अध्याय 1 – बचपन की धूप और मिट्टी
सुबह के पाँच बजे होंगे।
गाँव बेलापुर की गलियों में मुर्गे की बांग सुनाई दे रही थी। धुंध के बीच से सूरज की हल्की किरणें निकल रही थीं, और मिट्टी के रास्तों पर ओस की बूंदें चमक रही थीं।
चारों तरफ़ खेतों में फैली हरी-भरी फसल, जिनके ऊपर चिड़ियाँ चहचहा रही थीं।
गाँव का माहौल ऐसा था, मानो किसी पुराने पोस्टकार्ड में रंग भर दिए गए हों।
गाँव के किनारे एक कच्चा मकान था — दीवारें मिट्टी की, छत टीन की चादरों से बनी हुई, जिनमें बरसात में कई जगह से पानी टपकता था।
यही सलीम का घर था।
उसकी उम्र उस समय करीब 10 साल थी, दुबला-पतला बदन, आँखों में अजीब सी चमक, और चेहरे पर हमेशा हल्की सी मुस्कान।
पैरों में टूटी-फूटी चप्पलें, लेकिन उसके कदमों में वो उत्साह था जो अक्सर बड़े शहरों में भी नहीं दिखता।
अंदर रसोई के कोने में उसकी माँ, शबाना बी, चूल्हा जलाने की कोशिश कर रही थीं। लकड़ियाँ गीली थीं, इसलिए धुआँ पूरे कमरे में फैल गया था।
"सलीम बेटा, ज़रा कुएँ से पानी भर ला, रोटियाँ सेंकनी हैं,"
माँ ने कहा, आँखों से आँसू पोंछते हुए — धुएँ से भी और थकान से भी।
सलीम ने टीन के डिब्बे उठाए और घर से बाहर निकल गया। रास्ते में गाँव के दूसरे बच्चे खेल रहे थे — कोई लट्टू घुमा रहा था, कोई गिल्ली-डंडा खेल रहा था।
लेकिन सलीम के हाथ में पानी के डिब्बे थे और मन में बस एक ही बात —
"जल्दी लौटूँ, स्कूल का होमवर्क पूरा करना है।"
कुएँ के पास पहुँचा तो वहाँ गाँव की औरतें कतार में खड़ी थीं। बातें हो रही थीं —
"सुना, शहर में फिर कोई चोरी हुई है।"
"अरे, ये तो रोज़ की खबर हो गई है।"
सलीम चुपचाप अपनी बारी का इंतज़ार करता रहा, और जैसे ही मौका मिला, डिब्बे में पानी भरकर घर की ओर भागा।
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घर का नज़ारा
सलीम का घर दो कमरों का था — एक में चारपाई और पुराना संदूक, दूसरे में रसोई और बर्तन।
दीवारों पर चूने की परत कई जगह से उखड़ी हुई थी।
एक कोने में पुरानी किताबों का छोटा सा ढेर था — यही सलीम का ख़ज़ाना।
कई किताबों के पन्ने फटे हुए थे, लेकिन वो उन्हें ऐसे संभालकर रखता, जैसे कोई सोने के सिक्के संभालता है।
उसके अब्बा, करीम मियाँ, गाँव के बाज़ार में मोची का काम करते थे।
सुबह-सुबह वो अपनी छोटी सी दुकान पर बैठ जाते, और शाम को थके-हारे घर लौटते।
उनकी कमाई बस इतनी थी कि घर का गुज़ारा हो सके — कभी-कभी तो पूरा महीना उधार में चला जाता।
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स्कूल की राह
नाश्ते में आज भी सिर्फ़ रोटी और नमक था, लेकिन सलीम ने बिना शिकायत खा लिया।
माँ ने उसके पुराने बैग में किताबें रखीं — जिनका रंग अब फीका पड़ चुका था — और उसे स्कूल भेज दिया।
गाँव का सरकारी स्कूल ज़्यादा दूर नहीं था, लेकिन रास्ते में कीचड़ और गड्ढे थे।
सलीम नंगे पाँव चलना पसंद करता, क्योंकि चप्पल पुरानी थी और बार-बार टूट जाती थी।
स्कूल की इमारत भी बस नाम की थी — दो कमरे, एक टूटी हुई खिड़की, और बेंच आधी टूटी-फूटी।
लेकिन मास्टर साहब कभी-कभी ऐसे पढ़ाते कि बच्चों को लगता, जैसे दुनिया सच में बड़ी और खूबसूरत है।
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सलीम का अलगपन
गाँव के बाकी बच्चों की तरह सलीम भी खेलना पसंद करता था, लेकिन उसमें एक अलग बात थी — वो सवाल बहुत पूछता था।
"सर, आसमान नीला क्यों होता है?"
"सर, ये बिजली कैसे आती है?"
"सर, शहरों में इतने ऊँचे मकान कैसे बनते हैं?"
