Ink Words - 2 in Hindi Poems by Deepak Bundela Arymoulik books and stories PDF | स्याही के शब्द - 2

Featured Books
Categories
Share

स्याही के शब्द - 2

11-✍️ तलाश में उलझन
रिश्तों की गहराई भूलकर,
बंधन की मर्यादा तोड़कर,
वो स्क्रीन पर सज रही है—
मानो ज़िंदगी का सच
अब कैमरे की झिलमिलाहट में ही छिपा हो।

सोशल मीडिया के मंच पर
फ़ूहड़ता का तमाशा बिक रहा है,
जहाँ सादगी मज़ाक बन चुकी है,
और उघाड़ापन ही "आधुनिकता" कहलाता है।

कभी बहन, कभी बेटी, कभी माँ—
इन रूपों की गरिमा कहाँ खो गई?
किस तलाश में है वो?
क्या कुछ पल की तालियों में
उसकी आत्मा की प्यास बुझ जाएगी?

शायद पहचान की भूख है,
शायद अकेलेपन की चुभन है,
या शायद
दुनिया के शोर में
अपने ही मौन को दबाने का प्रयास।

पर क्या सचमुच यही तलाश है—
कि रिश्तों की मर्यादाएँ गिरवी रखकर
वह वर्चुअल तालियों का सौदा कर ले?
या फिर यह भटकन है,
जहाँ औरत अपनी असल ताक़त
दिखावे की धूल में खो रही है।

मर्यादा बोझ नहीं,
बल्कि आत्मसम्मान की ढाल है।
और जो उसे उतार फेंकती है,
वह तलाश नहीं करती—
बल्कि तलाश में खो रही है औरत।

आर्यमौलिक
===🌸===

12-✍️ इज्जत
इज़्ज़त वो आईना है, जिसमें इंसान का असली चेहरा झलकता है,
दरार पड़ जाए तो उम्रभर चमकता भी है, पर पहले जैसा नहीं लगता है।

ये वो सुगंध है, जो बिन दिखे हर ओर फैल जाती है,
जिसे खो दिया जाए तो बाग़ रहकर भी वीरान नज़र आती है।

इज़्ज़त वो दीपक है, जो अँधेरों में भी दिशा दिखाता है,
पर अगर बुझ जाए तो सूरज की रोशनी भी बेगानी हो जाती है।

ये वो धरोहर है, जो ख़ून-पसीने से कमाई जाती है,
और जिसकी कीमत बाज़ारों में नहीं, दुआओं में आंकी जाती है।

आर्यमौलिक

===🌸===

13-✍️ रात का सूरज,
वह नहीं जो आकाश में दिखे,
बल्कि वह जो आत्मा की खिड़कियों से
धीमे-धीमे झाँकता है।

जब दिन का उजाला
हाथ से फिसल जाता है,
और चारों ओर केवल
निराशा का काला वस्त्र बिछा होता है,
तभी यह अदृश्य सूरज
मन की गहराइयों में उगता है।

दिन का सूरज देह को गर्माता है,
रात का सूरज विचारों को तपाता है।
वह स्मृतियों की छाया में छिपकर
हमें हमारे असली रूप से मिलाता है।

यह सूरज अंधकार को नष्ट नहीं करता,
बल्कि उसके बीच
प्रकाश की संभावना दिखाता है।
यह सिखाता है—
कि अंधेरा भी शत्रु नहीं,
बल्कि वह कैनवास है
जिस पर आशा अपनी रेखाएँ खींचती है।

रात का सूरज
थका हुआ पथिक को कहता है—
कि यात्रा अभी अधूरी नहीं,
हर ठहराव के भीतर
नए सवेरा की बीज-रचना छिपी है।

और शायद यही उसका रहस्य है—
कि जो प्रकाश दिन में बाहर दिखता है,
वही रात में भीतर उतरकर
चेतना का दीप बन जाता है।

आर्यमौलिक

===🌸===

14-✍️ करबटों की रात
करबटें बदलते बदलते, रात ढलती जाती है,
पिता की आंखों में बातें अनकही बस रहती हैं।
सयानी बेटी के विवाह की चिंता,
और बच्चों की तमन्नाओं की पूरी चाहत,
हर पल उसके मन में उठती और गिरती रहती है।

चाँद की ठंडी रोशनी में,
वह सोचता है—
कहाँ से लाऊँ खुशियों के लिए यह धन,
कहाँ से निभाऊँ जीवन की यह जिम्मेदारी?
बेटी की हँसी उसके दिल की धड़कन बन जाती है,
और बच्चों की मासूम चाहतें,
उसके सपनों का आधार।

