गया का मानपुर इलाका जहाँ हर गली में कोई न कोई कहानी आधी जली बीड़ी की तरह पड़ी रहती है।
वहीँ की एक कहानी है , थकी देह और खून से लबरेज़ कृति की ।
मैं उस रात गया में था, किसी काम से, बस लेट हो गई थी और जब तक पहुँचा, कार्यालय बंद हो चुका था।
थकान इतनी थी कि सीधे मानपुर के एक छोटे होटल में कमरा ले लिया।
रात करीब साढ़े बारह का वक्त होगा — अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई।
पहले सोचा, शायद गलती से कोई और कमरा समझ लिया हो, पर फिर से खटखटाहट हुई, ज़रा तेज़।
दरवाज़ा खोला तो सामने का मंजर अजीब था
एक अधेड़ आदमी किसी औरत को खींच रहा था, उसकी साड़ी आधी उतर चुकी थी, चेहरा आँसुओं से भरा।
वो लड़की मुझसे नज़रों में मदद माँग रही थी।
मैंने कहा — “भाई साहब, छोड़िए उसे!”
वो बौखला गया — “तू बीच में मत पड़, ये औरत पेशे से वेश्या है!”
वो लड़की काँपते हुए बोली — “भईया, मेरे पीरियड्स हैं... दर्द हो रहा है... मैं नहीं कर सकती...”
खून के रिसाव से उसकी साड़ी भींग चुकी थी मगर
वो आदमी गालियाँ देता रहा, मैं रोकता रहा, फिर बात हाथापाई तक जा पहुँची।
शायद पाँच थप्पड़ पड़े होंगे — नशा उतर गया उसका।
होटल वाले आ गए और उस आदमी को बाहर निकाल दिया गया।
अब वो लड़की मेरे सामने थी काँपती, डरी हुई लेकिन आँखों में एक अजीब सन्नाटा।
उसने कहा — “भईया, बस आज की रात कहीं ठहरने दीजिए... मैं बाहर नहीं जा सकती।”
मैं कुछ पल सोचता रहा।
फिर कहा — “कमरा बड़ा है, तुम उधर सो जाओ।”
वो फर्श पर बैठ गई।
नाम पूछा तो बोली — “कृति।”
थोड़ी देर बाद जब चुप्पी बोझिल होने लगी तो मैंने पूछा — “कृति, ये सब कब से?”
वो मुस्कुराई — “कब से? तब से जब दुनिया ने मुझे इंसान कहना बंद किया।”
फिर वो बोलती गई, और मैं सुनता रहा।
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उसका बचपन गया के मानपुर की गलियों में बीता था।
पिता दिहाड़ी मजदूर थे रोज़ कमाते, रोज़ खाते।
एक हादसे में रेलवे ट्रैक पर उनकी मौत हो गई।
माँ सिलाई करती थी और घर में पेट भरने के लिए कभी-कभी दूसरों के कपड़े धो देती थी,
कृति तब दस साल की थी।
“माँ मुझे डॉक्टर बनाना चाहती थी,” वो बोली, “पर स्कूल की फीस ही तो चुकानी थी पहले।”
बारह की होते-होते माँ बीमार पड़ गई।
कर्ज़ बढ़ गया।
घर बेच दिया गया।
फिर वही रास्ता — जो हर असहाय औरत के सामने एकमात्र बचा होता है — देह का।
माँ चली गई और कृति रह गई अकेली
सत्रह की उम्र में उसे शादी कर दी गई
आदमी अच्छा था, लेकिन गरीब।
तीन साल में एक बेटी हुई।
और पाँचवे साल में पति दूसरी औरत के साथ भाग गया।
“मैं तब भी रोई नहीं थी,” कृति बोली, “क्योंकि मुझे लगा, कोई लौट आता है कभी ना कभी। लेकिन वो नहीं लौटा।”
उसने चौकीदारी की, होटल में झाड़ू पोंछा, बर्तन माँजे
पर जब लॉकडाउन आया, सब खत्म हो गया।
बेटी भूख से बिलखती रही।
“वो दिन था जब मैंने पहली बार किसी अजनबी के सामने कपड़े उतारे,” उसकी आवाज़ कांपी, “सिर्फ दो रोटियों के लिए।”
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अब उसे दो साल हो चुके हैं इस धंधे में।
वो मुस्कुराती है, पर हर मुस्कान में एक मृत शरीर की ठंडक होती है।
उसका कहना है — “हम बेचते नहीं हैं खुद को, बस पेट की मजबूरी किराए पर देते हैं।”
वो आज भी अपने कमरे में माँ की तस्वीर रखती है, जिसके नीचे लिखा है — “माँ, मैं अब भी ज़िंदा हूँ।”
मैं चुप था।
उसकी कहानी ने मुझे भीतर तक तोड़ दिया।
कभी-कभी लगा, मैं वही आदमी हूँ जिसने दरवाज़ा खोला था, पर ये सब देखकर कुछ नहीं कर सका।
रात बीत गई, सुबह हुई
सुबह जब नींद खुली, तो वो जा चुकी थी।
टेबल पर सिर्फ एक फटा हुआ नोट पड़ा था,
जिस पर लिखा था —
“अगर ईश्वर है, तो उसे मेरा पता मत देना
मैं अब नहीं चाहती कि वो मुझे बचाए।”
तब से आज तक मैं बस इतना ही दोहराता रहा हूं
और शायद ये सच है
भूख आसमान में उछाला वो सिक्का है
जिसके दो पहलू है
एक जिसमें आदमी अपनी हवस मिटाता और एक
जिसमें पेट अपनी भूमिका निभाता है ।