Koshi superfast express in Hindi Short Stories by kunal kumar books and stories PDF | कौसी सुपरफास्ट एक्सप्रेस

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कौसी सुपरफास्ट एक्सप्रेस

कौसी सुपरफास्ट एक्सप्रेस

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6 दिसंबर 2023

पूर्णिया कोर्ट रेलवे स्टेशन | रात 12:00 बजे

 

दिसंबर की ठंड हड्डियों तक उतर चुकी थी। प्लेटफॉर्म पर कोसी सुपरफास्ट की सीटी गूंजी और अंधेरे को चीरती हुई ट्रेन आकर थमी। रात जैसे और गाढ़ी हो गई थी।

 

मैं जल्दी से S6 कोच में चढ़ा। मेरी सीट मिडिल बर्थ — नंबर 15 थी। कोच लगभग खाली था। पूर्णियाँ कॉर्ट से रांची तक चलने वाली इस ट्रेन में सहरसा तक सफर अक्सर सुनसान ही होता है।

 

बैग रखा, जैकेट कसकर लपेटी और कानों में नुसरत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ भर ली —

 

 "उनके अंदाज़-ए-करम, उनपे आना दिल का..."

 

 

ट्रेन ने रफ्तार पकड़ी ही थी कि पीछे से एक धीमी, लेकिन स्थिर आवाज़ आई —

"Is this S6 coach?"

 

मैंने इयरफोन उतारा और पलटकर देखा।

एक लड़की खड़ी थी —

 जीन्स-कुर्ती, घुँघराले बाल और थका हुआ चेहरा। 

उसकी आँखों में कोई गहरी लड़ाई चल रही थी।

 

मैंने कहा, "हाँ, यही है। आपकी सीट?"

उसने फोन पर टिकट देखकर कहा, "14"

 

मैं मुस्कराया,

"आपकी लोअर है, मेरी मिडिल। अगर ठीक लगे तो मैं सामने बैठ जाता हूँ, जब तक नींद न आए।"

 

वो बिना ज़्यादा बोले बैठ गई।

बात नहीं हुई लेकिन मौन में भी एक संवाद था।

 

ट्रेन बनमनखी पार कर चुकी थी। कोच अब भी लगभग खाली था। सर्द हवा बोगी के किसी कोने में हल्की सी सिसकी जैसी लग रही थी।

 

काफ़ी देर हम दोनों वैसे ही बैठे रहे।

उसकी पलकें नींद से नहीं बोझ से भारी लग रही थीं।

 

मैंने धीरे से पूछा,

"आप ठीक हैं? अगर असहज लगे तो मैं चला जाऊँ..."

 

वो कुछ क्षण चुप रही, फिर बोली 

"ठीक हूँ... बस थक गई हूँ।"

 

उसके स्वर में थकान नहीं, बस आँसुओं का सैलाब था 

जैसे कुछ अनकहा बहुत दिनों से भीतर रुका हो।

 

मैं उठने को हुआ, तभी उसने कहा,

"रुकिए..."

 

मैं वहीं रुक गया।

रात के तीन बजने को थे,

कोच पूरी तरह शांत था।

 

फिर वो बोली —

"मैं भाग रही हूँ... अपने भाई से, अपने घर से... और शायद, खुद से भी।

ब्रेन कैंसर है — लास्ट स्टेज।

भाई को परिवार को ऐसे देख नहीं पा रही...

वो हर दिन थोड़ा-थोड़ा मर रहे है, और मैं उनकी आँखों में खुद को ख़त्म होते देख रही हूँ।

ये सब मरने से अधिक डरावना है 

इसलिए मैं भाग रही हूँ बिना बताए 

 ताकि वो मुझसे नफ़रत कर के ही लेकिन जी सके।

 

उसके शब्दों में कोई नाटकीयता नहीं थी 

बस एक असहनीय सच्चाई की शांति थी।

 

कुछ देर हम वैसे ही चुप रहे।

फिर उसने पूछा —

"क्या मरने का कोई सही वक़्त होता है?"

 

मैंने कहा —

"मृत्यु की घड़ी कोई तय नहीं करता 

पर हाँ, उस वक़्त हम किनके पास होते ये जरूर चुन सकते है और सच कहूँ तो यही मायने रखता है ।

कभी-कभी किसी का 'साथ' होना ही सबसे बड़ा संबल होता है।

और मृत्यु कोई डरावनी चीज नहीं ये ... शायद 

एक ऐसी अप्रत्यासित घटना है जहाँ बीज, मिट्टी छोड़कर

आकाश की ओर उगने लगता है 

आजाद हो कर ।

 

वो मुस्कराई, पहली बार खुलकर।

और बोली

"पंडित हो क्या? बड़ी बड़ी बातें कर लेते हो..."

 

हम दोनों हँस पड़े 

हल्के, लेकिन पूरे मन से।

जैसे सर्दी की रात में किसी ने रजाई ओढ़ा दी हो।

 

कुछ मिनट बाद वो उठी, बैग खींचा...

मुझे देखा और अचानक गले लगा लिया।

 

वो आलिंगन न दुख का था, न प्रेम का 

बस एक गहराई थी जिसे शब्दों की ज़रूरत नहीं।

मानो दोनों ने उस पल में अपने-अपने बोझ

 एक-दूसरे को दे दिए हों बिना मांगे।

 

ट्रेन मानसी जंक्शन पर रुकी।

वो उतरी और बिना मुड़े चली गई।

खिड़की से मैंने बस उसे जाते देखा।

 

इसबार उसकी आँखों में कोई बेचैनी नहीं थी 

बल्कि एक ठहराव था।

जैसे उसने मृत्यु को हराया नहीं स्वीकार लिया हो।

 

वो लड़की कौन थी, कहाँ गई, अब कैसी होगी — मैं नहीं जानता।

पर आज भी जब कोसी सुपरफास्ट में S6 कोच से गुज़रता हूँ 

तो उसे ढूंढते हुए एक पंक्ति जरूर छोड़ जाता हूॅं 

..........

मेरे द्वारा तय की गई मेरी अबतक की सारी यात्राओं में से सबसे खूबसूरत यात्रा तुम ही हो प्रिय