कई बार मास्टर साहब हँसते हुए कहते,
"अरे सलीम, तू तो एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।"
लेकिन गाँव के कुछ लोग उसका मज़ाक उड़ाते।
"अरे, इतना पढ़-लिखकर करेगा क्या? आखिर में खेत में ही काम करना पड़ेगा।"
सलीम बस चुपचाप सुनता और मन ही मन सोचता —
"नहीं, मैं कुछ अलग करूँगा।"
ठीक है 🙂
अध्याय 2 – पहला सपना
दोपहर का समय था।
गर्मी इतनी थी कि मिट्टी की सड़क पर पैर रखते ही जैसे अंगारे पड़ते हों।
स्कूल की खिड़कियों से आती हवा भी मानो तप रही थी।
बच्चे पसीने में भीगे, बेंच पर झुके-झुके बैठे थे।
मास्टर साहब ने आज पढ़ाई के बजाय एक नया खेल शुरू किया —
"आज हम सब अपने-अपने सपने बताएँगे। बड़े होकर तुम क्या बनना चाहते हो?"
क्लास में हलचल मच गई।
कोई बोला, "मैं किसान बनूँगा, जैसे अब्बा।"
कोई बोला, "मैं पुलिस बनूँगा, ताकि चोरों को पकड़ सकूँ।"
एक लड़की बोली, "मैं टीचर बनूँगी, मास्टर जी जैसी।"
जब सलीम की बारी आई, तो उसने बिना हिचकिचाए कहा —
"मैं कंप्यूटर इंजीनियर बनूँगा।"
कुछ सेकंड के लिए क्लास में सन्नाटा छा गया।
फिर पीछे से एक लड़के ने हँसते हुए कहा —
"अरे, हमारे गाँव में तो ढंग से बिजली भी नहीं आती, और तू कंप्यूटर इंजीनियर बनेगा?"
दूसरा बोला, "कंप्यूटर तो बस शहर में होते हैं। तेरे घर में तो पंखा भी नहीं है।"
मास्टर साहब ने भी थोड़ी हँसी दबाई, फिर बोले —
"बेटा, बड़े सपने देखना अच्छा है, लेकिन पहले पढ़ाई में ध्यान दे। सपनों को सच करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है।"
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मन का तूफ़ान
उस दिन स्कूल से लौटते समय, सलीम चुप था।
गाँव के रास्तों पर धूल उड़ रही थी, बकरियाँ चर रही थीं, और बच्चे गिल्ली-डंडा खेल रहे थे।
लेकिन सलीम के कानों में बस वही आवाज़ गूंज रही थी —
"तेरे घर में पंखा भी नहीं है..."
घर पहुँचकर उसने किताबें खोलीं, लेकिन पढ़ाई पर ध्यान नहीं लगा।
वो बाहर आँगन में बैठा, आसमान की तरफ़ देख रहा था।
नीले आसमान में उड़ते पक्षियों को देखकर उसने सोचा —
"इनके पास तो पंख हैं, इसलिए ये उड़ सकते हैं। लेकिन इंसान के पास क्या है? उसके पास सपने हैं।"
और तभी उसने अपने मन में एक वादा किया —
"एक दिन मैं कंप्यूटर के साथ काम करूँगा। शहर जाऊँगा, बड़ी-बड़ी इमारतों में बैठूँगा, और अपने गाँव का नाम रोशन करूँगा।"
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पहली प्रेरणा
कुछ दिन बाद, गाँव में बिजली का एक नया खंभा लगाया गया।
बिजली विभाग के दो लोग मोटरसाइकिल से आए थे।
उनमें से एक के पास चमकदार लैपटॉप था।
वो खंभे के पास बैठकर कुछ टाइप कर रहा था।
सलीम दूर से ही उस स्क्रीन को देखने लगा।
वो नहीं समझ पा रहा था कि उसमें क्या चल रहा है, लेकिन उसे ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी दूसरी दुनिया की खिड़की हो।
उसने उसी शाम अब्बा से पूछा,
"अब्बा, ये कंप्यूटर कहाँ से मिलता है?"
करीम मियाँ ने हँसकर कहा,
"बेटा, ये बहुत महँगा होता है, और हमारे लिए तो बस तस्वीरों में अच्छा लगता है।"
लेकिन सलीम के लिए ये जवाब निराश करने वाला नहीं था — बल्कि ये उसकी जिद को और बढ़ा गया।
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खुद से लड़ाई
अब सलीम स्कूल से आकर हर दिन अपने मन में उस लैपटॉप का ख्याल लाता।
वो मिट्टी में लकड़ी से QWERTY कीबोर्ड बनाता और काल्पनिक टाइपिंग करता।
कभी अपने दोस्तों को बोला करता,
"देखना, एक दिन मैं भी ऐसे कंप्यूटर पर काम करूँगा, और तुम सबको दिखाऊँगा।"
दोस्त हँसकर कहते,
"तू पागल है, सलीम।"
लेकिन सलीम बस मुस्कुराकर चुप हो जाता।
ठीक है 🙂
अब मैं अध्याय 3 – नया रास्ता लिख रहा हूँ, जिसमें आफ़ताब सर की एंट्री होगी और सलीम पहली बार कंप्यूटर को करीब से देखेगा।
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अध्याय 3 – नया रास्ता
गर्मी का मौसम था।
गाँव के स्कूल में बच्चों की संख्या वैसे ही कम हो जाती थी, लेकिन आज कुछ अलग था।
क्लास में एक नया चेहरा आया — गोरे-चिट्टे, आँखों पर पतला चश्मा, और कंधे पर एक चमड़े का बैग।
मास्टर जी ने परिचय करवाया —
"बच्चो, ये हैं आफ़ताब सर। अब ये तुम्हें पढ़ाएँगे।"
बच्चों ने पहले तो सोचा कि ये भी बाकी टीचरों की तरह बस किताबें पढ़ाएँगे, लेकिन आफ़ताब सर अलग थे।
पहले दिन ही उन्होंने पूछा —
"तुम सबको पता है, ये दुनिया कितनी बड़ी है?"
