Curse Yatra - 3 in Hindi Mythological Stories by tavish books and stories PDF | श्रापयात्रा - 3

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श्रापयात्रा - 3

योग कक्षा का दृश्
योग शिक्षा के समय, सभी शिष्य ध्यान में बैठे थे।
तभी एक लड़का — नीर — चुपके से गुरु निरंजन की नकल करता है,
और कुछ शिष्य हँसी में फूट पड़ते हैं।
अग्नि, एक अन्य शिष्य, शांत और नियमित लड़का, उसे घूर कर देखता है...
अग्नि (तेज़ आँखों से):
“योग समय में ऐसा बचपना उचित नहीं।”
नीर (मुस्कुराते हुए):
“अरे तुम तो चुप ही रहो अग्नि! कभी मस्ती भी किया करो।
तुम तो बस नियम नियम करते रहते हो, एक दिन गुरुदेव जैसे बन जाओगे!”
अग्नि चुप रहता है... बस उसकी आँखों में दिशा है
तभी गुरु निरंजन कठोर स्वर में बोलते हैं:
“योग में शांति होनी चाहिए, शोर नहीं! सभी कक्षा में जाओ!”
सभी छात्र:
“प्रणाम आचार्य!”

📚 शास्त्र ज्ञान कक्षा
आचार्य मनु कक्षा में प्रवेश करते हैं।
"बताएँ कौन है जो मेरे प्रश्न का उत्तर दे सकता है?"
नीर फिर से कुछ कहता है चुपके से...
और गोपाळ तुरंत उसकी शिकायत कर देता है:
गोपाळ:
“आचार्य, नीर ही आपकी नकल कर रहा था!”
आचार्य मनु:
“खड़े हो जाओ नीर!”
नीर हँसते हुए खड़ा होता है।
आचार्य मनु प्रश्न पूछते हैं:
“यदि कोई निर्दोष ब्राह्मण राजद्रोही दिखाई दे, तो राजा क्या करे?”
नीर:
"यदि ब्राह्मण निर्दोष हो, तो उसे चुपके से वनवास दे दे।
राजा का काम बदला लेना नहीं, रक्षा करना है।
अगर वो दोषी भी हो, तो ईश्वर उसका दंड तय करेगा।"
आचार्य सिर हिला कर कहते हैं:
“तुम्हारा उत्तर भावनात्मक था... पर अब अग्नि उत्तर दे।”
अग्नि:
"राजा को निर्दोष और दोषी में भेद करना चाहिए,
और यदि ब्राह्मण दोषी सिद्ध हो, तो धर्मशास्त्र के अनुसार दंड मिलना चाहिए — वर्ण के आधार पर नहीं।"
आचार्य प्रसन्न होते हैं।
पर नीर को दंड देते हैं:
“नीर, तुम्हारी शिक्षा में उचित व्यवहार नहीं था —
तुम्हें आज पूरे शास्त्रालय की सफ़ाई का कार्य दिया जाता है।
अग्नि, तुम नज़र रखना। अगर कोई भी चूक हो, तो मुझे सूचित करना।”
अग्नि:
“जो आज्ञा आचार्य...”
🏛️ गुरुकुल — दोपहर का समय | नीर और अग्निव्रत कक्षा की सफ़ाई करते हुए
नीर (धीरे से, आँखें ज़मीन पर टिकी हैं):
"अब बताओ... क्या मेरा उत्तर ग़लत था?
क्या एक मनुष्य को दिल से किसी की भावनाओं का ख़याल नहीं रखना चाहिए?"
(अग्निव्रत कुछ नहीं कहता – बस शांत खड़ा रहता है, उसकी आँखें नीर के चेहरे पर टिकी होती हैं। जैसे शब्दों से नहीं, दृष्टि से उत्तर देना चाहता हो।)
नीर (हल्की मुस्कान के साथ, थके हुए स्वर में):
"चलो... कक्षा की सफ़ाई तो हो गई। अब जाकर थोड़ा विश्राम करूँगा।"
नीर मुड़कर जाने लगता है, लेकिन तभी अग्निव्रत भी कुछ कहने के लिए आगे बढ़ता है। तभी…
नीर (अचानक मुड़कर, अग्नि का हाथ पकड़ते हुए):
"रुको!"
(अग्निव्रत रुकता है – और धीरे–धीरे मुड़ता है। दोनों की नज़रें एक दूसरे से टकराती हैं। उस पल में वक़्त थम सा जाता है। अग्नि की आँखों में स्थिरता है,नीर की आँखों में तूफ़ान।)
नीर (आँखों में पीड़ा, होठों पर हल्का व्यंग्य):
"तुम ख़ुद को बहुत महान समझते हो ना?
क्या मेरा उत्तर इतना ग़लत था कि आचार्य ने मुझे दंड दे दिया?
(हल्की हँसी के साथ) ख़ैर… तुम क्या समझोगे…
तुम तो बस अपने गुरु के चमचे हो, उनका हर शब्द गीता का श्लोक लगता है तुम्हें।
कभी किसी के जज़्बात समझे हैं तुमने?
तुम्हारे पास दिल है भी या नहीं?
कभी मुस्कुराते हो? हँसते भी हो कभी?
