मैं एक अध्यापक के तौर पर अपना जीवन व्यतीत कर रहा था , मन में ये विचार थे कि मैं जितना कर सकता हूं उतना शायद ही कोई कर पाए ।
उस वक्त विद्यालय को मेरी जरूरत थी , और मुझे कुछ पेसो की , मैने विद्यालय छोड़ कर दूसरे में जाने का विचार मनाया ।
मैने विद्यालय संचालक को बोला मै जा रहा हूं, किसी और विद्यालय में, आप मेरी तनख्वाह बढ़ाए ।
उन्होंने बहुत सुंदर वाक्य बोला जो मेरी जिंदगी बदल दी ।
" किसी के ना होने से कोई कार्य नहीं रुकता अरुण , घर तो वो भी पाल लेते है जिनके बड़े चले जाते है , हा कुछ वक्त तक खामी जरूर खले गी पर आपके ना होने से भी संस्था चलती रहे गी " ।
मुझे उस वक्त समझ आया आप कितने ही अध्यापक बन जाए जीवन में , आप हमेशा एक विद्यार्थी ही रहे गे जीवन में ।
मेरा जीवन उस संस्था में उतना ही था , मुझे वो संस्था एक खुले मैदान की भांति मिला , मैने वहां अपना ज्ञान रूपी बीज तोपां और संस्था में मौजूद अन्य अनुभवी शिक्षक मुझे समय समय पर पानी रूपी शिक्षा ज्ञान देते रहे ।
पर हर एक वृक्ष की छाया भी धरातल पर सीमित होती है और जीवन भी ।
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विद्यालय के वो दिन जब मैने अपने आप को जाना - - - -
एक दिन यूंही विद्यालय में प्रार्थना समय चल रहा था , तो स्टेज पर खड़े विद्यार्थियों ने बोला " कोई अन्य शिक्षक जो अपना अनुभव साझा करना चाहे "
तो विद्यालय के प्रधानाचार्य ने मेरा नाम लेते हुए बोले " अरुण जी आप जाओ और विद्यार्थियों को कुछ ज्ञान रूपी बाते बताओ "
अब मेरा महज 10 वा दिन , अब मै क्या बोलूं और क्या ना , पर कुछ ना बोला तो विद्यार्थी क्या बोले गे।
मैं मन में डरता हुआ गया और बोला कि -
" मुझे यहां बुलाने और इतना समान देने के लिए आपका धन्यवाद ।
आप सभी विद्यार्थी गण ये बताए कि विद्यालय की प्राथना सभा क्यों होती है , ये रोज व्यायाम और स्टेज पर अन्य कला का प्रदर्शन करते हो वो क्यों ,
मैने सीधा स्टेज से प्रधानाचार्य को बोल दिया आप बताए गे मेरे आदरणीय प्रधानाचार्य जी ।
क्यों मुझे वैसे ही गुस्सा आ रहा था मै ही क्यों , इसका कारण था वो मेरे मनोबल को तोड़ना चाहते थे , और मुझे उनको दिखाना था कि आपने गलत आदमी चुन लिया ।
सब प्रधानाचार्य की तरफ देख रहे , वो बोलने ही वाले थे , इतने मैं बोला चलो मैं बता देता हूं क्यों होती है ।
" हमारी जिंदगी दो शब्दों पर चलती है " तालीम " और " तहजीब " ।
तालीम मतलब शिक्षा , और तहजीब मतलब संस्कार ।
आप तालीम तो किसी भी उम्र में हासिल कर सकते है पर तहजीब की एक उम्र सीमा तय होती है ।
आप को प्राथना में बोलना , बैठना अपने विचार अपने ही लोगों के बीच कैसे प्रस्तुत करने है ये सिखाया जाता है , जब आप यहां से बाहर जाओ गे तो आपके बैठने और बोलने के तरीके से ही आपकी शिक्षा का अनुमान लगाया जाए गा ना कि आपकी अंकतालिका को देख कर ।
आप जब भी प्राथना में आए तो आप जितना हो सके उतना सीखने की कोशिश करे , अगर आप एक विषय में कमजोर रहे जाते है तो आपके पास पूरी उम्र पड़ी है उस विषय को मजबूत करने ओर सीखने के लिए ,
अगर आप संस्कार मतलब तहजीब में चूक गए तो आप की और इस शिक्षा संस्थान की वो पूरी कोशिश बर्बाद हो जाए गि जिसे से आप यहां कुछ बनने के लिए आए थे । "
मैने इतना कुछ बोला मुझे ज्ञात ही नहीं , शायद मेरे अंदर से शब्दों की धारा इतनी बह चुकी थी , जिसको वहां सभी तालियों की आवाज से उसको एक दिशा दी गई ।
मैं क्या हु मुझे उस दिन पता चला , शायद मुझ में उस दिन प्रधानाचार्य ने कुछ देखा जो मेरा नाम लिया ।
मेरा डर उस शब्दों की धारा में कहीं बह सा गया , मैं विद्यालय का वो शिक्षक बन पाया जैसा बनाना मै बनना चाहता था ।