किसी ने कहा, "गाँव जितनी।"
किसी ने कहा, "देश जितना।"
सर मुस्कुराए, और बोले —
"दुनिया बहुत बड़ी है, और उसे देखने का एक तरीका है — सीखना। अगर तुम सीखोगे, तो गाँव में बैठकर भी पूरी दुनिया देख सकते हो।"
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पहली बार कंप्यूटर का नाम
कुछ दिन बाद, आफ़ताब सर ने स्कूल में एक बड़ा सा थैला लाया।
जब उन्होंने उसे खोला, तो बच्चों की आँखें फटी की फटी रह गईं — अंदर एक पुराना लैपटॉप था।
गाँव में बहुत से बच्चों ने इसे पहले कभी इतने करीब से नहीं देखा था।
सर ने उसे चालू किया। स्क्रीन पर नीली रोशनी फैल गई।
बच्चे धीमे-धीमे आगे बढ़े, जैसे किसी जादू का हिस्सा देख रहे हों।
सलीम तो मानो सांस ही लेना भूल गया।
उसने धीमे से पूछा —
"सर, ये वही कंप्यूटर है, जो शहर में होता है?"
सर ने हँसकर कहा,
"हाँ बेटा, और ये सिर्फ शहर में ही नहीं, अब यहाँ भी है।"
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पहला टच
सर ने बच्चों को बारी-बारी से माउस पकड़ने दिया।
जब सलीम की बारी आई, तो उसने माउस ऐसे पकड़ा जैसे कोई कीमती चीज़ हो।
सर ने कहा,
"इस तीर को देख रहे हो स्क्रीन पर? इसे माउस से हिलाओ।"
सलीम ने धीरे-धीरे माउस को खिसकाया, और जब तीर स्क्रीन पर हिला, तो उसके चेहरे पर इतनी बड़ी मुस्कान आई कि बाकी बच्चे हँस पड़े।
उसने मन में सोचा —
"ये सिर्फ मशीन नहीं है, ये तो मेरी सपनों की चाबी है।"
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आफ़ताब सर का वादा
क्लास खत्म होने के बाद सलीम ने हिम्मत जुटाकर सर से पूछा,
"सर, क्या आप मुझे कंप्यूटर चलाना सिखाएँगे?"
सर ने उसकी आँखों में चमक देखी और बोले,
"जरूर। रविवार को पंचायत भवन आना। वहाँ एक पुराना कंप्यूटर है, लेकिन काम कर जाता है। हम वहीं से शुरू करेंगे।"
उस दिन सलीम घर आया तो माँ ने पूछा,
"आज इतना खुश क्यों है?"
सलीम ने कहा,
"अम्मी, मुझे मेरी मंज़िल का रास्ता मिल गया।"
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यहाँ से कहानी अध्याय 4 – भूख और किताबें में जाएगी, जहाँ कंप्यूटर सीखने की चाहत के साथ-साथ घर की गरीबी और भूख की मार भी बढ़ती है, लेकिन सलीम हार नहीं मानता।
क्या मैं अभी अध्याय 4 भी लिख दूँ?
ठीक है 🙂
अध्याय 4 – भूख और किताबें
रविवार की सुबह थी।
गाँव के ज्यादातर बच्चे छुट्टी के मज़े ले रहे थे — कोई नदी में नहा रहा था, कोई आम के पेड़ों के नीचे खेल रहा था।
लेकिन सलीम, पुराने बैग में एक कॉपी और पेन लेकर पंचायत भवन की ओर चल पड़ा।
भवन के कमरे में धूल और मकड़ी के जाले थे।
कोने में एक पुराना कंप्यूटर रखा था — मोटा-सा मॉनिटर, पीली पड़ चुकी की-बोर्ड की चाबियाँ, और साथ में एक खड़खड़ाने वाला CPU।
आफ़ताब सर पहले से वहाँ मौजूद थे। उन्होंने मुस्कुराकर कहा,
"चलो, आज से तुम्हारा नया स्कूल शुरू होता है।"
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पहली क्लास
सर ने सबसे पहले कंप्यूटर चालू करना सिखाया —
"ये बटन दबाओ, फिर थोड़ा इंतज़ार करो।"
स्क्रीन पर Windows का नीला लोगो आया, तो सलीम की आँखें चमक उठीं।
सर ने उसे टाइपिंग सिखाना शुरू किया — A, B, C...
फिर माउस का इस्तेमाल, और Paint खोलकर एक गोल चेहरा बनाना।
सलीम को ये सब किसी जादू जैसा लग रहा था।
वो बार-बार कह रहा था,
"सर, ये तो बहुत मज़ेदार है!"