हर करबट में उसका मन तड़पता है,
हर पल की नींद उसके लिए सवाल बन जाती है।
पर उसके चेहरे पर छुपी मुस्कान,
उसकी कठोर मेहनत की कहानी कह जाती है।
न जाने कितनी रातें ऐसे ही गुजर जाती हैं,
पर पिता का प्रेम—
ना थमता, ना कम होता।

करबटों की रातें उसके जीवन की किताब हैं,
हर रात में लिखी हुई चिंता,
हर पल में छुपी हुई आशा,
और हर नींद में जगी जिम्मेदारी।

आर्यमौलिक
===🌸===

15-✍️ जिज्ञासाओ की नज़रें
छोटी-छोटी आँखों में चमकते सवाल,
जैसे आसमान में छुपे अनगिनत तारे।
मिट्टी में खेलते, पत्थरों से बातें करते,
गरीब बच्चे हर अमीर की ओर झुकते हैं,
शायद कोई उनकी खामोशी को समझ ले।

रास्तों पर उगी धूल उनके पैरों को चुभती है,
लेकिन मन में सपनों का बगीचा हरा-भरा है।
हर टूटे खिलौने में नई कहानी बुनते हैं,
हर अधूरी किताब में अपने सवाल छुपाते हैं।

भूख की आग छाती में जलती है,
लेकिन उनकी जिज्ञासा की लहरें शांत नहीं होतीं।
“क्यों मुझे ये नहीं मिलता?”
वे चुपचाप अपने मन को सहलाते हैं।

खिड़कियों में झाँकते हैं,
जहाँ अमीर बच्चों की हँसी खिलती है,
हाथों में रंग-बिरंगे खिलौने,
किताबें, पेन और सुंदर सपने।
वे सोचते हैं—क्या कभी यह सब उनके पास भी होगा?

रातें लंबी, चाँदनी तनहा,
सपनों और हकीकत के बीच लहराती।
कभी किसी मुस्कान में उम्मीद तलाशते हैं,
कभी किसी ध्यान में अपना दुख छुपाते हैं।

वे सीखते हैं चुपचाप,
कभी मिट्टी में, कभी कागज पर।
हर गलती उनके मन को सिखाती है,
हर असफलता उनके हौसले को मजबूत करती है।

गरीबी की दीवारें ऊँची, कड़वी,
लेकिन जिज्ञासा की नज़रें उन्हें पार कर जाती हैं।
कभी अकेले, कभी साथियों में,
हर सवाल अपने उत्तर की तलाश में दौड़ता है।

उनकी आँखों की चमक, उनकी मासूमियत,
एक चेतावनी है दुनिया को—
कि ज्ञान और उम्मीद का कोई मूल्य नहीं,
लेकिन जिज्ञासा की आग कभी नहीं बुझती।

और एक दिन—
कोई मुस्कान, कोई हाथ थामे,
या खुद की मेहनत की सफलता में,
वे पाएँगे अपने उत्तर, अपनी दुनिया।

जिज्ञासा की नज़रें,
असली नायक हैं,
जो अंधेरों में भी रोशनी खोजती हैं,
जो हर टूटते ख्वाब में नई सुबह गढ़ती हैं,
जो हर गरीब बच्चे की मासूम आँखों में
विश्वास और उम्मीद का सूरज उगाती हैं।

आर्यमौलिक

===🌸===

16-✍️ आंखे
अंधा हूँ, पर बहरा नहीं,
महसूस करने की शक्ति मेरे भीतर प्रबल है।
उसकी हर मुस्कान की हल्की हवा,
उसके हर दर्द की अनकही धड़कन,
मैं जाने बिना देखे, सुन लेता हूँ।

हर रात उसकी रंग-रैलियों की,
सांझ-सवेरे की अनसुनी बातों की,
मैं परछाई बन कर उसके पास रहता हूँ।
अनभिज्ञ बन, उसकी दुनिया में खो जाता हूँ,
ताकि वह मुझसे कुछ भी न समझ पाए।

उसकी खुशियों की बारिश,
उसकी उदासियों की धूप,
मैं महसूस करता हूँ, बिना कहे, बिना देखे।
हर पल उसका संसार मेरे भीतर गूँजता है,
और मैं चुपचाप उस रहस्य में विलीन रहता हूँ।

