आशीष भरी शक्तिपात की एक सुहानी शाम, आ.बहल जी के नाम
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जैसे जैसे हम उम्र के पड़ाव पार करते चले जाते हैँ, संवेदनाओं के झुरमुट से न जाने कितनी अनजानी, अनदेखी बातें, कुछ काल्पनिक विचार मन की झिर्री से झाँकने लगते हैं बल्कि कहना बेहतर होगा कि विचार झाँककर उड़ान भरने लगते हैं| मेरे साथ तो ऐसा ही होता है और पूरी आश्वस्त हूँ कि ये मानवीय संवेदनाएं अपने मुखौटे बदलती रहती हैं| कुछ लोग ऐसे जो एक पावन दीप बनकर मन की कलुषता को समाप्त कर उजाला भर देते हैं| हम ताकते रहते हैं उन झरोखों को जिनमें से वह पावन ज्योति मन के भीतर प्रकाश फैलाती है और हम उसमें सराबोर हो अपने जीवन के उन उत्कृष्ट क्षणों को जीवन का हिस्सा बना कर एक अलौकिकआनंद महसूस करते रहते हैं|
मनुष्य के जीवन में दो संवेदनाएं ऊपर नीचे होती रहती हैं जिनका जुड़ाव दुख व सुख के साथ होता है यानि खुशी और गम, उजाला और अंधियारा! इनके अतिरिक्त एक सबसे खूबसूरत संवेदना है जिसे हम ‘आनंद’के खाँचे में फिट कर सकते हैं और यही वह संवेदना है जो किसी ऐसे व्यक्तित्व की देन होती है जिसका स्नेह निर्मल होता है, जिसके स्नेह में अपना-पराया नहीं होता और जो सबमें एक ही रूप के दर्शन करता है|
हम मनुष्य ऐसे प्राणी हैं जो ईश्वर को तलाशते रहते हैं,कभी भटकने भी लगते हैं,कभी ऐसे साधु-बाबाओं के चक्कर में पड़कर न जाने कहाँ-कहाँ उलझ भी जाते हैं लेकिन यह बात हमारी समझ में बहुत देर से आती है कि हमारे साथ जिनका जुड़ाव होता है या अचानक हो जाता है,वह जुड़ाव ही तो हमें ‘सत् चित् आनंद’ महसूस कराता है और हम स्वयं को आनंद से विभोर पाते हैं|समझ में आ जाता है कि ईश्वर हमारे मन में ही तो है जो हमें ऐसी पावन आत्माओं से मिलवाता है जो अपनेपन का अहसास कराती और आनंदानुभूति देती हैं|यह आनंदानुभूति कुछ समय सुख-दुख की भाँति अपना चोला नहीं बदलती वरन् आत्मा में प्रवेश करके सदा के लिए मन का एक अविच्छिन्न भाग बन जाती है|इसमें डूबना एक कला है और अपने साथ दूसरे को डुबो देना भी एक ऐसी सुंदर कला जो सीधी ब्रह्म के साथ एकाकार होती है |
कभी मन कल्पना की उड़ान भरता है तो कभी महसूसता है कि हमारी कल्पना साकार होकर सामने आ खड़ी हुई है | जब ऐसा होता है तब विश्वास नहीं होता,ज़ोर से च्यूँटी काटनी पड़ती है और फिर खुद ही ‘सी’करके पाते हैं कि भाई ये कोई स्वप्न नहीं है, यह तो सचमुच हमारे साथ घटित हो रहा है,हम ज़िंदा हैं | हमने जिसकी कल्पना की थी, जो हम अपनी अर्द्धसुप्तावस्था में जीते रहते हैं वही हम वास्तव में जी रहे हैं| ये पल तमाम ज़िंदगी के पन्नों में से किसी खास पन्ने पर सिमट आते हैं और कभी भी भागते हुए मन को उन विशेष पलों में खींचकर ला खड़ा कर देते हैं|
थोड़ी स्वास्थ्य की गड़बड़ी चलते मैं घर में बैठी ही दिवा-स्वप्न अधिक देखने लगी हूँ| वैसे इतनी भी कोई बड़ी परेशानी नहीं है बस, ज़रा घर से निकलने में ही समस्या है इसीलिए अधिक समय घर में बैठकर लेखन के साथ समय व्यतीत करना माँ वीणापाणि की अनुकंपा ही तो है | जब भी फ़ेसबुक पर जाती, मन होता एक बार तो मित्रों से मिलना हो जिन्हें माना तो आभासी जाता है लेकिन मेरे लिए तो कुछ मित्र ऐसे हो गए हैं,जिन्हें जाने कब से जानती हूँ, कोई अजनबी लगता ही नहीं, सब अपने से! इसी तुफ़ैल में कई बार तो गड़बड़ मित्र भी मिल जाते
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