“सृष्टि का अपना गीत, संगीत और मौन”
अध्याय 1 — सौंदर्य का जन्म ✧
✍🏻 — 🙏🌸 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
आरंभ में कुछ नहीं था —
न रूप, न रंग, न शब्द, न ध्वनि।
बस एक मौन था,
जो स्वयं को देखना चाहता था।
देखने की उसी चाह से
सृष्टि की पहली लहर उठी।
और जब चैतन्य ने स्वयं को प्रतिबिंबित किया,
वहीं से सौंदर्य का जन्म हुआ।
सौंदर्य कोई वस्तु नहीं,
वह आत्मा की तरंग है —
जो पंचतत्व में उतरकर
रूप ले लेती है।
मिट्टी ठहरना चाहती थी,
जल बहना,
अग्नि जलना,
हवा नाचना,
आकाश सबको थामे रहना।
जब ये पाँचों तत्व
एक साथ चैतन्य के स्पर्श में आए —
तब सृष्टि मुस्कराई,
और उसी मुस्कान का नाम पड़ा — सौंदर्य।
सौंदर्य पहली दृष्टि में नहीं,
पहले अनुभव में था —
जहाँ कोई देखने वाला नहीं था,
केवल देखा जाना था।
जब देह बनी,
तो सौंदर्य सीमित हो गया।
अब वह रूप बन गया —
कभी स्त्री का, कभी पुरुष का,
कभी फूल का, कभी तारों का।
पर असल में,
हर रूप के पीछे वही चेतना थी
जो स्वयं को पहचानना चाहती थी।
स्त्री उस चेतना का ग्रहणशील भाग है,
पुरुष उसका दर्शक भाग।
एक भीतर झिलमिलाता है,
दूसरा बाहर से झांकता है।
दोनों में ही सौंदर्य है —
क्योंकि दोनों ही अधूरे हैं।
सौंदर्य पूर्णता नहीं,
अधूरापन का नृत्य है।
जहाँ एक दूसरे की ओर झुकता है,
वहाँ से अस्तित्व खिलता है।
रूप का सौंदर्य तभी तक है
जब तक भीतर की रोशनी उसे छूती रहती है।
जिस दिन चेतना पीछे हटती है,
रूप मिट्टी बन जाता है।
इसलिए जो केवल देखने में रुक जाता है,
वह सौंदर्य खो देता है।
और जो देखने के पार पहुँच जाता है,
वह स्वयं सौंदर्य बन जाता है।
क्योंकि सौंदर्य का असली जन्म
बाहर नहीं,
भीतर होता है —
जहाँ कोई “मैं” नहीं,
सिर्फ एक मौन साक्षी रह जाता है।
वही साक्षी —
वही चैतन्य —
वही सौंदर्य।
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✧ अध्याय 2 — रूप और दृष्टि का संवाद ✧
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रूप और दृष्टि —
दो ध्रुव हैं एक ही रहस्य के।
एक प्रकट होता है,
दूसरा पहचानता है।
एक कहता है “मैं हूँ,”
दूसरा मौन रहता है।
दृष्टि बिना रूप के अंधी है,
और रूप बिना दृष्टि के मृत।
दोनों मिलें तो सृष्टि घटती है।
जब चैतन्य ने अपने ही प्रतिबिंब को देखा,
तो दृष्टि बनी।
और जब उसने स्वयं को प्रतिबिंबित किया,
तो रूप बना।
वहीं से देखने वाला और दिखने वाला
एक दूसरे को खोजने लगे —
और यह खोज ही जीवन है।
रूप का धर्म है — दिखना।
दृष्टि का धर्म है — देखना।
पर दोनों का मिलन तभी संभव है
जब बीच में ‘अहंकार’ न खड़ा हो।
अहंकार रूप को स्थायी बनाना चाहता है,
और दृष्टि को मालिक।
इससे सौंदर्य मर जाता है,
और बच जाता है केवल विचार।
रूप को देखने का अर्थ है
उसके पार जाना।
जैसे फूल को देखकर केवल रंग न देखो,
बल्कि उसकी गंध में उतर जाओ।
रूप वहीं समाप्त होता है
जहाँ दृष्टि मौन हो जाती है।
स्त्री और पुरुष इस संवाद के दो रूप हैं।
स्त्री का रूप — ग्रहणशील है।
पुरुष की दृष्टि — जागरूक।
जब दोनों अपने कार्य में संपूर्ण हो जाते हैं,
तो कोई अलग-अलग नहीं रह जाता।
वह मिलन देह का नहीं,
ऊर्जा का होता है।
वहीं से ध्यान जन्म लेता है।
देखना अगर केवल इच्छा बन जाए,
तो दृष्टि दूषित हो जाती है।
देखना अगर विस्मय बन जाए,
तो दृष्टि पवित्र हो जाती है।
विस्मय में ‘मैं’ नहीं होता,
बस उपस्थित रहना होता है।
जिस दिन कोई वस्तु तुम्हें इतनी गहराई से छू ले
कि तुम स्वयं को भूल जाओ —
वह दृष्टि का पूर्ण क्षण है।
उसी क्षण रूप और दृष्टि
एक हो जाते हैं।
वह मिलन ही बोध है।
रूप का उद्देश्य था — दृष्टि को जगाना।
दृष्टि का उद्देश्य है — रूप में स्वयं को पहचानना।
जब दोनों अपना उद्देश्य पूरा कर लेते हैं,
तो संसार खेल बन जाता है,
और देखने वाला जान लेता है —
कि वह स्वयं वही है
जिसे वह देख रहा था।
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अगला अध्याय होगा —
✧ अध्याय 3 — रूप का विसर्जन ✧
जहाँ सौंदर्य और दृष्टि दोनों मिट जाते हैं,
और जो बचता है —
वह केवल प्रकाश है।