Sanskrti ka Pathik - 2 in Hindi Travel stories by Deepak Bundela Arymoulik books and stories PDF | संस्कृति का पथिक - 2

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संस्कृति का पथिक - 2

पार्ट-2
संस्कृति का पथिक

भोजपुर से निकलते समय सूरज अपनी सुनहरी किरणों से आसमान को ऐसे रंग रहा था मानो शिव स्वयं अपनी जटाओं से आशीर्वाद बरसा रहे हों। मन अभी भी भोजेश्वर के मंदिर की निस्तब्धता में था — उस विराट शिवलिंग की छवि आँखों में बस चुकी थी।
कार ने जैसे ही भोजपुर की घाटियों को छोड़ा, सड़कें धीरे-धीरे जंगलों और पथरीली चट्टानों की ओर मुड़ने लगीं। मेरी अगली मंज़िल थी "भीमबेटका"।

यह स्थान यहाँ से लगभग 30 किलोमीटर दूर, विंध्य पर्वत की तलहटी में स्थित है। भीम बेटका का नाम का स्मरण होते ही महाभारत के भीम की छवि मेरे दीमाग में उभरने लगी थी — कहा जाता है कि इन्हीं गुफाओं में पांडवों के वनवास के दिनों में भीम ने कुछ समय बिताया था। इसी कारण से उन गुफाओं का नाम पड़ा — भीमबेटका, अर्थात् “जहाँ भीम बैठे थे।”पड़ा मुझे यहाँ तक पहुंचने में एक घंटा लगा और जब मैंने उन गुफाओं में कदम रखा, तो लगा जैसे मैं किसी और ही काल में प्रवेश कर गया हूँ- यह केवल पुरातत्व नहीं था, यह मानव चेतना की आदि कथा था।
गुफाओं की दीवारों पर बने 30,000 वर्ष पुराने चित्र मानो जीवित हो उठे हो कहीं शिकार के दृश्य, कहीं नृत्य करते मनुष्य, कहीं जानवरों के झुंड-हर चित्र एक संवाद था, पत्थर और आत्मा के बीच। यहाँ मुझे लगा कि यह मानव का पहला प्रयास था — अपनी अनुभूति को रूप देने का, अपनी उपस्थिति को समय में दर्ज करने का, यहाँ धर्म, भाषा या सभ्यता नहीं थी — केवल अस्तित्व का अनुभव था। मैंने एक पल को रुककर सोचा- भोजपुर में मैंने शिव के विराट स्वरूप के दर्शन किये और यहाँ भीमबेटका में मैं मानव के प्रथम आत्मबोध के साक्षी बन रहा था। यह एक निराकार से साकार होने की यात्रा थी- शिव से मानव तक, और मानव से फिर शिव की ओर लौटने की अनंत यात्रा।
गुफाओं की ठंडी हवा चेहरे से टकरा रही थी, और भीतर कहीं एक गूंज उठी 
“शायद यही वह स्थान है जहाँ मनुष्य ने पहली बार जाना कि उसके भीतर भी एक सृजनहार है।”
भीमबेटका की हर गुफा, हर चित्र, हर रेखा यही कह रही थी- ईश्वर पहले भीतर जन्म लेता है, फिर वह पत्थर, रंग, या शब्द में रूप लेता है गुफाओ में घूमते घूमते काफ़ी समय गुजर चुका था यहाँ से जाने का मन तो नहीं था लेकिन मुझे आगे की भी यात्रा भी करनी थी.. और यही सोचते सोचते मैं उन गुफाओ से काफ़ी दूर अपनी गाड़ी के पास आया था और फिर मैंने पीछे मुड़कर उन गुफाओं को अंतिम बार देखा ऐसा लगा के मैं तीस हजार साल पहले युग की किसी दुनियां से बाहर निकल कर आया हूं और वो गुफाए और चित्र की उन प्राचीन दीवारे मुझ से कह रही हैं-
“तुम भी अपनी यात्रा को चित्रित करो, शब्दों में, भावों में- क्योंकि सृजन ही आत्मा का सबसे पवित्र रूप है।”

मैंने अपनी गाड़ी स्टार्ट की और अगली यात्रा सांची की ओर निकल पड़ा था.