अंधापन मेरी कमजोरी नहीं,
बल्कि मेरी गहराई का दरवाज़ा है।
मैं सुनता हूँ, मैं महसूस करता हूँ,
और हर रात उसकी दुनिया में,
एक अनजाना सा संगीत गूँजता हूं।

आर्यमौलिक
===🌸===

17-✍️ बलात्कार
कहीं खामोशी में पनपती हैं आँखे,
जो डर से मुस्कुराती हैं, छुपती हैं, रोती हैं।
कदम-कदम पर सावधानी की गाइड बुक,
पर समाज की दीवारें चुप हैं, सुनती नहीं।

कहाँ गई वो सुरक्षा की कल्पना,
जो हर स्त्री को अपनी थी।
अब बलात्कार नहीं बस अपराध,
बल्कि आमंत्रण बन गया है भय का।

शहर की रोशनी में भी अँधेरा घना,
हर कोने में कोई आंखें खोजती हैं बचाव।
मौन सड़कों पर चुप्पियों की गूँज,
आवाज़ें दब जाती हैं, पर हक की पुकार नहीं।

हमने बनाई हैं नियम, कानून, बयान,
पर कौन रोकता है नफ़रत की आग?
शिक्षा की मशाल जलानी होगी,
सम्मान की परिभाषा बदलनी होगी।

जब तक हर लड़की बिना डर के
सड़क पर चल सके, घर में सुरक्षित रहे,
तब तक यह आमंत्रण सिर्फ़ पन्नों में ही नहीं,
हकीकत में भी खत्म होना चाहिए।

आर्यमौलिक

===🌸===

18-✍️ मानवीया मशीन
आजकल इंसान
चलती फिरती मशीनरी बन गया हैं,
हर सुबह उसकी आँखें
घड़ी की सुई के साथ उठती हैं।

साँसें नहीं, बस समय की गणना,
दिल नहीं, बस रिपोर्ट का डेटा।
हँसी बिकती हैं मीटिंग रूम में,
आँसू छिप जाते हैं स्क्रीन के पीछे।

सूरज की किरणें अब सिर्फ रोशनी,
पर आत्मा की गर्मी नहीं देती।
हवा में उड़ती खुशबू,
उसके लिए सिर्फ रिफ्रेशमेंट ब्रेक।
पथिक बन गया इंसान,
मंज़िलों के नक्शे में खो गया।

चलती सड़कें, गूंजती आवाज़ें,
पर अंदर की दुनिया सुनसान।
मनुष्य, जो कभी सपनों में तरसता था,
अब सिर्फ टास्क की कतार में फँस गया।

हर दिन 24 घंटे का जाल,
हर पल की चोरी, हर ख्वाब दबा।
फिर भी कहीं दिल की गहराई में
एक छोटी ज्वाला झिलमिलाती है—
“तुम इंसान हो, मशीन नहीं,
याद रखो अपनी रूह की धड़कन।

रुक जाओ, सोचो, महसूस करो,
हँसो, रोओ, जीयो।
मुक़्त हवा में अपने पंख फैलाओ,
सिर्फ समय की सुई नहीं,
अपने सपनों की दिशा भी चुनो।”

आजकल इंसान
चलती फिरती मशीनरी बन गया हैं,
पर फिर भी,
अंदर कहीं उसकी आत्मा
जीने की राह तलाश रही हैं।

आर्यमौलिक
===🌸===

19-✍️ औरत की पहचान
हम औरत,
उसी को समझते हैं जो हमारे घर की हो,
जो हमारी हँसी में छुपी हमारी दुआओं को पढ़ सके।
बाकी सब? बस गोश्त की दुकान हैं हमारे लिए—
देखो तो सही, चमकते शीशों में टंगी हड्डियाँ,
मांस की महक में ढकी आवाज़ें,
जो कभी हमारे घर की मिट्टी की खुशबू नहीं पा सकती।

हमारी आँखों में वो औरत घर का पंखा,
हमारी तकलीफ में ठंडी छाँव,
हमारी मुस्कान में वह मीठा पानी,
और बाहर की औरत? सिर्फ़ नाम, सिर्फ़ दिखावा।
जैसे कोई शहर की गलियों में छिपा अजनबी सामान।

पर क्या यह न्याय है?
क्या सिर्फ़ घर का होना ही औरत को बनाता है औरत?
या समाज ने हमें सिखा दिया
कि बाकी सबको बस मांस के टुकड़े की तरह नापना है?
हम भूल गए हैं,
हर औरत की कहानी उसकी खुद की मिट्टी में उगती है,
हर हँसी, हर आँसू, हर आवाज़ अपना घर बनाती है।

हम औरत को समझते हैं…
पर क्यों, इस सीमा में,
क्यों हमने उसे सिर्फ़ घर तक सीमित कर दिया?
क्यों हर औरत गोश्त की दुकान बन जाती है
जब वह हमारे घर के बाहर होती है?