सर ने हँसकर कहा,
"मज़ेदार है बेटा, लेकिन इसे सीखना मेहनत का काम है। अगर रोज़ आओगे, तो मैं तुम्हें और सिखाऊँगा।"
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घर की मुश्किल
लेकिन ये रोज़ आना आसान नहीं था।
घर में हालात बिगड़ रहे थे।
अब्बा का जूते सीने का काम कम हो गया था, और माँ को कभी-कभी दूसरे घरों में बर्तन धोने जाने पड़ते थे।
एक दिन माँ ने धीरे से कहा,
"सलीम, तू अब बड़ा हो गया है। स्कूल के बाद थोड़ा काम भी कर लिया कर, ताकि घर का खर्चा चल सके।"
सलीम चुप हो गया। वो माँ को दुखी नहीं करना चाहता था, लेकिन दिल में एक डर था —
"अगर मैंने पढ़ाई और कंप्यूटर छोड़ दिया, तो मेरा सपना हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।"
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भूखे दिन
कई बार ऐसा हुआ कि घर में खाने को सिर्फ रोटी और नमक होता।
एक बार तो उसने पूरा दिन बिना खाए गुज़ार दिया, क्योंकि घर में माँ ने आखिरी रोटी अब्बा को दे दी थी।
लेकिन अगले दिन भी वो पंचायत भवन पहुँचा, और कंप्यूटर पर बैठकर कोडिंग की बुनियादी बातें सीखने लगा।
सर ने उसकी हालत भांप ली।
"बेटा, ये रास्ता आसान नहीं होगा। लेकिन अगर तुम डटे रहे, तो एक दिन ये भूख भी तुम्हारी ताकत बन जाएगी।"
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नोटबुक का खज़ाना
रात में मिट्टी के दीये की रोशनी में सलीम अपनी नोटबुक में सीखी हुई बातें लिखता —
कैसे कंप्यूटर चालू करते हैं, माउस से फाइल खोलते हैं, Paint में रंग भरते हैं।
धीरे-धीरे उसने टाइपिंग भी तेज़ कर ली।
उसे लगता था, जैसे हर की-बोर्ड की चाबी दबाने से वो अपने सपने के एक कदम और करीब पहुँच रहा
ठीक है 🙂ठीक है 🙂
अब मैं अध्याय 6 – पहली कमाई से पहला तूफ़ान लिख रहा हूँ, जहाँ सलीम की छोटी-सी सफलता गाँव में हलचल मचा देती है।
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अध्याय 6 – पहली कमाई से पहला तूफ़ान
पहली कमाई के बाद सलीम का आत्मविश्वास बढ़ गया था।
वो अब रोज़ पंचायत भवन में इंटरनेट से जुड़कर नए-नए डिज़ाइन सीखता, वीडियो ट्यूटोरियल देखता, और छोटे-छोटे प्रोजेक्ट करता।
कभी 500 रुपये मिलते, कभी 1000, लेकिन हर बार वो पहले माँ का राशन भरवाता और फिर थोड़ा-सा अपने लिए कॉपी-पेन खरीद लेता।
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गाँव में चर्चा
गाँव में धीरे-धीरे बातें फैलने लगीं —
"अरे, वो मोची का बेटा कंप्यूटर से पैसे कमा रहा है।"
"कैस
अध्याय 5 – इंटरनेट की खिड़की
सर्दियों की एक सुबह थी।
पंचायत भवन के बाहर धूप सेंकते बुज़ुर्ग बतिया रहे थे, और अंदर आफ़ताब सर कंप्यूटर की तारें जोड़ रहे थे।
सलीम उत्सुकता से पूछ बैठा —
"सर, आज क्या नया सिखाएँगे?"
सर ने मुस्कुराकर कहा,
"आज तुम्हें दुनिया की खिड़की दिखाऊँगा।"
उन्होंने कंप्यूटर को एक पतली-सी तार से जोड़ा, जो भवन के बाहर लगे एक छोटे डिब्बे से आ रही थी।
कुछ ही देर में स्क्रीन पर Google का रंगीन लोगो चमक उठा।
"ये है इंटरनेट," सर ने कहा,
"इससे तुम गाँव में बैठकर भी पूरी दुनिया देख सकते हो, लोगों से बात कर सकते हो, और उनसे काम भी ले सकते हो।"
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पहली खोज
सर ने Google पर टाइप किया — Taj Mahal।
स्क्रीन पर सफ़ेद संगमरमर का शानदार महल दिखाई दिया।
सलीम ने कभी इसे किताबों में देखा था, लेकिन अब उसे महसूस हुआ कि जैसे वो खुद वहीं खड़ा है।
उसने धीरे से कहा,
"सर, ये तो जादू है।"
सर ने हँसकर कहा,
"जादू नहीं बेटा, ये ज्ञान है।"
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फ़्रीलांसिंग का पहला सबक
कुछ हफ्तों बाद, सर ने एक और वेबसाइट खोली — freelance.com।
"ये जगह है जहाँ लोग अपने काम के बदले पैसे देते हैं। कोई पोस्टर बनवाना चाहता है, कोई वेबसाइट, और कोई फोटो एडिट करवाना चाहता है।"
सलीम की आँखों में चमक आ गई।
"सर, क्या मैं भी यहाँ काम कर सकता हूँ?"
