रिया ने हवेली की पुरानी अलमारी से एक आईना निकाला। धूल हटाते ही उस पर दरारें उभर आईं, और उनमें उसे अपनी माँ संध्या का चेहरा दिखाई दिया।
वो चौंक गई — "अम्मी… यहाँ?"
आईने से धीमी आवाज़ आई, “रिया… वो जो कहानी तू पढ़ रही है, उसमें तेरा नाम भी लिखा है।”
रिया का दिल जैसे थम गया। उसने डायरी खोली — आख़िरी पन्ने पर लिखा था:
“अगर ये सच किसी को मिले, तो जान लेना कि ज़ोया का गुनाह उसका नहीं… मेरा था।”
अचानक हवा का झोंका आया, और कमरे की लाइटें बुझ गईं।
दीवार पर एक परछाई बनी — वही अर्जुन की रूह।
अर्जुन की आँखों में ग़ुस्सा था।
“रिया… तूने सब जान लिया है। अब तू नहीं बच सकती। तेरी माँ ने मुझे धोखा दिया था, और अब तू उसी की विरासत है।”
रिया काँपते हुए बोली, “अगर उन्होंने ग़लती की, तो मैं उसे सही करूँगी!”
आईने से खून टपकने लगा, और हवेली की दीवारों से आवाज़ें आने लगीं — “सच बोल… वरना तेरी रूह भी यहाँ बँध जाएगी।”
रिया ने काँपते हाथों से कुरान की आयतें पढ़ीं। अर्जुन की परछाई धीरे-धीरे धुएँ में बदलने लगी।
वो चीखा —
"अब मैं आज़ाद हूँ... मगर तूने अपने लिए आग खोल दी है..."
हवेली की छतें हिलने लगीं, आईना ज़मीन पर गिरा और हज़ार टुकड़ों में बिखर गया।
अधूरी रूहों की रिहाई
सुब्ह की पहली अज़ान के साथ हवेली में सन्नाटा फैल गया। रिया बेहोश पड़ी थी, मगर उसके चारों ओर दीवारों पर लिखे नाम मिट चुके थे।
अर्जुन, संध्या, और वो सारी रूहें जो हवेली में बँधी थीं — अब ग़ायब हो चुकी थीं।
रिया धीरे-धीरे उठी। कमरे में बस एक आवाज़ गूँज रही थी —
"हर मोहब्बत का अंजाम मौत नहीं होता, मगर कुछ मोहब्बतें मरकर भी जिंदा रहती हैं..."
रिया हवेली के दरवाज़े की ओर बढ़ी। धूप की किरणें अंदर आईं, जैसे बरसों बाद हवेली ने चैन की साँस ली हो।
बाहर निकलते वक़्त उसने पीछे मुड़कर देखा — हवेली की टूटी दीवार पर लिखा था:
"ख़ामोश परछाइयाँ अब बोल चुकी हैं..."
रिया की आँखों से आँसू बह निकले। उसने धीरे से फुसफुसाया —
"अब शांति हो जाए..."
हवा हल्के से चली, और खिड़की अपने आप बंद हो गई।
शायद हवेली की रूहें आखिरकार मुक्त हो चुकी थीं।
हर टुकड़े में रिया को अपना चेहरा दिखा — और हर चेहरे के पीछे एक नई परछाई खड़ी थी…
सुकून या साया?
हवेली से बाहर आने के बाद रिया ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
वो अब सिर्फ़ हवेली से नहीं, बल्कि अपने अतीत से भाग रही थी।
उसने सोचा था कि सब खत्म हो चुका है — रूहें मुक्त, बदले पूरे, सुकून हासिल।
मगर कुछ साये ऐसे होते हैं जो पीछे नहीं छूटते…
साल बीत गए। रिया अब दिल्ली में एक विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाती थी।
कभी-कभी वो अपने छात्रों को “ख़ामोश हवेलियाँ” विषय पर पढ़ाती, मगर उसकी आवाज़ में हमेशा एक अनजाना डर झलकता।
एक दिन एक छात्र ने पूछा,
“मैम, क्या आपको भूतों पर यक़ीन है?”
रिया मुस्कराई — वो मुस्कान जो होंठों तक जाती है, आँखों तक नहीं।
“कभी-कभी, जो लोग सच बोल नहीं पाते… वो मरकर भी चुप नहीं रहते।”
रात को जब वो अपने फ्लैट में अकेली थी, खिड़की से ठंडी हवा आई।
वो वही ख़ास खुशबू थी — गिले दीवारों और पुरानी मिट्टी की।
रिया ने पेन उठाया, डायरी खोली —
और वहाँ लिखा था:
“रिया… तूने हमें आज़ाद किया, मगर क्या तूने खुद को किया?”
उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगा।
कमरे की लाइट झपकी, और सामने आईने में एक झिलमिल परछाई नज़र आई —
पहले धुंधली, फिर साफ़।
वो अर्जुन था।
रिया के होंठ काँप गए।
“तुम तो चले गए थे…”
अर्जुन मुस्कराया, मगर उसकी आँखें खाली थीं।
“कुछ रूहें अपनी मोहब्बत छोड़ नहीं पातीं… और कुछ मोहब्बतें, अपने रूह।”
रिया के हाथ से डायरी गिर गई।
आईने में अब सिर्फ़ धुंध थी — मगर वो धुंध धीरे-धीरे उसके चेहरे का आकार लेने लगी।
और उस रात, हवेली भले लखनऊ में रही हो —
मगर उसकी ख़ामोश परछाई अब दिल्ली में बस गई थी।