संस्कृति का पथिक
पार्ट-4
भोपाल में एक शांत रात बिताने के बाद, सुबह की पहली किरणों के साथ मैंने अपनी यात्रा फिर शुरू की। मन में हल्की उत्सुकता और आत्मा में नया जोश था — आज की मंज़िल थी सलकनपुर जो भोपाल से लगभग 75 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं मुझे रात में ही मन में माँ के आह्वान का एहसास हो चुका था
सुबह का समय था। सूरज की किरणें जैसे भोपाल की गलियों में स्वर्ण रेखाएँ खींच रही थीं। मैंने होटल से प्रस्थान किया — मन में भक्ति का उत्साह, आँखों में माँ के दर्शन की प्रतीक्षा। रास्ता जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, शहर का शोर पीछे छूटता गया और प्रकृति की गोद खुलती चली गई। सीहोर की ओर जाते हुए सड़क के दोनों ओर हरियाली की छटा मन को शांति दे रही थी। खेतों में खिले पीले सरसों के फूल, दूर-दूर तक फैले पेड़, और हल्की हवा में झूमती डालियाँ — सब माँ के स्वागत में सजी लग रही थीं। लगभग दो घंटे की यात्रा के बाद दूर पहाड़ी पर एक चमकता हुआ मंदिर दिखा — यही था माँ विजयासन देवी का सिद्ध धाम — सलकनपुर। पहाड़ी पर बसा यह मंदिर मानो आसमान को छूता हुआ आशीर्वाद दे रहा था नीचे मैंने कार रोकी और जब नज़र उस सीढ़ियों के सिलसिले पर पड़ी, तो दिल में एक हल्की-सी श्रद्धा मिश्रित चुनौती जाग उठी कहा जाता है कि हैं कि माँ तक पहुँचने के लिए करीब 1000 से अधिक सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं.
मैंने पहला कदम “जय माँ विजयासन!” का उद्घोष करते हुए रखा, हर सीढ़ी मानो किसी तपस्या का प्रतीक थी लोग अपने अपने ढंग से माँ तक पहुँच रहे थे — कोई परिवार संग, कोई अकेला, कोई ढोल-ढमाके के साथ, तो कोई मौन साधना में कई लोग तो पूरी यात्रा नंगे पाँव ही कर रहे हैं, ताकि हर कदम भक्ति का प्रतीक बन सके सीढ़ियों के किनारे छोटे-छोटे दुकानदार नारियल, चुनरी और माता के प्रसाद बेच रहे थे उनकी आँखों में भी वही विश्वास झलक रहा था, जो हर भक्त के चेहरे पर था।
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए थकान जरूर होती है, लेकिन जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जाते हैं, भीतर एक अजीब-सी ऊर्जा भरती जाती है हवा शुद्ध और सुगंधित लगती है, मानो माँ के चरणों को छू कर उठ रही हो जब अंतिम सीढ़ी पर पहुँचा, तो मंदिर के शिखर पर लहराता हुआ लाल ध्वज नज़र आया — हवा में फहराता वह ध्वज जैसे कह रहा हो, “माँ की कृपा सब पर बनी रहे।”
मंदिर में प्रवेश करते ही घंटियों की मधुर ध्वनि ने वातावरण को पवित्र कर दिया सामने माँ विजयासन की मूर्ति अलौकिक तेज से जगमगा रही थी देवी का चेहरा इतना शांत और करुणामयी कि उसे देखकर मेरी हर चिंता मिट मिट रही थी, कहते हैं माँ की ये मूर्ति स्वयंभू है यानी धरती से स्वयं प्रकट हुई सच कहूँ तो उस पल लगा कि माँ सच में मेरे सामने हैं जीवित, जागृत, और दयालुता से मुझे निहार रही हैं।
मंदिर में आरती का समय था पुजारी जी ने दीपक जलाया, ढोलक और घंटियों के बीच "जय माँ विजयासन देवी" के जयकारे गूँजने लगे, वह ध्वनि मेरे सीने में उतर गई मेरी आँखें अपने आप बंद हो गईं और मन प्रार्थना में डूब गया“माँ, बस इतनी कृपा करना कि मैं सदा धर्म और सत्य के मार्ग पर रहूँ।”