"हाँ, लेकिन इसके लिए तुम्हें मेहनत करनी पड़ेगी। काम छोटा हो या बड़ा, दिल से करना होगा।"
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पहला प्रोफ़ाइल
सर की मदद से सलीम ने अपना छोटा-सा प्रोफ़ाइल बनाया —
Photo Editing, Poster Design, और Basic Website Creation लिख दिया।
उसने अपनी बनाई कुछ Paint की तस्वीरें और स्कूल के पोस्टर की फोटो डाल दी।
पहले कुछ दिनों तक किसी का जवाब नहीं आया।
हर सुबह वो लॉगिन करता, देखता, और निराश होकर वापस चला जाता।
लेकिन उसने हार नहीं मानी।
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पहला ऑर्डर
एक रात, जब गाँव में बिजली नहीं थी, उसके मोबाइल पर एक ईमेल आया —
"Hi, I need a poster design. Budget $10."
सलीम की धड़कन तेज़ हो गई।
उसने पूरी रात पंचायत भवन के कंप्यूटर पर मेहनत की, रंग चुने, डिज़ाइन बनाए, और सुबह होते-होते पोस्टर तैयार कर दिया।
दो दिन बाद, उसे ईमेल आया — "Great work, payment sent."
जब रुपये उसके अकाउंट में आए, तो वो खुशी से उछल पड़ा।
पहली कमाई — पूरे 700 रुपये!
वो भागकर घर गया और माँ के हाथ में पैसे रख दिए।
"अम्मी, ये मेरी मेहनत के हैं।"
शबाना बी की आँखें भर आईं।
"बेटा, तू सच में कुछ बनकर दिखाएगा।
अध्याय 6 – पहली कमाई से पहला तूफ़ान
पहली कमाई के बाद सलीम का आत्मविश्वास बढ़ गया था।
वो अब रोज़ पंचायत भवन में इंटरनेट से जुड़कर नए-नए डिज़ाइन सीखता, वीडियो ट्यूटोरियल देखता, और छोटे-छोटे प्रोजेक्ट करता।
कभी 500 रुपये मिलते, कभी 1000, लेकिन हर बार वो पहले माँ का राशन भरवाता और फिर थोड़ा-सा अपने लिए कॉपी-पेन खरीद लेता।
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गाँव में चर्चा
गाँव में धीरे-धीरे बातें फैलने लगीं —
"अरे, वो मोची का बेटा कंप्यूटर से पैसे कमा रहा है।"
"कैसे? अरे, ये सब धोखा है! नेट पर ठगी करता होगा।"
"सुना है, किसी को विदेश से पैसे आए हैं इसके पास।"
कुछ लोगों को उसकी तरक्की रास नहीं आई।
चाय की दुकान पर बैठा नसीर चाचा बोले,
"देखना, एक दिन पुलिस आएगी। ये सब कंप्यूटर के खेल सही नहीं होते।"
सलीम ने जब ये बातें सुनीं, तो उसका दिल टूट गया।
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पंचायत में बुलावा
एक शाम गाँव के मुखिया ने उसे बुलाया।
"सलीम, ये क्या काम करता है तू? गाँव में अफवाह फैल रही है कि तू इंटरनेट से गलत काम कर रहा है।"
सलीम ने घबराते हुए समझाया,
"चाचा, मैं डिज़ाइन बनाता हूँ, पोस्टर बनाता हूँ… लोग मुझे पैसे देते हैं। इसमें कुछ गलत नहीं है।"
मुखिया ने गंभीर स्वर में कहा,
"देख बेटा, हम समझते हैं तू मेहनत कर रहा है। लेकिन गाँव के लोग नई चीज़ों से डरते हैं। सबको समझाना पड़ेगा।"
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तूफ़ान
इसी बीच, एक दिन सलीम का अकाउंट हैक हो गया।
उसके कुछ काम अधूरे रह गए और क्लाइंट ने उसे बुरा-भला कह दिया।
वो परेशान था, ऊपर से गाँव में ताने सुनने पड़े —
"देखा? कहा था ना, ये सब नकली काम है।"
"अब तो इसके पैसे भी बंद हो गए।"
घर आकर उसने चुपचाप खाना खाया और आँगन में बैठ गया।
माँ ने पास आकर कहा,
"बेटा, मुश्किलें तो आएँगी। लेकिन अगर तू हार गया, तो लोग सही साबित हो जाएँगे।"
उस रात उसने ठान लिया —
"मैं साबित करूँगा कि इंटरनेट बुरा नहीं, और मैं गलत नहीं हूँ।"
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नई शुरुआत
उसने अपने अकाउंट को फिर से सुरक्षित किया, पासवर्ड बदला, और आफ़ताब सर से सलाह ली।
धीरे-धीरे उसने दोबारा काम पाना शुरू किया, और इस बार उससे भी बेहतर डिज़ाइन बनाने लगा।
गाँव के कुछ लोग, जो पहले ताने मारते थे, अब उसके पास आकर कहने लगे —
"अरे, हमारे लड़के को भी सिखा दो
अध्याय 7 – सबसे बड़ी मुश्किल
गाँव में बरसात का मौसम आ चुका था।
कच्ची गलियों में पानी भर गया था, और पंचायत भवन की छत से टप-टप पानी टपक रहा था।
सलीम रोज़ की तरह कंप्यूटर के सामने बैठा था, लेकिन बाहर गरज-चमक बढ़ती जा रही थी।
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बिजली का कहर
अचानक एक तेज़ बिजली कड़कने के साथ गाँव की लाइन गिर गई।
CPU से चिंगारी निकली और स्क्रीन काली हो गई।
सलीम घबरा गया —
"या अल्लाह! ये क्या हो गया?"
