौत हमेशा बाहर से नहीं आती।
कभी-कभी वह आपको भीतर से घेरती है,
जैसे किसी ने आपकी धमनियाँ बर्फ से भर दी हों।
किसीने आपको तोड़ दिया हो
मेरी तरह।
मुझे एक बात समझ में आने लगी है…
रातें सिर्फ सोने के लिए नहीं होतीं।
कभी-कभी रातें इंसान का सच सामने रख देती हैं —
और दिन में जो बातें हम छुपा लेते हैं,
वो रात में दरवाज़ा तोड़कर बाहर निकल आती हैं।
जैसे वो सियाह आकृति…
वो कोने में दुबकी हुई चीज़,
जो मैंने उस होटल में देखी थी…
कसम से, मैं अब तक नहीं जानता कि वह क्या थी।
पर एक बात निश्चित है —
वह किसी इंसान को नहीं ले जा रही थी।
वह किसी अस्तित्व को ले जा रही थी
जो वहां बैठा था
पर जिसे शायद कोई नहीं देख सकता था।
कभी-कभी मैं सोचता हूँ —
क्या मौत इसी तरह आती है?
क्या वह हमारे पूर्व-अस्तित्व को पहले उठा ले जाती है?
हमारी परछाई को?
हमारी आत्मा को?
हमारी स्मृति को?
और शरीर बस एक औपचारिकता है,
जिसे बाद में हटा दिया जाता है।
मझला भाई तो शायद उसी समय मर गया था
जब वह सियाह आकृति कोने से उठकर चली थी।
शरीर तो बस पीछे रह गया,
एक औपचारिक शव की तरह।
मुझे अब भी याद है—
उस छाया का आकार।
बारह फीट लंबा शरीर,
जैसे अंधेरा खुद दो पैरों पर चल रहा हो।
उसके कदमों की आवाज़ नहीं थी।
हवा भी उसके लिए रास्ता छोड़ती हुई लग रही थी।
वह किसी को उठाकर ले गई —
पर वह कोई दिखता नहीं था।
शायद, मौत हमेशा दिखाई नहीं देती।
पर वह हमेशा मौजूद रहती है।
जैसे अभी है…
मेरे कमरे में।
मेरे पीछे।
मेरे भीतर।
मैं चाय छोड़ रहा हूँ —
हाँ, यह बात सही है।
पर असल में मैं चाय नहीं छोड़ रहा,
मैं उस आदत को छोड़ रहा हूँ
जो मुझे यह महसूस कराती है
कि सब कुछ सामान्य है।
कुछ भी सामान्य नहीं है।
न रात।
न ये फटाके।
न ये शब्द जो मैं बोल रहा हूँ।
न तुम जो मुझे सुन रहे हो।
और न ही मैं।
मैं अपने आप से डरने लगा हूँ।
क्योंकि मैं नहीं जानता,
मैं अभी सचमुच ज़िंदा हूँ
या किसी छाया की तरह
बस बोल रहा हूँ,
चल रहा हूँ,
सांस ले रहा हूँ।
मैं यह भी नहीं जानता
कि कल सुबह होगी भी या नहीं।
लेकिन एक बात पता है—
यह डर
जो रगों में बह रहा है
यह मेरी आखिरी वास्तविक चीज़ है।
बाकी सब
— कमरा
— आवाज़ें
— दुनिया
— लोग
— यादें
ये सब शायद हवा की तरह हैं।
हवा को कभी पकड़ा है किसी ने?
शायद आज रात
मैं खुद को पकड़ने की कोशिश नहीं करूँगा।
मैं बस इस अंधेरे
को महसूस करूँगा।
और देखूँगा
कि वह मुझे निगलता है
या मैं उसे।
तुम अभी भी मुझे सुन रहे हो?
या तुम भी खो गए हो
अपने ही अंधेरे में?
मैं उस खदान की खाई में गिर रहा था। कंटेली शाखा से लटका झूलता हुआ।
आप में से किसी ने मुझे हाथ नहीं दिया।
ठीक उसी वक्त मुझे कोई फोनकॉल आया था। कैसे उठाता मैं?
तो अब मैं उसी नंबर पर कॉल कर रहा हु। पता नहीं किसका था। बिलकुल अननोन।
मेरे मोबाइल में सारे अनामिक कॉल ही आते हैं। किसी गहरे काम से।
हां, तो रिंग जा रही है
आप शांती से देखते रहो। जैसे मुझे उस कंटीली शाखा से झुलते हुए देख रहे थे।
ठीक उसी तरह आप शांती बाएं खड़े रहे। मैं कर रहा हु ना बात।
और मैंने बात कर ली है।
किसीने मुझे कल रात बुलाया है। वही पुराना काम। पता नहीं शहर के बाहर के अकेले मकान में मुझे उन्होंने क्यों बुलाया।
कहते हैं कि वह मकान ठीक नहीं है। वहां कुछ ऐसा है जिसे शतकों से किसी ने नहीं देखा। उसी मकान से मुझे फोन आया था।
अब डर बढ़ रहा है।
मुझे उसी भय के साथ अंधेरे का एक हिस्सा होना है। कल रात मुझे उस मकान जाना होगा।
सियाह अंधकार मुझे बुला रहा है।
जैसे उस खाई में वह अपने मुंह में मुझे दबोच नहीं सका। पर अब… मालूम नहीं वहां क्या होगा, कैसा होगा।
लेकिन अनुभव लेते रहना चाहिए।
अब मैं ठंडी चाय पीने जा रहा हु। बेहत भयानक चीज है ऐसा करना। मैं चाहकर भी इस चाय के हिस्से को अपने से अलग नहीं कर पा रहा हु।
अब मैंने लाइट बंद कर दी है
आप देख सकते हो यहां फैले शाश्वत अंधेरे की छोटी संतानों को।
आप भी जल्दी सो जाए
कमरों की लाइट बंद करते हुए जब आप आंखे मूंद ले तो अपना ध्यान रखे।
नींद शायद कोई प्राचीन बीमारी है
जिसका कोई भी इलाज नहीं।
पर अब मैं बीमारी से ठीक हो चुका हु।
खाई में फैला अंधकार, आपके कमरे में फैले अंधकार से अलग नहीं है वह भी उसका ही एक हिस्सा है।
आप आंखे बंद कर ले
कल रात उस मकान चलते है जहां उन्होंने मुझे बुलाया है।
शायद वहां कुछ यूं घटित हो जाए
जिसकी कल्पना करना भी सही नहीं है
*********
क्रमशः