मेरी कार अब विदिशा की दिशा में बढ़ रही थी — रास्ते में हवा में एक अजीब-सी शांति थी, मानो जैसे प्रकृति स्वयं ध्यान में लीन हो.
सांची यहां से 110 किलोमीटर की दूरी पर था जिसके लिए मैंने भीमबेटका से ओबेदुल्लागंज → भोपाल → रायसेन → सांची का हाइवे चुना और मैं मात्र 2:30 घंटे में सांची पहुंच गया, सांची मध्य प्रदेश का वह पवित्र स्थल है जहाँ बुद्ध की वाणी ने पत्थरों नें अमर रूप पाया। पहाड़ी की तलहटी में जैसे-जैसे कार ऊपर बढ़ती गई, मन भी उसी अनुपात में भीतर उतरता गया। सांची की पहाड़ी पर पहुँचते ही सामने फैला महान स्तूप, सूर्य की किरणों में ऐसा दीप्त था मानो ज्ञान का सूर्य स्वयं वहाँ विराजमान हो। स्तूप के चारों दिशाओं में बने द्वार — तोरण — जैसे मानव जीवन की चार अवस्थाओं का प्रतीक हों।
पूर्व तोरण जन्म का, दक्षिण कर्म का, पश्चिम ध्यान का और उत्तर निर्वाण का। मैंने जब उत्तर तोरण के समीप खड़ा होकर ऊपर देखा, तो लगा जैसे पत्थर बोल रहे हों —
न कोई आडंबर, न कोई वैभव — केवल करुणा, सरलता और बोध।
महान सम्राट अशोक ने इस स्तूप का निर्माण अपने भीतर हुए रूपांतरण के प्रमाण के रूप में कराया था। वह जो कभी युद्ध का प्रतीक था, आज शांति का संदेशवाहक बन चुका था।
यहाँ हर पत्थर, हर नक्काशी मानो यह कह रही थी —
“विजय तलवार से नहीं, विचार से होती है।”

जब मैंने स्तूप की परिक्रमा शुरू की, तो मन में न जाने कितनी परतें खुलती चली गईं।
भीमबेटका में देखा था कि मानव ने पहली बार सृजन सीखा,
भोजपुर में महसूस किया कि सृजन में भक्ति का अर्थ क्या है, और अब सांची में समझ आया — सृजन और भक्ति दोनों तभी पूर्ण होते हैं, जब भीतर शांति हो।

मैं कुछ देर ध्यान में बैठा तो हवा में घुली धूप की सुगंध, पक्षियों की मधुर ध्वनि, और स्तूप की छाया में बैठा वह मौन —सब मिलकर एक ऐसे संगीत में बदल गया जिसे केवल मन ही सुन सकता था। तभी अचानक लगा, यही तो वह स्थान है जहाँ अहंकार का अंत और बोध का आरंभ होता है। जहाँ “मैं” का भार गिरता है, और “शांति” भीतर जन्म लेती है। "सांची में बुद्ध केवल एक प्रतिमा नहीं,
वह चेतना हैं- जो कहती है, स्वयं को जानो,
क्योंकि वहीं से सृष्टि को जानने की शुरुआत होती है।”मैंने आँखें खोलीं तो, सूर्य अस्त होने लगा था — उसकी सुनहरी रोशनी स्तूप के शीर्ष को आलोकित कर रही थी ऐसा लग रहा था जैसे बुद्ध का संदेश अब भी हवा में तैर रहा हो -“अप्प दीपो भव”-स्वयं अपना दीपक बनो।
क्रमशः-