एपिसोड 3 : दोस्ती की शुरुआत
अस्पताल की रफ़्तार हमेशा तेज़ रहती थी। सुबह से ही मरीजों की भीड़, prescriptions की लंबी लिस्ट और दवाइयों का हिसाब… अर्जुन का पूरा दिन इन्हीं सब में निकल जाता था। मगर फिर भी, जब भी उसे पाँच-दस मिनट का वक्त मिलता, वह कैंटीन की ओर निकल पड़ता।
शुरू में तो वह सिर्फ़ चाय पीने आता था, लेकिन धीरे-धीरे उसे अपनी नज़रें प्रथा की ओर जाती हुई मिलतीं।
प्रथा भी अब थोड़ी सहज हो गई थी। पहले जितनी चुप-चुप रहती थी, अब कभी हल्की सी मुस्कान दे देती, कभी casually पूछ लेती—
“आज फिर बहुत भीड़ थी क्या फार्मेसी में?”
अर्जुन हँसकर जवाब देता,
“भीड़ तो रोज़ रहती है, लेकिन तुम्हारे यहाँ की चाय के बिना patients से डील करना और मुश्किल हो जाता है।”
प्रथा ने पहली बार मज़ाक में कहा,
“तो इसका मतलब मेरी चाय तुम्हारी दवा से भी ज़्यादा काम करती है?”
अर्जुन ने मुस्कराकर सिर हिलाया,
“कुछ ऐसा ही समझ लो।”
उस हल्की-फुल्की बातचीत ने दोनों के बीच एक अलग ही comfort बना दिया।
दोपहर का वक्त था अस्पताल भीड़भाड़ और हड़बड़ी से भरा हुआ था। कैंटीन में एक साथ कई orders तैयार हो रहे थे।
प्रथा जल्दी-जल्दी plates और tray उठाकर serve कर रही थी। अचानक उसके हाथ से एक tray फिसलने लगी।
तभी पास से गुजर रहे अर्जुन ने फुर्ती से tray पकड़ ली।
“Be careful, Pratha! इतनी जल्दी मत करो, वरना सब गिर जाएगा,” उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
प्रथा थोड़ी शर्मिंदा होकर बोली,
“धन्यवाद, Arjun। आज तुमने सम्भाल लिया।”
अर्जुन ने tray टेबल पर रखते हुए कहा,
“कोई बात नहीं। धीरे-धीरे सब संभल जाएगा। मैं हमेशा मदद के लिए हूँ।”
प्रथा ने हल्की मुस्कान दी और फिर काम में लग गई, लेकिन दिल में एक अजीब सा भरोसा महसूस हुआ।
Pratha अपना सारा काम निपटकर lunch break में अकेले खाना खा रही थी तभी वाहा अर्जुन आया और बोला :
अगर तुम्हे कोई परेशानि ना हो तों आज lunch साथ मे करे l प्रथा ने थोड़ी हिचकिचाहट दिखाई। उसने हल्का सा सिर झुकाया और बोली,
“अभी… ठीक है”
अर्जुन ने राहत भरी मुस्कान दी l
और lunch break में उनकी बातों का सिलसिला शुरू हुआ l
Arjun ने casually पूछा,
“वैसे Pratha, तुम्हें यहाँ काम करते हुए कैसा लग रहा है? Hospital की canteen आसान जगह तो नहीं है।”
प्रथा ने थोड़ा सोचा, फिर बोली,
“हाँ, आसान नहीं है। लेकिन… यही तो पहली बार है जब मुझे लगता है कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ। घर की बातें अलग हैं, यहाँ कम से कम मुझे अपनी पहचान मिलती है।”
अर्जुन ने सिर हिलाया,
“सही कह रही हो। और पहचान मेहनत से ही बनती है, तुम वो कर रही हो।”
उनकी छोटी-छोटी बातें बढ़ने लगीं। कभी याहा वाहा की बाते तो कभी hospital में हुए funny incidents पर हँसी-मज़ाक।
नाजाने क्यूं प्रथा को अर्जुन का साथ अच्छा लगने लगा था l
लेकिन घर पर हालात अब भी आसान नहीं थे। बड़े पापा और बड़ी मम्मी के ताने रोज़ मिलते,
“Hospital की नौकरी से क्या होगा? पढ़ाई का क्या फायदा हुआ?”
लेकिन उसी बीच senior staff ने एक दिन उसकी तारीफ की,
“Pratha, तुम्हारा काम बहुत अच्छे से handle हो रहा है। तुमने कम समय मे सब कुछ अच्छे से handle किया है l तुम्हारा attitude और dedication impressive है।”
प्रथा ने सिर झुकाकर कहा,
“Thank you, sir। बस कोशिश कर रही हूँ।”
उस शाम Arjun canteen आया और उसने casually कहा,
“सुना है आज तुम्हारी senior ने बहुत तारीफ की। देखो, धीरे-धीरे सबको तुम्हारी मेहनत दिख रही है।”
प्रथा ने हँसते हुए कहा,
“हाँ, लेकिन घर वाले तो अभी भी यही कहते हैं कि ये सब बेकार है।”
अर्जुन ने गहरी नज़र से उसकी तरफ देखा और कहा,
“घर वालों की सोच बदलने में वक्त लगेगा। लेकिन तुम जो कर रही हो, वो सही है। Pratha, तुम strong हो। शायद तुम्हें खुद भी ये realize नहीं।”
प्रथा कुछ देर चुप रही, फिर धीरे से बोली,
“Thanks, Arjun… कभी-कभी तुम्हारी बातें सुनकर लगता है कि मैं सच में इतना कमजोर नहीं हूँ।”
अर्जुन मुस्कुराया,
“कमज़ोर तो तुम हो ही नहीं। बस तुम्हें किसी ऐसे की ज़रूरत थी जो तुम्हें ये याद दिला सके।”
धीरे-धीरे, छोटी-छोटी बातों और ऐसे ही care भरे पलों ने उनके बीच दोस्ती की नींव और मज़बूत कर दी। अब वे सिर्फ़ सहकर्मी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के भरोसेमंद साथी बन चुके थे।