आफ़ताब सर ने जांचा, लेकिन कंप्यूटर का मदरबोर्ड जल चुका था।
"बेटा, अब ये तब तक नहीं चलेगा जब तक मरम्मत न हो जाए… और मरम्मत में 6-7 हज़ार लगेंगे।"
ये सुनकर सलीम के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
इतने पैसे जुटाना उसके लिए नामुमकिन था।
बिना कंप्यूटर के न तो वो काम कर सकता था, न सीख सकता था।
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घर की तंगी
घर में वैसे ही मुश्किल हालात थे।
अब्बा की तबीयत खराब रहने लगी थी, और माँ को रोज़ दूसरों के घर बर्तन धोने जाने पड़ते थे।
सलीम जानता था कि कंप्यूटर के लिए पैसे माँ से माँगना नामुमकिन है।
रात में उसने तकिये में मुँह छुपाकर सोचा —
"क्या मेरा सपना यहीं खत्म हो जाएगा?"
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उम्मीद की किरण
अगले दिन वो बाजार में गया, शायद किसी सस्ते सेकेंड हैंड कंप्यूटर के बारे में पता चल जाए।
लेकिन दुकानदारों ने हँसकर कहा,
"भाई, इतना सस्ता तो मोबाइल भी नहीं मिलता।"
जब वो मायूस होकर लौट रहा था, तभी उसे एक पुराना दोस्त मिला — इमरान।
इमरान शहर में एक साइबर कैफ़े चलाता था।
बातों-बातों में उसने कहा,
"अगर तू शहर आकर मेरे कैफ़े में काम कर ले, तो मैं तुझे कंप्यूटर भी इस्तेमाल करने दूँगा, और थोड़ा-बहुत पैसे भी दूँगा।"
सलीम का दिल धड़क उठा।
ये एक मौका था, लेकिन इसके लिए उसे रोज़ 10 किलोमीटर दूर शहर जाना पड़ेगा, और स्कूल का समय भी प्रभावित होगा।
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बड़ा फैसला
रात को उसने माँ को बताया।
शबाना बी ने कहा,
"बेटा, मेहनत कर, लेकिन पढ़ाई मत छोड़ना। जो भी फैसला ले, सोच-समझकर ले।"
सलीम पूरी रात जागता रहा।
सुबह होने तक उसने ठान लिया —
"मैं शहर जाऊँगा, काम भी करूँगा और पढ़ाई भी। चाहे कितनी भी मुश्किल क्यों न हो।"
अध्याय 8 – शहर की गलियों में सपनों की तलाश
सुबह की पहली अज़ान के साथ सलीम ने अपना पुराना बैग उठाया, जिसमें बस एक जोड़ी कपड़े, एक नोटबुक और पानी की बोतल थी।
माँ ने उसके माथे पर हाथ रखकर दुआ दी —
"अल्लाह तुझे बुरे लोगों से बचाए और मेहनत का फल दे।"
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पहला सफ़र
गाँव की कच्ची सड़क पार करके वो बस स्टॉप पहुँचा।
धूल और ठंडी हवा के बीच जब बस शहर में दाख़िल हुई, तो सलीम की आँखें चौंधिया गईं —
ऊँची-ऊँची इमारतें, हॉर्न की आवाज़ें, और भीड़ का शोर।
ये दुनिया उसके छोटे से गाँव से बिलकुल अलग थी।
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साइबर कैफ़े की हकीकत
इमरान का साइबर कैफ़े पुराने मोहल्ले में था —
छोटा-सा कमरा, जिसमें पाँच कंप्यूटर लगे थे, पंखा आधा टूटा, और दीवारों पर पोस्टर चिपके हुए।
इमरान ने मुस्कुराकर कहा,
"ये रहा तेरा नया ऑफिस।
दिन में ग्राहकों को बैठाना, प्रिंट-आउट निकालना, और रात में तू अपने प्रोजेक्ट कर सकता है।"
सलीम के लिए ये जैसे खजाना था।
पहली बार उसे बिना रोक-टोक कंप्यूटर इस्तेमाल करने की आज़ादी मिल गई।
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नए अनुभव
शहर में सब कुछ तेज़ था —
लोग जल्दी में, गाड़ियाँ रुकने का नाम नहीं लेतीं, और हर जगह प्रतियोगिता।
सलीम ने सीखा कि कैसे अजनबी ग्राहकों से बात करनी है, कैसे छोटे-छोटे प्रिंटिंग के काम से भी पैसे बनते हैं।
रात में, कैफ़े के बंद होने के बाद, वो अपने फ्रीलांस काम पर लग जाता।
धीरे-धीरे उसे नए क्लाइंट मिलने लगे और उसकी कमाई भी बढ़ने लगी।
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मुश्किल और सीख
लेकिन शहर आसान नहीं था।
एक दिन कैफ़े में बिजली चली गई और जनरेटर में पेट्रोल खत्म।
क्लाइंट का डेडलाइन पास था, और इंटरनेट भी बंद।
सलीम भागते-भागते दूसरे कैफ़े पहुँचा, जहाँ उसने अपना प्रोजेक्ट समय पर पूरा किया।
उस दिन उसने समझा —
"शहर में टिकने के लिए सिर्फ़ हुनर नहीं, बल्कि तेज़ी और जुगाड़ भी चाहिए।"
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गाँव लौटने का वादा
हर हफ़्ते वो गाँव लौटकर माँ से मिलता और अब्बा की दवाई लाता।
गाँव के बच्चे उसे घेरकर पूछते,
"भाई, शहर कैसा है?"
