समन्वय के साथ खुले स्मृति --- गवाक्ष
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स्नेहिल नमस्कार मित्रो
साहित्यालोक का नाम सामने आते ही न जाने कितनी कितनी स्मृतियाँ जुड़ने लगती हैं । कभी ऐसा भी होता है कि वे स्मृतियाँ एक काफ़ी पुरानी रील की भाँति मस्तिष्क के कोनों में से निकल ठीक मध्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगती हैं और हम उन्हें पुरानी फिल्म की ऐसी बंद रील की तरह आँखें गड़ाए देखते रहते हैं जो न जाने कब से डिब्बे में बंद हो और उसका प्रिन्ट खराब हो गया हो लेकिन मन उसे देखे बिना नहीं मानता, आँखें पूरी तरह भी न खुलकर खुली रखने की चेष्टा में फटने को तैयार रहती हैं ।
साहित्यालोक के शैशव काल से इस संस्था से जुड़ी मैंने इसके प्रत्येक सदस्य में परिवार महसूस किया है। स्नेह, प्यार, सम्मान को समर्पित यह संस्था बड़े भाई समान आ. स्व. रामचेत वर्मा जी की स्मृति न करा दे या दूसरे बड़े भाई डॉ. स्व.किशोर काबरा जी का स्मरण न कराए, यह संभव नहीं है ।
1968 में विवाह के पश्चात् दो माह देहरादून जाकर गुजरात में आकर जमना प्रारब्ध का हिस्सा ही रहा होगा। मेरे गुजरात में आने से पूर्व ही 1967 में इस संस्था का जन्म हो चुका था । उन दिनों किसी से परिचय नहीं था, गुजराती भाषा समझ नहीं आती थी, अंग्रेज़ी में पोस्टग्रेजुएशन करते- करते ही विवाह हो गया और एक अनजाने प्रदेश में आ पहुँची ।
हिन्दी के नाम पर कोई ऐसा नहीं मिला जिससे कला, साहित्य की चर्चा हो सकती, संवाद ही हो पाता । गृहस्थी पूरी हो चुकी थी, बच्चे बड़े होने लगे फिर उदासी मन में भरने लगी तब दिया संबल गुजरात विद्यापीठ ने जहाँ हिन्दी में पोस्टग्रेजुएशन, एम. फ़िल, पीएचडी किया। पाँच वर्ष वहाँ रहने से एक दायरा बनना शुरू हुआ और मज़े की बात --आकाशवाणी गुजरात विद्यापीठ के निकट होने से हिन्दी कार्यक्रमों में निमंत्रण मिलने लगे । उन दिनों मनुज जी आकाशवाणी के स्टेशन डायरेक्टर होकर आए थे और डॉ.नागर जी के पास विद्यापीठ में आते-रहते थे । खूब याद है, एक बार आ. डॉ. किशोर काबरा जी आकाशवाणी में मिल गए, मैं पी. एचडी कर रही थी और काबरा जी विद्यापीठ में अपने गुरु आ. डॉ.अंबा शंकर नागर जी के पास आया करते थे जिन्होंने गुजरात विश्वविद्यालय से निवृत्ति के पश्चात् गुजरात विद्यापीठ में हिन्दी भवन में एक हिन्दी का वातावरण तैयार किया था जहाँ हम जैसे लोग जुड़ने लगे थे। वहाँ से हमारा परिचय था ही !
मेरे पति श्री ललित मोहन श्रीवाल ने काबरा जी से मेरे बारे में कहा कि मैं न जाने क्यों बेचैन रहती हूँ काबरा जी ने तुरंत उत्तर दिया कि बहन को प्रसव वेदना है, इन्हें समय दीजिए कि कुछ पढ़ें, लिखें। विद्यापीठ में तो थी ही फिर भी छोटे बच्चों के कारण, घर-गृहस्थी व पढ़ाई के कारण अपने लिए समय निकाल पाना मुश्किल था। वैसे ही बहुत बिखरी हुई सी थी । गृहस्थी में कभी रही नहीं, काम से थक जाती।
उस दिन बातों ही बातों में मैंने बताया कि शादी होकर आई तब से कोई साहित्यिक मित्र नहीं मिले। काबरा जी ने पूछा क्या उन दिनों मैं कुछ लिख रही थी? अवसर की बात है, मेरा उपन्यास 'टच मी नॉट' तभी पूरा हुआ था जो मैंने बच्चों को पालने की प्रक्रिया में लिखा था । काबरा जी ने कहा कि उन्हें दिखाऊँ। हम उन्हें घर ले आए जो पास ही था । घर में मैंने उन्हें वह उपन्यास दिखाया, पद्य -लेखन के बारे में वे परिचित थे । उन्होंने कहा कि मैं साहित्यलोक से क्यों नहीं जुड़ जाती? घर से काफ़ी दूर था लेकिन मोह ने दूर जाने का भी मन बना ही दिया।
उस समय संस्था में मुश्किल से 8/10 कविता-प्रेमी जुड़े होंगे । रामचेत वर्मा जी बहुत सरल व स्नेही थे,उन दिनों साहित्यालोक के अध्यक्ष थे, खादी ग्रामोद्योग में कार्यरत थे । उन दिनों मोबाइल्स तो होते नहीं थे,घर पर लैंड लाइन थी। वे अक्सर प्रतिदिन ही जब काम पर आते, फ़ोन करके खोज-खबर लेते । समयानुसार बदलाव आते रहे, काफ़ी लोग जुडते रहे। कई नवयुवक उन दिनों जुड़े जो आज तक जुड़े हैं और बहुत परिपक्व लेखन कर रहे हैं जिनमें चंद्रमोहन तिवारी, रितेश त्रिपाठी आदि का नाम गर्व से लिया जा सकता है ।