नहीं ना… क्योंकि तुम सिर्फ़ नियमों के बने हो… भावनाओं से नहीं।"
(वह धीरे से उसका हाथ छुड़ाता है। कुछ पल तक अग्नि उसकी आँखों में देखता रहता है – जैसे कुछ कहना चाहता हो, पर शब्दों में बाँध नहीं पा रहा।)
नीर (मुँह फेरते हुए):
"ठीक है… जाओ यहाँ से।"
(नीर तेज़ क़दमों से वहाँ से चला जाता है। अग्नि सिर्फ़ उसे जाते हुए देखता है – नज़रों में एक अनकहे रिश्ते की कसक, जिसे वह ख़ुद भी समझ नहीं पा रहा। फिर बिना कुछ कहे, अपने कक्ष की ओर चला जाता है।)
...रात्रि का समय...
नीर धीरे-धीरे अपने कदम बढ़ाता है, गुरुकुल के नियमों की अवहेलना करता हुआ, चुपचाप पहरियों की दृष्टि से बचकर रात्रि के अंधकार में गुरुकुल की सीमा के बाहर निकल जाता है। कुछ ही क्षणों में जब वह लौटता है, तो सामने अग्निव्रत खड़ा होता है।
अग्निव्रत (कठोर स्वर में):
कहाँ से आ रहे हो इस समय, नीर? क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि रात्रि में गुरुकुल से बाहर जाना निषिद्ध है? तुमने नियमों का उल्लंघन किया है।
नीर (हँसते हुए, व्यंग्य से):
तो? तुमने आज तक कभी नियम नहीं तोड़े होंगे, है ना? अरे मैं तो भूल ही गया था कि तुम तो आचार्य के सबसे प्रिय शिष्य हो — नियमों के बने-बनाए, अग्निव्रत। तुमसे तो नियम टूट ही नहीं सकते।
खैर, मुझे तो जब मन करे तब बाहर जाना अच्छा लगता है। देखो न, पहरेदारों को पता तक नहीं चला कि मैं कब बाहर गया और कब लौट आया। और सुनो... अब मैं हर रात जाऊँगा।
(नीर उसकी आँखों में देखकर मुस्कुराता है)
कहीं तुम जलते तो नहीं मुझसे? कि मैं जहाँ चाहता हूँ, जा सकता हूँ... और तुम अपने नियमों की जंजीरों में जकड़े रह जाते हो?
(अग्निव्रत की आँखों में क्षणभर के लिए क्रोध की चिनगारी चमकती है। अचानक, वह तलवार खींचता है और नीर पर वार करता है।)
(नीर झुककर वार बचा लेता है)
अरे अरे, तुम तो सचमुच क्रुद्ध हो उठे!
(अग्निव्रत एक कदम और आगे बढ़ता है और फिर से प्रहार करता है, नीर फुर्ती से बचता है और इस बार अपनी तलवार से पलटवार करता है।)
कुछ क्षणो तक दोनों के बीच तलवारों की झनझनाहट गूँजती है। फिर...
(अग्निव्रत अपने अग्नि-तत्त्व का प्रयोग करता है और नीर पर आक्रमण करता है।)
(नीर झुककर बचता है, लेकिन समीपवर्ती एक कुटिया में आग लग जाती है।)
(नीर तत्क्षण अपने जल-तत्त्व से जलती कुटिया की आग बुझा देता है। फिर वह अपने जलीय तत्त्व से बर्फ के बाण बनाकर अग्निव्रत की ओर फेंकता है, परंतु अग्निव्रत अपनी ज्वाला से उन्हें हवा में ही पिघला देता है।)
धीरे-धीरे दोनों इस युद्ध में इतने खो जाते हैं कि आत्म-नियंत्रण खो बैठते हैं। तभी...
धाराया (गंभीर स्वर में):
बस!
(वह अपनी पृथ्वी-तत्त्व से दोनों के बीच एक पत्थर की दीवार खड़ी कर देती है।)
धाराया:
तुम दोनों ये क्या कर रहे हो इतनी रात को? यदि किसी ने देख लिया, तो तुम्हें गुरुकुल से निष्कासित कर दिया जाएगा!
नीर (बच्चे की तरह शिकायत करता हुआ):
देखो न, धाराया! इसी ने मुझे उकसाया था युद्ध के लिए।
अग्निव्रत (शांत स्वर में, लेकिन कठोर दृष्टि से नीर को घूरते हुए):
धाराया, तुम जाओ। मैं भी अपने कक्ष में लौट रहा हूँ
(अग्निव्रत, नीर की ओर गहरी दृष्टि डालता है और मौन में वहाँ से चला जाता है।)
(नीर मुस्कुराता है, मानो उसे किसी तरह की संतुष्टि मिली हो, और वह भी अपने कक्ष की ओर बढ़ जाता है।)
(धाराया अपनी पृथ्वी-तत्त्व से बनी दीवार को भूमि में समा देती है और चिंतित मन से अपने कक्ष की ओर लौट जाती है।)




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