सलीम मुस्कुराकर कहता,
"शहर बड़ा है, लेकिन मेहनत उससे भी बड़ी होनी चाहिए।"
अध्याय 9 – सपनों का पहला इम्तिहान
शहर में रहते हुए छह महीने बीत चुके थे।
सलीम अब साइबर कैफ़े का अहम हिस्सा बन चुका था।
इमरान उस पर भरोसा करने लगा था, और ग्राहकों के बीच भी उसका नाम हो गया था।
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बड़ा मौका
एक दिन कैफ़े में एक सूट-बूट पहने आदमी आया।
उसका नाम था अर्जुन मल्होत्रा — एक मशहूर इवेंट कंपनी का मैनेजर।
उसने सलीम से कहा,
"हमें एक बड़े कॉन्सर्ट का पोस्टर और डिजिटल कैंपेन बनवाना है।
डेडलाइन सिर्फ़ पाँच दिन है, लेकिन पेमेंट 50,000 रुपये होगी।"
सलीम की आँखें चमक उठीं।
इतने पैसे उसने पहले कभी नहीं देखे थे।
ये रकम उसके घर की कई महीनों की जरूरत पूरी कर सकती थी।
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छुपा सच
काम शुरू करने के बाद उसे पता चला कि ये कॉन्सर्ट एक शराब कंपनी द्वारा स्पॉन्सर किया जा रहा है।
गाँव में उसने कई लोगों को शराब से बर्बाद होते देखा था, और उसकी माँ हमेशा कहती थी,
"बेटा, हर काम पैसे के लिए मत कर, देख कि उसमें भलाई है या बुराई।"
अब सलीम दुविधा में था —
एक तरफ घर की तंगी और सुनहरा मौका, दूसरी तरफ अपनी मान्यताएँ और समाज के लिए जिम्मेदारी।
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दिल का फैसला
रात को उसने बहुत सोचा।
अगर वो ये काम छोड़ देता, तो पैसे हाथ से निकल जाते।
अगर करता, तो वो अपनी आत्मा से समझौता कर लेता।
सुबह उसने अर्जुन को फोन किया और कहा,
"सर, माफ़ कीजिए, मैं ये प्रोजेक्ट नहीं कर पाऊँगा।"
अर्जुन चौंक गया,
"50,000 छोड़ रहा है तू? तेरा दिमाग खराब है क्या?"
सलीम ने शांत स्वर में जवाब दिया,
"पैसा फिर आ जाएगा, लेकिन अपने उसूल अगर खो दिए, तो कभी वापस नहीं मिलेंगे।"
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अनपेक्षित इनाम
कुछ दिन बाद, अर्जुन फिर कैफ़े आया।
उसने मुस्कुराकर कहा,
"तेरे जैसे ईमानदार लोग बहुत कम होते हैं।
हमारी कंपनी के पास एक और प्रोजेक्ट है — बच्चों की शिक्षा पर कैंपेन।
पेमेंट कम है, लेकिन मैं तुझे अपनी टीम में फ्रीलांसर के तौर पर जोड़ रहा हूँ।"
सलीम ने राहत की सांस ली।
उसने सीखा कि सही फैसले लेने में वक्त लगता है, लेकिन उसका फल हमेशा मीठा होता
अध्याय 10 – जब नाम गाँव तक पहुँचा
शहर में काम करते हुए अब एक साल पूरा हो गया था।
सलीम का नाम छोटे-छोटे डिज़ाइन और डिजिटल मार्केटिंग जगत में पहचान बनाने लगा था।
इंटरनेट पर उसके बनाए पोस्टर और कैंपेन वायरल होने लगे थे।
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अख़बार की खबर
एक दिन इमरान ने सुबह-सुबह अख़बार लाकर कहा,
"देख, तू अख़बार में छप गया!"
स्थानीय अख़बार में एक लेख था —
"गाँव का बेटा बना डिजिटल स्टार"
उसमें लिखा था कि कैसे एक छोटे से गाँव का लड़का ईमानदारी और मेहनत से शहर में अपनी जगह बना रहा है।
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गाँव की प्रतिक्रिया
ये खबर गाँव में भी पहुँच गई।
बच्चे सलीम के घर आकर अख़बार में उसकी फोटो देखते और कहते,
"भाई, हम भी कंप्यूटर सीखेंगे!"