आरती के बाद जब प्रसाद लिया, तो लगा जैसे माँ ने स्वयं अपने हाथों से आशीर्वाद दिया हो मंदिर के चारों ओर बने अन्य देवी-देवताओं के छोटे छोटे मंदिरों के भी दर्शन किए — हनुमान जी, भैरव बाबा और गणेश जी की प्रतिमाएँ यहाँ हर मंदिर अपनी कहानी कहता है, हर कोना भक्ति से सराबोर है।
मंदिर से नीचे उतरते समय हवा ठंडी थी, पर भीतर एक अद्भुत ऊष्मा थी — माँ के सान्निध्य की गर्माहट रास्ते में कई श्रद्धालु मिलते रहे — कोई माँ के भजन गा रहा था, कोई “जय विजयासन” के नारे लगा रहा था बच्चों के चेहरों पर भी वही उत्साह था, जो बड़ों के मन में श्रद्धा के रूप में बसता है।
नीचे पहुँचकर जब पीछे मुड़कर देखा, तो पहाड़ी पर स्थित मंदिर चमक रहा था। लगा, जैसे माँ दूर से भी अपने भक्तों को निहार रही हों“फिर आना, मेरे बच्चे।” उस क्षण का अनुभव शब्दों में बाँधना कठिन है वह दृश्य सिर्फ आँखों से नहीं, आत्मा से देखा जाता है।
वापसी के रास्ते में मन में कई विचार उमड़ने लगे जीवन की भागदौड़ में हम अक्सर भूल जाते हैं कि सच्ची शांति बाहर नहीं, भीतर है और वह तभी मिलती है जब हम किसी दिव्यता के प्रति नतमस्तक होते हैं।
सलकनपुर की यह यात्रा मेरे लिए सिर्फ एक धार्मिक यात्रा नहीं थी, बल्कि एक आत्मिक अनुभव थी — जिसने मुझे भीतर तक छू लिया।
भोपाल लौटते समय सूर्य पश्चिम की ओर ढल रहा था। उसकी सुनहरी किरणें खेतों पर पड़ रही थीं, मानो माँ विजयासन अपने आशीर्वाद की किरणें फैला रही हों। मैंने मन ही मन प्रणाम किया“माँ, अगली बार भी बुलाना जब तक जीवन रहूं, यह भक्ति का रिश्ता बना रहे।”
किनारे से लगी होटलों पर बन रहे गर्म गर्म नास्ते की खुशबू नें मेरी भूख बढ़ा रही थी मैंने सोचा आगे का रास्ता बहुत लम्बा हैं क्यों न यही पेट पूजा कर लूं.
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सलकनपुर की प्राकृतिक शांति का अनुभव मन में अभी भी गूँज रहा था, जब मैं अपनी यात्रा को आगे बढ़ाकर उज्जैन की ओर चल पड़ा सड़क के किनारे फैली हरियाली और दूर-दूर से सुनाई देती बसों और ट्रकों की गड़गड़ाहट सब मिलकर मन में एक नई उत्सुकता जगा रहे थे, अब आगे की मंज़िल उज्जैन थी, मध्य प्रदेश का वह पवित्र शहर, जिसे महाकालेश्वर का मंदिर पूरे विश्व में प्रसिद्ध बनाता है।
भोपाल से उज्जैन लगभग १८० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यहां से 255 के लगभग हैं. जैसे-जैसे कार ने रास्ता तय किया, विंध्य और सतपुड़ा की घाटियाँ पीछे छूटती गईं, लगभग 5 घंटे के सफर के बाद उज्जैन की ऐतिहासिक धरती धीरे-धीरे नजर आने लगी मन में एक अजीब-सा उत्साह और आस्था का मिश्रण था यह वह जगह थी जहाँ समय और मृत्यु, भक्ति और आत्मा के बीच संवाद होता है।
उज्जैन पहुँचते ही सबसे पहले मेरी दृष्टि महाकाल मंदिर की ओर पड़ी यह मंदिर केवल वास्तुकला का अद्भुत नमूना नहीं था, बल्कि यहाँ के प्रत्येक पत्थर में शांति और भक्ति का संचार था मंदिर के गर्भगृह में स्थित महाकाल का शिवलिंग, जो अत्यंत प्राचीन और कालातीत प्रतीत होता है, जैसे समय की धारा में भी अडिग खड़ा है यह वह जगह है जहाँ “काल” केवल एक अवधारणा नहीं, बल्कि अनुभव और दर्शन का प्रतीक बन जाता है मैंने मंदिर के भीतर प्रवेश किया हवा में धूपबत्ती की खुशबू घुली हुई थी, और मंदिर की घंटियाँ हल्के स्वर में गूँज रही थीं भीड़ में भी एक अद्भुत निस्तब्धता थी हर भक्त अपने भीतर के महाकाल का अनुभव कर रहा था
