1-✍️ बीमार मन की स्मृतियाँ
बीमार मन की खिड़कियों पर
स्मृतियों की धूल जमी रहती है,
कभी कोई हंसी की आहट
उस धूल में उँगलियाँ फेर जाती है,
और कभी कोई रोष,
शांत कोनों में फफूँदी बनकर उग आता है।
स्मृतियाँ—
वे अधूरी कविताएँ हैं
जो लिखी तो गईं,
पर कभी पूरी न हो सकीं।
वे टूटे हुए सपनों की किरचें हैं
जिन पर चलते-चलते
मन के तलवे छिल जाते हैं।
बीमार मन जानता है
कि समय ही एक चिकित्सक है,
पर समय की दवा
धीरे-धीरे असर करती है—
मानो गहरे कुएँ में डाली
एक-एक बूंद पानी।
कुछ स्मृतियाँ
फफोलों जैसी हैं—
छूने पर दर्द देती हैं,
और कुछ,
जैसे बुझ चुकी अग्नि की राख
जो बस उँगलियों पर
धूसर निशान छोड़ जाती है।
बीमार मन फिर भी
इन स्मृतियों को संजोए रहता है,
मानो रोग ही उसकी पहचान हो,
मानो दर्द ही
उसके भीतर की अंतिम भाषा हो।
आर्यमौलिक
===🌸===
2-✍️ रुमानी यादों के पल
धूप से छनकर आई कोई नर्म रोशनी,
जैसे तुम्हारी हंसी का आख़िरी कतरा अब भी दिल में बस गया हो।
पुरानी गलियों की हवा में,
तेरे कदमों की सरसराहट आज भी सुनाई देती है।
वो शामें—जहाँ वक्त रुकना चाहता था,
और चाँद हमारी ख़ामोशी को तराशता था।
कभी पत्तों पर जमी ओस-सी मुस्कान,
कभी आँखों में झील-सा सुकून।
रुमानी यादों के ये पल
काग़ज़ पर बिखरे शब्द नहीं,
ये तो धड़कनों के भीतर छिपे
अनकहे अफ़साने हैं।
कभी लगता है—
वो मौसम लौट आएगा,
तेरा हाथ फिर से हथेलियों में होगा,
और ज़िन्दगी अपनी ग़ज़ल को
तेरे नाम से पूरा करेगी।
पर हकीकत जानती है—
ये पल लौटते नहीं,
बस दिल के आइने में
हमेशा चमकते रहते हैं,
जैसे कोई तारा
अंधेरी रातों को भी रुमानी बना देता है।
आर्यमौलिक
===🌸===
3-✍️ आवेशित
मन का दरिया जब सीमा तोड़ देता है,
तो शब्द भी तलवार बन जाते हैं।
विचारों की बिजली कड़क उठती है,
और भावनाएँ अंगारों-सी बरस जाती हैं।
आवेशित आत्मा—
मानो ज्वालामुखी हो,
जो वर्षों से दबे लावे को
एक ही क्षण में फटकार देती है।
ये आवेश सिर्फ क्रोध नहीं,
ये तो न्याय का पुकारा हुआ स्वर है,
अन्याय के अंधेरों में
सत्य का जलता हुआ दीप है।
आवेशित मन
विद्रोह की शपथ है,
जो असमानता को ठुकरा कर
स्वाभिमान की राह चुनता है।
जब हृदय आवेशित होता है—
तो डर कांप उठता है,
और समय के दर्पण में
नया इतिहास लिखा जाता है।
आर्यमौलिक
===🌸===
4-✍️ डूबता चाँद
धीरे-धीरे उतरता है क्षितिज की बाहों में,
जैसे कोई रहस्य
धीरे से रख दिया हो समय की थाली पर।
उसकी रोशनी,
अब फीकी पड़ती ज्यों बीते प्रेम की स्मृतियाँ,
धुँधलाते हुए आकाश में
अधूरे वादों की परछाइयाँ छोड़ जाती है।
नदी की लहरें
उसके उतरते क़दमों को छूना चाहती हैं,
पर वह,
मानो थका हुआ पथिक,
अपनी ही थकान में समाता चला जाता है।
डूबता चाँद
सिर्फ़ रात का अंत नहीं,
यह स्मरण है—
कि हर उजाला
कभी न कभी अँधेरे की गोद में
सुकून पाता है।
आर्यमौलिक
===🌸===
5-✍️ पर्व की आड़ में
पर्व की आड़ में जगमगाते दीप,
माँ की आरती के संग उठते हैं गीत।
पर भीतर छिपी है एक काली छाया,
जहाँ भक्ति नहीं, बाजार सजाया।
गरबा—जो माँ शक्ति का नृत्य था,
अब देह का व्यापार सा चित्र हुआ।
ताल और थाप में जब भक्ति डोले,
तो क्यों यहाँ अश्लीलता के शोले?
