ब्राह्मणों का नर-संहार
वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस द्वारा उकसाए गए गुंडों और कांग्रेस के गुंडों द्वारा सिखों के किए गए भयानक और अवर्णनीय तरीके से क्रूर कत्लेआम, जिसे ‘सिख नर- संहार कहा जाना चाहिए, जिसमें देश भर में 3,400 सिखों (आधिकारिक आँकड़ा; अनधिकारिक आँकड़ा तो 8,000 से 17,000 तक जाता है) को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, नेहरू के राज के दिनों की एक खौफनाक मिसाल थे, जिसे दुर्भाग्य से दुनिया से छिपाकर रखा गया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद वर्ष 1948 में महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर हुए हमले, जिसे ‘ब्राह्मण नर-संहार’ भी कहा जा सकता है, करीब 8,000 लोगों की जानें गईं।
चूँकि गांधी की जान लेने वाले महाराष्ट्र के ब्राह्मण थे, इसलिए उनके पूरे समुदाय को निशाना बनाया गया। आरती अग्रवाल ने ‘महाराष्ट्रियन ब्राह्मण जीनोसाइड—8,000 किल्ड’ शीर्षक वाले एक लेख में लिखा— “ब्राह्मणों की जानें ली गईं, ब्राह्मण महिलाओं के साथ बलात्कार हुए, उनकी दुकानों और मकानों को आग के हवाले कर दिया गया, उनकी आजीविका नष्ट कर दी गई तथा ब्राह्मणों को अपने जीवन और आनेवाली पीढ़ियों की रक्षा के लिए पलायन को मजबूर होना पड़ा।...अपने घर से भागने का प्रयास करने के दौरान नारायण राव सावरकर और उनके परिवार पर पत्थरबाजी की गई। वे गंभीर रूप से घायल हो गए और अंततः 19 अक्तूबर, 1949 को उनकी मृत्यु हो गई।...अनुमान के मुताबिक, 8,000 ब्राह्मणों (1984 के सिख-विरोधी दंगों से अधिक) की हत्या की गई (क्योंकि इसका कोई आधिकारिक आँकड़ा दर्ज नहीं है!) और इसका कोई आधिकारिक आँकड़ा उपलब्ध नहीं है कि कितनों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा।...” (यू.आर.एल.98)
अगर किसी समुदाय का एक सदस्य किसी की हत्या कर दे तो उसके बदले में पूरे समुदाय को निशाना बनाने का क्या तर्क है? पूरी तरह से बेतुका! अगर कोई हत्यारा किसी विशेष धर्म या संप्रदाय या क्षेत्र अथवा जाति या समुदाय से संबंधित हो तो क्या उस पूरे समूह को ही निशाना बनाना शुरू कर दिया जाए? और अगर ऐसा होता है या फिर होने दिया जाता है तो फिर पुलिस प्रतिष्ठान और आपराधिक-न्याय प्रणाली की मौजूदगी का क्या मतलब रह जाता है?
लेकिन शायद राजनीति तमाम चीजों पर हावी हो जाती है। “इस नर-संहार से जुड़ा हर पहलू इस बात की ओर इशारा करता है कि यह एक पूर्व नियोजित अपराध था, जो एक विशेष धार्मिक समुदाय, महाराष्ट्र के ब्राह्मणों, को निशाना बनाने के इरादे से किया गया था। कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी होना, जिनकी सबसे बड़ी पहचान थी। सैकड़ों लोगों की भीड़ द्वारा इतने कम समय में ब्राह्मणों पर हमले करने के लिए बड़ी चालाकी और संचार के असाधारण उपकरणों की आवश्यकता होती है, जो उस दौर में तकनीकी तौर पर उपलब्ध नहीं थे। ये ‘दंगे’ नहीं थे, जैसाकि अकसर इनके बारे में कहा जाता है, बल्कि यह एक सुनियोजित नर-संहार था; क्योंकि यह सिर्फ किसी एक मोहल्ले या शहर में नहीं, बल्कि पूरे महाराष्ट्र की जमीन पर फैला हुआ था।...” (यू.आर.एल.98)
“यह एक ऐसा नर-संहार है, जिसके बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है, एक बार फिर जानबूझकर। वरना ऐसा हो ही नहीं सकता कि किसी एक धार्मिक समुदाय के इतने बड़े पैमाने पर हुए लक्षित जन-संहार के बारे में पता ही न हो, न ही उसे कहीं भी ठीक तरीके से प्रलेखित किया जाए! इन्हें लेकर सिर्फ उन्हीं भुक्तभोगियों के हवाले से जानकारी प्राप्त है, जिन्होंने इनके दंश को झेला था और उन लोगों के पास, जिन्होंने इस घटना के समय इस नर-संहार का दस्तावेजीकरण किया था। इस बात को मानने के हजारों कारण हैं कि इस नर-संहार से जुड़े सभी साक्ष्य नष्ट कर दिए गए, जिनमें तसवीरें और समाचारों के अंश भी शामिल थे।” (यू.आर.एल.98)
“गांधी की मृत्यु तो सिर्फ एक बहाना थी, ताकि...प्रशासनिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से इस क्षेत्र पर हावी अल्पसंख्यक समुदाय (ब्राह्मणों) के खिलाफ नफरत का माहौल बनाकर वोट बैंक को इकट्ठा किया जा सके। चितपावनों का भारतीय राष्ट्रवाद में बेहद महत्त्वपूर्ण योगदान था, जिस पर आज महाराष्ट्र के निवासी गर्व करते हैं। महादेव रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर आदि सभी चितपावन ब्राह्मण ही थे। मराठा प्रभाव को महाराष्ट्र के बाहर फैलानेवाले और अखिल भारतीय मराठा साम्राज्य की स्थापना करनेवाले पेशवा भी चितपावन ही थे। लेकिन जैसे ही एक चितपावन ब्राह्मण (गोडसे) ने गांधी की हत्या की, पूरे समुदाय को सारी घृणा की आँच का सामना करना पड़ा।...” (यू.आर.एल.99)
“भीड़ में आखिर कौन लोग शामिल थे? स्पष्टतः वे ब्राह्मण-विरोधी कार्यकर्ता, राजनीतिक समूह और कुछ चुनिंदा कांग्रेसी गुंडों के समूह थे। आखिर क्यों कभी एक उचित औपचारिक जाँच तक शुरू नहीं की गई? दोषियों को सजा क्यों नहीं मिली? स्वयंभू प्रधानमंत्री नेहरू और अहिंसा की कसम खानेवाले के चेले ने ऐसे एक निंदनीय और व्यापक हिंसा तथा स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद देश के पहले नर-संहार (विभाजन को छोड़कर) के लिए जिम्मेदार लोगों को कानून के दायरे में लाना तक मुनासिब नहीं समझा।”