शायद, एक दिन हम देखेंगे,
हर औरत का अपना घर, अपनी पहचान,
और हम कहेंगे—
यह सिर्फ़ गोश्त की दुकान नहीं, यह जीवन है,
यह आत्मा है, यह औरत जननी है।

आर्यमौलिक

===🌸===

20-✍️ विरासत और संघर्ष
जिन्हें विरासत में मिला सब कुछ,
वे नहीं जानते मिट्टी की खुशबू,
न कोई धूप, न कोई छांव का एहसास,
सिर्फ सोने की चमक और रेशम का आस।

वे नहीं जानते उस मिट्टी की स्याही,
जिसमें खून-पसीना बनता है कहानी,
कदम-कदम पर जो काटती है राह कठिन,
और बनाती है मनुष्य को महान।

संघर्ष का स्वाद जो चखता है केवल वही,
जो टूटा, बिखरा, फिर भी खड़ा रहा,
जिसने अपनी हिम्मत से बनाया आसमान,
और पाया अपनी मेहनत का अंबर।

विरासत की छाया में जो पलते हैं,
वे नहीं समझते दर्द की गहराई,
न संघर्ष की मिठास, न धैर्य का बल,
सिर्फ पैसों की शोरगुल, और जीवन की आड़।

सच कहते हैं—जीवन वही सार्थक है,
जो मेहनत के दामन में खुद को पाता है,
विरासत नहीं, संघर्ष ही इंसान बनाता है,
और हर ख्वाब को हकीकत का रूप देता है।

आर्यमौलिक

===🌸===

21-✍️ स्याही से लिखें शब्द
अब स्याही से लिखें,
शब्द नहीं दिखते…
कागज़ पर उतरती हर लकीर
जैसे रूह के जख्मों का निशान।

कलम थक चुकी है,
हाथ काँपते हैं,
हर अक्षर जैसे डरता है
अपने दर्द से टकराने से।

सफेद पन्ने चीखते हैं,
स्याही की काली धाराओं में डूबकर,
और जो लिखा गया था कभी,
अब बस हवाओं में बिखरता है।

सपनों की किताबें सुनसान हैं,
हँसी की गूँज गुम है,
हर कहानी अधूरी रह गई…
शब्द अब सिर्फ यादों की परछाई बनकर
हमारे सामने खड़े हैं।

अब स्याही से लिखें,
शब्द नहीं दिखते…
बस दर्द की खामोशी शोर करती है,
और आँखें पूछती हैं—
क्या हम कभी पढ़ पाएँगे
जो खो गया है?

आर्यमौलिक

===🌸===

22-✍️ हाई सोसायटी 
मैंने सोचा था मेरी बेटी का घर स्वर्ग बनेगा,
उसकी आँखों के सपनों में उजाला चमकेगा।
पर ये चमक-दमक, ये ऊँचे दरवाज़े,
उसे निगल गए, जैसे कोई गहरी खाई।

बराबरी करने की चाह में मैं कर्ज़ से दब गया,
हाथ की लकीरों को बेचकर भी कुछ न पा सका।
जो ज़िंदगी सादगी में मुस्कुरा सकती थी,
वो दिखावे के बोझ तले कराहती चली गई।

मेरी बेटी—जिसे मैंने दुलार से पाला था,
आज किसी और की "शान" का गहना बना डाला।
उसकी हँसी, उसकी मासूमियत सब बिक गई,
हाई सोसायटी की चौखट पर उसकी अस्मिता तक गिर गई।

मेरे सीने पर हर दिन यह बोझ जलता है,
कि मैंने ही उसे उस अंधी भीड़ में धकेला था।
जहाँ रिश्ते सौदे हैं, औरतें सजावट,
जहाँ इज़्ज़त की कोई कीमत नहीं—सिर्फ़ खनकते सिक्के।

काश! मैं उसे सिखा पाता,
कि आसमान की ऊँचाई पैसों से नहीं मिलती,
और सच्ची खुशियाँ महलों में नहीं,
बल्कि अपनेपन के छोटे से घरौंदे में खिलती हैं।

आर्यमौलिक
===🌸===
क्रमशः