भोली-भाली लड़कियाँ, मासूम दिल,
प्रेम की चकाचौंध में जातीं हैं फिसल।
मिलन की आस में छोड़तीं मर्यादा,
फँस जातीं झूठे रिश्तों की बाधा।
यहाँ तक कि सुहागिनें भी लुट गईं,
संस्कार की डोरियाँ टूट गईं।
घर-परिवार छोड़ भटकतीं राहें,
छल के दंश में बुझतीं चाहें।
क्या यही है पर्व की पावन निशानी?
क्या यही है शक्ति की सच्ची कहानी?
या फिर ये समय का विकृत बहाव है,
जहाँ पर्व भी बाज़ार का दांव है।
हे माँ!
तेरे नाम पर हो रहा जो व्यापार,
उस पर बरसा दे तू अपने तेज़ की धार।
लौटा दे समाज को पावन पहचान,
फिर गूँजे धरती पर सच्चा जय-गान।
आर्यमौलिक
===🌸===
6-✍️ कपड़ों में नंगे लोग
कपड़ों के भीतर झाँको तो,
सिर्फ़ धागों का जाल नहीं है,
वहाँ छिपा है एक शून्य,
जिसे सभ्यता ने ढकने की चेष्टा की है।
ये रेशमी कुरते, ये ऊँचे गिरेबान,
सिर्फ़ आडंबर की परतें हैं—
भीतर से लोग उतने ही निर्वस्त्र हैं
जितने एक पथरीली गुफ़ा में खड़े मूर्तिहीन पत्थर।
चेहरे पर नकाब, आँखों में धुँधलका,
होठों पर मुस्कुराहट की पॉलिश;
पर आत्मा—नंगी,
लालच और छल से चिपकी हुई।
कपड़ों से ढका शरीर
मानो सम्मान का प्रतीक बने,
पर विचार और कर्म
हर दिन निर्वसन होकर
बाज़ार में बिकते नज़र आते हैं।
ओह, ये कपड़ों में नंगे लोग!
कितना आसान है इन्हें पहचानना—
जहाँ झूठ की सिलवटें हों,
जहाँ कपड़े चमकें और अंतरात्मा धूल से सनी हो।
नग्नता शरीर की नहीं,
नग्नता तो मन की है;
कपड़ों में लिपटे ये लोग
असल में सबसे अधिक उघड़े हुए हैं।
आर्यमौलिक
===🌸===
7-✍️ बिखरी हुई मोहब्बत
बिखरी हुई मोहब्बत का रंग
जैसे अधूरी तस्वीर में सूखे हुए रंग,
जहाँ ब्रश तो चला, पर स्ट्रोक अधूरा रह गया,
जहाँ नाम तो लिया गया, पर दिल तक पहुँचा नहीं।
ये मोहब्बत अब धूप में पड़े
फटे पुराने खत जैसी लगती है,
जिसके अक्षर धुंधले हैं,
पर उनमें छुपा दर्द अब भी जलता है।
हर स्मृति के कोने से उठती है धूल,
जैसे किसी ने किताब अचानक बंद कर दी हो,
पर हवाओं में बिखरे पन्नों की आहट
अब भी रातों को बेचैन करती है।
बिखरी हुई मोहब्बत सिर्फ़ जुदाई नहीं होती,
ये उम्मीदों का टूटा हुआ आईना भी है—
जहाँ चेहरा दिखता तो है,
पर पहचान धुँधली हो चुकी होती है।
और हम...
उसी आईने के टुकड़ों में
अपनी आँखों का खून देखते रहते हैं,
सोचते रहते हैं—
क्या कभी कोई हाथ आएगा,
जो इस बिखरेपन को फिर से जोड़ सके?