मैंने गर्भगृह में खड़े होकर गहरी सांस ली और शिवलिंग की ओर ध्यान लगाया वह विशाल, अडिग और समय से परे प्रतीत होने वाला शिवलिंग मानो कह रहा हो —
“जो स्वयं को जानता है, वही समय को समझता है; जो मृत्यु को समझता है, वही जीवन को जानता है।”
मैंने मंदिर के प्रांगण में धीरे-धीरे परिक्रमा शुरू की, हर दिशा से भक्तों की श्रद्धा की गंध आ रही थी, कोई मंत्र उच्चारण कर रहा था, कोई ध्यान में लीन था, मन में यह सवाल उठा क्या भक्ति केवल शब्दों और कर्मों में है, या वह अनुभव में भी है? महाकाल के दर्शन ने मुझे यह स्पष्ट कर दिया कि भक्ति का अर्थ केवल देखने और सुनने में नहीं, बल्कि आत्मा के गहन अनुभव में है, मैंने मंदिर के बाहर बैठकर मैंने सूर्यास्त की प्रतीक्षा की सूर्य की सुनहरी किरणें मंदिर के शीर्ष और गर्भगृह के पत्थरों पर पड़ रही थीं, और जैसे प्रकाश स्वयं शिव के स्वरूप में ढल रहा हो हवा में हल्की ठंडक और घंटियों की ध्वनि ने मेरे भीतर एक गहरी शांति उत्पन्न कर रही थी यह शांति केवल मेरे मन की नहीं थी, बल्कि समय और मृत्यु के गहन अनुभव की भी थी।
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रात होते होते उज्जैन की गलियों में धीरे-धीरे सन्नाटा छाने लगा, मैंने मंदिर परिसर के पास स्थित एक छोटे होटल में ठहरना चुना, रात में खिड़की खोलकर बाहर देखा और मैंने महसूस किया कि महाकाल केवल पत्थर और मूर्तियों में नहीं हैं वह हर उस अनुभव में हैं, जहाँ मन और आत्मा का मिलन होता है।
रात का समय मुझे स्वयं से संवाद करने का अवसर दे रहा था मैंने अपने भीतर देखा जो भय, शंका और समय की धारा में बहते थे, वे सभी धीरे-धीरे शांत हो रहे थे महाकाल ने मुझे यह समझाया कि मृत्यु केवल अंत नहीं है, बल्कि जीवन और चेतना का अभिन्न हिस्सा है
शिव के इस विराट अनुभव के सामने मानव की क्षणिकता, उसके कर्म और उसका अस्तित्व सब कुछ समेटा गया लगता है.
महाकाल की नगरी उज्जैन में यह रात मेरे लिए केवल विश्राम का समय नहीं थी यह रात, इस यात्रा का वह क्षण थी, जहाँ मैंने महसूस किया कि यात्रा केवल मंदिरों, गुफाओं, झीलों और वन्य जीवन तक सीमित नहीं है यह यात्रा मन, आत्मा और समय के बीच के संवाद की यात्रा है भोजपुर में शिवलिंग का विराट स्वरूप, भीमबेटका की प्राचीन चित्रकला, सांची का शांति स्तूप और सलकनपुर की प्राकृतिक गोद सब मुझे आज उज्जैन में महाकाल के दर्शन के माध्यम से एक गहन अनुभव दे रहे थे. मैंने अपनी डायरी खोली और लिखा:-
"महाकाल ने मुझे दिखाया कि जीवन और मृत्यु, भक्ति और आत्मा, समय और अनंत ये सब एक धारा में बहते हैं केवल वही व्यक्ति इसे समझ सकता है, जो स्वयं में गहराई तक उतर सके उज्जैन की यह रात, यह अनुभव और यह दर्शन मेरे जीवन की यात्रा का एक अमूल्य हिस्सा बन गयी है।”
रात के सन्नाटे में, महाकाल की अदृश्य उपस्थिति और मंदिर की घंटियों की मधुर गूँज मेरे भीतर एक स्थायी शांति छोड़ गई मैं जानता था कि कल की यात्रा, चाहे कोई भी स्थान हो, अब केवल बाहरी दर्शन नहीं बल्कि भीतर की खोज होगी।
क्रमशः