गाँव के बुज़ुर्ग, जो पहले कहते थे कि "ये सब बेकार का काम है", अब कहते,
"हमारा बेटा शहर में नाम रोशन कर रहा है।"
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अब्बा का गर्व
शाम को सलीम गाँव लौटा तो अब्बा ने पहली बार उसकी पीठ थपथपाई और कहा,
"तूने साबित कर दिया कि बेटा सिर्फ़ पढ़ाई से नहीं, बल्कि अच्छे काम से भी परिवार का नाम ऊँचा कर सकता है।"
माँ की आँखों में गर्व के आँसू थे।
उन्होंने कहा,
"तेरे अब्बा बीमार हैं, लेकिन आज उनकी मुस्कान देख कर लग रहा है कि वो ठीक हो जाएंगे।"
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बदलाव की शुरुआत
गाँव के लड़के-लड़कियाँ अब कंप्यूटर और इंटरनेट सीखने के लिए उत्साहित हो गए थे।
सलीम ने तय किया कि वो हर महीने गाँव आकर बच्चों को बेसिक कंप्यूटर ट्रेनिंग देगा — बिल्कुल फ्री में।
उसके लिए ये सिर्फ़ लौटाने का तरीका नहीं था, बल्कि अपने गाँव का भविष्य बदलने का सपना था
अध्याय 11 – नया सपना, नई जंग
सलीम का मन अब सिर्फ़ शहर की कमाई तक सीमित नहीं था।
उसके दिमाग में एक बड़ा सपना पनप रहा था — अपने गाँव में एक डिजिटल लर्निंग सेंटर बनाना, जहाँ हर बच्चा कंप्यूटर और इंटरनेट की सही शिक्षा पा सके, चाहे उसके पास पैसे हों या नहीं।
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योजना की शुरुआत
उसने कागज़ पर प्लान बनाया —
दस कंप्यूटर
एक प्रोजेक्टर
इंटरनेट कनेक्शन
और एक छोटा हॉल
लेकिन जब खर्चा जोड़ा, तो रकम लगभग दो लाख रुपये आई।
सलीम के पास इतने पैसे नहीं थे।
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मदद की तलाश
वो शहर के कई बड़े लोगों और कंपनियों के पास गया,
लेकिन ज्यादातर ने कहा,
"अच्छा आइडिया है, पर हमें मुनाफ़ा कहाँ मिलेगा?"
कुछ ने तो खुलकर कह दिया,
"गाँव के बच्चे कंप्यूटर सीखकर क्या करेंगे?"
सलीम का मन टूटा, लेकिन उसने हार नहीं मानी।
उसने अपने सोशल मीडिया पर एक वीडियो डाला —
उसमें उसने गाँव के बच्चों की हालत, उनके सपने, और अपने मिशन के बारे में बताया।
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चमत्कार
ये वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो गया।
देश-विदेश से लोगों ने डोनेशन भेजना शुरू किया।
इमरान ने भी एक कंप्यूटर दान किया।
अर्जुन मल्होत्रा ने अपनी कंपनी के पुराने पाँच लैपटॉप भिजवा दिए।
एक महीने के भीतर सलीम के पास इतना फंड हो गया कि वो सेंटर शुरू कर सके।
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उद्घाटन का दिन
गाँव के बीच में, पुराने पंचायत भवन को साफ़ करके नया रंग किया गया।
दीवारों पर प्रेरणादायक पेंटिंग बनाई गईं —
"मेहनत का कोई विकल्प नहीं" और "ज्ञान ही असली ताक़त है"।
उद्घाटन के दिन, माँ ने पहली चाबी सलीम को दी और कहा,
"ये तेरी मेहनत की कमाई है, बेटा।"
अब्बा की आँखों में चमक थी।
बच्चे उत्साह से कंप्यूटर के सामने बैठ गए।
पहली क्लास में सलीम ने सिर्फ़ एक वाक्य कहा —
"ये स्क्रीन सिर्फ़ खेल के लिए नहीं, बल्कि तुम्हारे भविष्य के लिए है।"
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बदलाव की लहर
छह महीने बाद गाँव बदलने लगा।
बच्चे ईमेल लिखना, ऑनलाइन जानकारी ढूँढना, और छोटे-छोटे डिज़ाइन बनाना सीख गए।
कुछ लड़कियों ने तो घर से ही छोटे व्यवसाय शुरू कर दिए — जैसे ग्रीटिंग कार्ड बनाना और ऑनलाइन बेचना।
सलीम अब सिर्फ़ अपने गाँव का नहीं, बल्कि आस-पास के कई गाँवों का प्रेरणा स्रोत बन गया था।
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आख़िरी लम्हा
एक शाम सलीम सेंटर के बाहर बैठा था,
सूरज ढल रहा था, और बच्चे हँसते हुए अपने घर लौट रहे थे।
माँ ने आकर पूछा,
"अब क्या करेगा बेटा?"
सलीम ने मुस्कुराकर कहा,
"अब सपना पूरा हुआ है, लेकिन सफ़र अभी बाकी है।
गाँव को डिजिटल तो कर दिया, अब इसे दुनिया से जोड़ना है।"
दूर आसमान में तारें चमकने लगे थे।
सलीम को पता था — उसकी कहानी यहीं ख़त्म नहीं, बल्कि अब असली शुरुआत हुई है।
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समाप्त
थान्यवाद
रुबीना बी