आर्यमौलिक
===🌸===
8-✍️ लुटा हुआ लवर
वह लवर, जो दिल का ताज पहनकर चला था,
सपनों की गलियों में चाँदनी चुनने निकला था।
उसकी आँखों में हसरतों के दीप जलते थे,
पर किस्मत के तूफ़ान में सब बुझ गए।
वह लवर, जो वादों की पनाह में जीता था,
जिसके होंठों पर दुआओं का सिलसिला था,
उसके हाथों से मोहब्बत की थाली छिन गई,
और ज़ख़्म की रोटी रोज़ उसे खिलाई गई।
वह लवर, जिसने दिल को मंदिर बना डाला,
उसमें इश्क़ को ईश्वर की तरह बसा डाला,
मगर लौटकर मिली सिर्फ़ तन्हाई की आरती,
और टूटे हुए ख़्वाबों की बेरहम प्रार्थना।
वह लवर, अब सड़कों पर आवारा धड़कन-सा है,
जिसकी नब्ज़ में ठंडी राख बहती है,
लुटा हुआ है—पर हार कर भी जिंदा है,
क्योंकि मोहब्बत का मरना, मौत से भी मुश्किल है।
आर्यमौलिक
===🌸===
9-✍️ कागज पर शब्दों का खेल
सफेद पृष्ठ पर बिखरे अल्फाज़,
जैसे सितारे रात में झिलमिलाए।
कलम की नोक से उड़ते ख्याल,
हर वाक्य में जीवन मुस्कुराए।
शब्द नाचते हैं, खेलते हैं,
कभी छुपते हैं, कभी चमकते हैं।
प्यार की आग, दर्द की बारिश,
हर अक्षर में भावों का जादू दमकते हैं।
कागज की सीमाओं को तोड़कर,
हर कहानी उड़ती आकाश में।
हर लकीर, हर ठोकर, हर विराम,
एक संगीत बनकर हृदय में बसता है।
यह खेल नहीं, यह जादू है,
जहाँ शब्द बनते हैं हमारे साथी।
और जब आखिरी अक्षर भी मुस्कुराए,
तो लगता है—कागज ने ज़िन्दगी की कहानी कह दी।
आर्यमौलिक
===🌸===
9-✍️ मर्यादा और औरत
नारी—वह अनकही कविता,
जिसके शब्द हवा में घुलकर स्वर बन जाते हैं।
उसकी आँखों में बसे हैं अनगिनत सपनों के दीप,
और उसकी मौन मुस्कान, समय की धाराओं को रोक देती है।
मर्यादा—वह अनदेखा किनारा,
जहाँ उसके कर्मों की चुप्पी गूंजती है,
जहाँ उसकी मेहनत, उसकी आहें,
और उसकी शान, बिना शब्दों के कविता बन जाती है।
उसके कदम धरती को छूकर भी आकाश को ढूँढते हैं,
उसकी आत्मा की गहराई में छुपा है संघर्ष और स्नेह का महासागर।
वह आँधियों में भी स्तब्ध नहीं होती,
बल्कि हर तूफान को अपनी मौन शक्ति से सजग करती है।
नारी—वह जीवन की संवेदनशील धारा,
वह अज्ञात बहार जो निरंतर खिलती है,
मर्यादा उसका कवच है, परन्तु उसका साहस उसकी तलवार।
औरत—वह अमूल्य धरोहर,
जिसके बिना सृष्टि का संतुलन अधूरा है,
जिसके बिना प्रेम, जीवन और विश्वास अधूरा है।
आर्यमौलिक
===🌸===
10-✍️ जन्मदिन का सत्य
जन्मदिन कोई उत्सव नहीं,
यह तो समय की खामोश घंटी है,
जो हर साल कानों में फुसफुसाती है—
"सफर का एक पड़ाव और बीत गया।"
हम लोग इसे रेशमी परदों में ढकते हैं,
मोमबत्तियों की लौ से अपनी क्षीण होती सांसें छिपाते हैं।
केक काटते हुए हँसते हैं,
पर काटा तो वही "एक और दिन" है
जो जीवन की थाली से कम हो गया।
क्या विचित्र विरोधाभास है—
जन्म के दिन हम मृत्यु की ओर पहला कदम रखते हैं,
फिर भी उसी दिन पर नकली हर्षोल्लास लुटाते हैं।
कुछ लोग तो इस दिन भी भूखे पेट सो जाते हैं,
जिन्हें न मोमबत्ती न केक,
बस रोटी की तलाश ही उनका जश्न बन जाती है।
उनके लिए जन्मदिन कोई स्मृति नहीं,
बल्कि निरंतर संघर्ष का प्रतीक है।
और देखो,
समाज ने जन्मदिन को प्रदर्शन बना दिया है,
जहाँ उपहार से ज्यादा तस्वीरों का महत्व है,
जहाँ शुभकामनाओं से ज्यादा
सोशल मीडिया की गूँज मायने रखती है।
पर सत्य इससे भी गहरा है—
हर जन्मदिन हमें यह याद दिलाने आता है
कि हम स्थायी नहीं,
कि जीवन नदी की तरह बह रहा है
और हर मोड़ पर हमें
अनंत की ओर समर्पित होना है।
जन्मदिन का वास्तविक अर्थ शायद यही हैं
अपने भीतर झाँकना,
देखना कि एक और वर्ष घटने के बाद
हमने क्या पाया और क्या खोया।
क्योंकि अंततः,
केक की मिठास नहीं,
बल्कि आत्मा की पवित्रता ही
जीवन को अर्थ देती है।
आर्यमौलिक
क्रमशः-