आधुनिक अर्जुन और श्रीकृष्ण
मंदिर का प्रांगण शांत था। धूप की हल्की किरणें बेलों और पत्थरों पर पड़ रही थीं। हर जगह एक अजीब सी सन्नाटा था, जिसे सिर्फ पंछियों की चहचहाहट और दूर से किसी झरने की हल्की कल-कल की आवाज़ ही तोड़ती थी। उसी प्रांगण में एक युवक हाथ जोड़े खड़ा था। उसकी आँखों में उलझन थी, और उसकी साँसें कुछ भारी और अस्थिर। जीवन के सवालों का बोझ उसके कंधों पर साफ़ दिखाई दे रहा था।
युवक ने धीरे से अपने मन में कहा,
“हे प्रभु! ये जीवन भी एक युद्ध सा है। हर दिन चुनौतियाँ हैं, संघर्ष हैं… पर समझ नहीं आता, लड़ाई किससे है? दूसरों से, हालात से, या खुद से?”
जैसे ही उसने यह शब्द कहे, हवा में एक हल्की हलचल हुई। और सामने, उसकी आँखों के सामने, भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए। वही मुस्कान, वही दिव्यता, वही शांति।
“हे पार्थ,” कृष्ण ने मधुर स्वर में कहा, “हर युग में युद्ध रहा है। पर सबसे बड़ा युद्ध मनुष्य का अपने ही मन से होता है। बाहर के शत्रु केवल बहाना हैं। वास्तविक शत्रु तो तुम्हारे संदेह, भय और आलस्य हैं।”
युवक ने सिर झुकाया, आँखों में गंभीरता और मन में हल्की आशंका।
“तो क्या मैं भी अर्जुन की तरह हूं?” उसने पूछा। “क्या मुझे भी गीता की ज़रूरत है?”
कृष्ण ने हल्का मुस्कुराते हुए कहा,
“अर्जुन तो हर युग में जन्म लेता है, जब कोई सच्चा इंसान अपनी उलझनों से जूझता है। और गीता केवल एक किताब नहीं है, यह तेरे भीतर की आवाज़ है। जब तू प्रश्न करेगा सच्चे मन से, उत्तर अपने आप तेरे भीतर गूंजेंगे।”
युवक ने पल भर सोचा। उसके दिल में सवालों का तूफ़ान था, पर कुछ स्पष्ट भी हुआ।
“तो क्या मैं खुद अर्जुन भी हूं और खुद कृष्ण भी?” उसने धीमे स्वर में पूछा।
कृष्ण ने उसकी ओर देख कर मुस्कुराया और कहा,
“हाँ पार्थ! तू प्रश्न करने वाला अर्जुन भी है, और उत्तर देने वाला कृष्ण भी। जीवन का युद्ध जीतना है तो पहले खुद को जीतना होगा। अपनी सोच और अपने विश्वास को समझना होगा। तभी तू अपने बाहरी संघर्षों में भी स्थिर रहेगा। ”
युवक की आँखों में आँसुओं की नमी थी , पर चेहरे पर हल्की मुस्कान भी थी। उसने महसूस किया कि जीवन का सबसे बड़ा युद्ध तलवार और शक्ति से नहीं, बल्कि विश्वास और समझ से जीता जाता है।
वह थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा , आँखें बंद करके अपनी साँसों की गहराई महसूस करता रहा। मंदिर की शांति में उसने जाना कि असली लड़ाई बाहर नहीं, भीतर की उलझनों और डर के साथ होती है। और उसी क्षण उसने तय किया – चाहे जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ आएँ , वह अपने भीतर की शक्ति पर भरोसा करेगा।
जब उसने आँखें खोलीं, कृष्ण की छवि धीरे - धीरे धुंधली होती चली गई, पर उनकी वाणी अभी भी उसके कानों में गूँज रही थी । और युवक अब जान गया था – अर्जुन भी वही है जो प्रश्न करता है, और कृष्ण वही है जो अपने भीतर की सच्चाई को पहचानता है।
उस दिन से, वह अपने जीवन को युद्धभूमि नहीं, बल्कि अनुभवों और विश्वास की साधना मानने लगा।
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