उन दिनों मुझे कई वरिष्ठ कवि-मित्रों का सानिध्य प्राप्त हुआ जिनमें आ. वर्मा जी, काबरा जी. जैन साहब, गीतों के राजकुमार कहलाने वाले डॉ. द्वारिकप्रसाद साँचिहर जो कई वर्षों से अस्वस्थ हैं, उन्हें कैसे विस्मृत किया जा सकता है ? प्रसन्नता का विषय है कि भट्ट भाई को उनके अंतरंग प्रसिद्ध गुजराती कवि मित्र श्री कृष्ण दवे ने अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित की हैं तो आ. प्रो. भगवानदास जैन जी ने भी उनको अपने आशीर्वचनों से नवाज़ा है । । आनंद है कि मैं उस समय से जुड़कर आज भी इसी परिवार से जुड़ी हूँ, जा पाना अधिक संभव नहीं हो पाता । एक समय ऐसा था कि मैं समय न मिलने पर भी माँ शरदा की स्तुति करके वापिस आ जाती थी ।
वर्तमान में डॉ. ऋषिपाल धीमान संस्था की अध्यक्षता करते हुए संस्था का कार्यान्वयन संभाल रहे हैं । इतनी पुरानी यह एक संस्था ही नहीं है, एक संपूर्ण संस्थान है जिसमें गज़ल,गीत सीखने, लिखने का अवसर सबको मिलता है। आ. जैन साहब ने बहुत से नवांकुरों को गज़ल कहनी सिखाने के शुरुआती दौर को संभाला जिसका सिरा कई वर्षों से डॉ. ऋषि पाल धीमान के हाथों में है। अपनी सेवा निवृत्ति के बाद आप संस्था व ग़ज़ल सीखने वालों के प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित हैं ।
हरिवदन भट्ट भाई संस्था के बहुत उत्साही सदस्यों में से हैं जो गुजराती-भाषी होते हुए भी अपनी हिन्दी के प्रेमी हैं। एक गुजराती हास्यकवि के लिए परिपक्व गज़लों का अनुवाद कितना श्रम साध्य रहा होगा ! मेरे लोकार्पण पर न पहुँचने के बावज़ूद भी भट्ट भाई ने यह संग्रह 'समन्वय' घर पर पहुंचा दिया । भट्ट भाई आपके प्रति कृतज्ञ हूँ । मेरा अति स्नेहिल साधुवाद आपको ! व आपकी प्रिय जीवन-संगिनी यानि प्रेम से लड्डू खिलाने वाली हमारी भाभी को भी !
अनुवाद का काम कोई सहज,सरल कार्य तो है नहीं किन्तु आपकी लगन और सहज ,सरल प्रकृति के विवेक ने इस महती कार्य को मित्रों के,विशेषकर संस्था के वर्तमान अध्यक्ष डॉ. धीमान के सहयोग ने सुंदर आकार में प्रस्तुत कर ही दिया। मुझे लगता है इस प्रकार का यह पहला काम गुजरात के इस सम्मानीय संस्थान के माध्यम से प्रस्तुत हुआ है । स्व. रामचेत वर्मा जी, स्व, डॉ. किशोर काबरा को समर्पित किए गए इस द्विभाषी गज़ल-संग्रह में डॉ .ऋषि पाल धीमान, प्रो. भगवानदास जैन, श्री ऋतेश ,श्री संजीव प्रभाकर, तौफ़िक भाई लाईट वाला,श्री विजय तिवारी, डॉ. एल. जे. भागिया,श्री वसंत ठाकुर, श्री कुमार आत्मप्रकाश जी की गज़लों को गुजराती में भावानुवाद से समृद्ध किया गया है । मुझे लगता है कि यदि साँचिहर की उपस्थिति भी इसमें होती तो उनके लिए एक सुखद स्थिति हो सकती थी ।
एक बात बड़ी प्यारी लगी जिसने भट्ट भाई के सरल सहज स्वभाव को मन के भीतर तक' एक अमूल्य एहसास से भिगो दिया, वह है मूल्य के स्थान पर 'अमूल्य साहित्य प्रीति'
भट्ट भाई आपने इस 'समन्वय' को मुझ तक पहुंचाकर अपना स्नेह मुझे प्रेषित किया है । इसके बहाने मैंने कितने अपने स्नेहियों व घटनाओं को याद कर लिया है। आपका हृदय से धन्यवाद ! माँ वीणापाणि आपकी एक अलग शिद्दत से तैयार की गई इस प्रथम को खूब प्रसिद्धि दिलाएं, इतनी कि शीघ्र ही पाठक-मित्र दूसरी पुस्तक के अने की प्रतीक्षा करें ।
मुझे इस कार्यक्रम में न पहुँचने का बहुत खेद है, अब लगता है कि साहस कर ही लेना चाहिए था । खैर, अब तो देरी हो ही गई । देखते हैं कब अपने परिवार साहित्यलोक के दर्शन हो पाते हैं । शीघ्र ही मिलने की आशा व इच्छा सहित
सस्नेह
साहित्यलोक की अपनी
डॉ. प्रणव भारती