डॉ. राजेंद्र प्रसाद के प्रति दुर्व्यवहार
स्वतंत्रता सेनानियों के बीच डॉ. राजेंद्र प्रसाद का अकादमिक रिकॉर्ड सबसे बेहतर था (डॉ. आंबेडकर को छोड़कर)। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. किया। उनके जवाबों से प्रभावित होकर एक बार एक परीक्षक ने उनकी उत्तर पुस्तिका पर टिप्पणी की, “परीक्षार्थी परीक्षक से बेहतर है।” (अरु/159) उन्होंने अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाएँ दीं और एक कॉलेज के प्रधानाचार्य के रूप में भी। बाद में कलकत्ता में कानून की पढ़ाई के दौरान उन्होंने कलकत्ता सिटी कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में भी काम किया। उन्होंने मास्टर्स अॉफ लॉ की परीक्षा में स्वर्ण पदक जीता। उन्होंने अपना डॉक्टरेट-इन-लॉ किया।
उनका वकालत का काम पूरे जोरों पर था, जब उन्होंने अपने कॅरियर के शीर्ष पर स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उसे छोड़ दिया। उनकी कानूनी योग्यता और उपयुक्तता के मद्देनजर उन्हें सर्वसम्मति से संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में चुना गया था। लेकिन वे नेहरू के पक्ष के नहीं थे, इसलिए नेहरू ने उन्हें किनारे लगाने के हर संभव प्रयास किए। डॉ. राजेंद्र प्रसाद के भारत का पहला राष्ट्रपति बनने की संभावनाओं को समाप्त करने के लिए नेहरू ने झूठा दिखावा भी किया। पूर्व खुफिया अधिकारी आर.एन.पी. सिंह की पुस्तक ‘नेहरू : ए ट्रबल्ड लीगेसी’ के अनुसार, नेहरू ने 10 सितंबर, 1949 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद को लिखा था कि उन्होंने (नेहरू ने) और सरदार पटेल ने फैसला किया था कि ‘सबसे सुरक्षित और अच्छा यह रहेगा’ कि सी. राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाया जाए; जबकि नेहरू ने इस विषय पर कभी सरदार पटेल से न तो बात की थी और न ही उनकी सहमति ली थी। उनका यह झूठ तब पकड़ा गया, जब राजेंद्र प्रसाद ने इस मामले को पटेल के सामने रखा। आर.एन.पी. सिंह कहते हैं— “नेहरू ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति का पद हासिल न करने देने के लिए अपनी तरफ से पूरे प्रयास किए और इन प्रयासों में झूठ बोलना तक शामिल था।” (आर.एन.पी.एस./46)
नेहरू यह नहीं चाहते थे कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद सन् 1957 में राष्ट्रपति के रूप में दूसरे कार्यकाल के लिए निर्वाचित हों। आखिर में, वे इस स्तर तक गिर गए कि वे अपने भाषणों में आरोप लगाने लगे कि उच्च पदों पर बैठे लोगों की मानसिकता अब अपनी कुरसी से चिपके रहने की हो गई है और उन्हें उस टिप्पणी के खुद पर होने वाले प्रभाव का अहसास तक नहीं था। हालाँकि, नेहरू के तमाम प्रयासों और षड्यंत्रों के बावजूद डॉ. राजेंद्र प्रसाद दोबारा निर्वाचित होने में सफल रहे।
दुर्गा दास के अनुसार— “जब डॉ. राजेंद्र प्रसाद बेहद बीमार थे और उनके बचने की कोई संभावना नहीं थी, तब नेहरू ने अपने सबसे खासमखास सिपहसालार लाल बहादुर शास्त्री को इस बात की जिम्मेदारी सौंपी कि वे उनके अंतिम संस्कार के लिए गांधी की समाधि से जितनी दूर हो सके, उतनी दूर जगह तलाशें! नेहरू नहीं चाहते थे कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद को कोई शाेहरत मिले।” (डी.डी.) हालाँकि, राजेंद्र प्रसाद स्वस्थ हो गए। डॉ. राजेंद्र प्रसाद का निधन बिहार में हुआ और उनका अंतिम संस्कार पटना में किया गया। नेहरू यह कहते हुए उसमें शामिल नहीं हुए कि वे गुजरात चुनाव के लिए धन इकट्ठा करने के काम में व्यस्त हैं! उस समय नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन को सलाह दी थी, “मुझे आपके वहाँ जाने की कोई वजह नहीं दिखाई देती।” डॉ. राधाकृष्णन ने जवाब दिया, “नहीं, मुझे लगता है कि मुझे जाना चाहिए और उनके अंतिम संस्कार में शामिल होना चाहिए। यह उनके प्रति सम्मान है, जो उन्हें दिया जाना चाहिए। मेरा मानना है कि आपको अपना सफर रोककर मेरे साथ आना चाहिए।” लेकिन नेहरू ने अपना कार्यक्रम नहीं बदला। (डी.डी./329)
नेहरू इतने दंभी थे कि वे यह कहते हुए डॉ. राजेंद्र प्रसाद को विदेशी दौरों की अनुमति तक नहीं देते थे कि वे विदेशों में एक पर्याप्त धर्मनिरपेक्ष छवि नहीं पेश करते हैं! अपने पहले कार्यकाल में राष्ट्रपति ने सिर्फ नेपाल का दौरा किया। अपने दूसरे कार्यकाल में उन्होंने जापान समेत कुछ एशियाई देशों का दौरा किया और मेजबान देशों पर बहुत अच्छा प्रभाव छोड़ा। अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहाॅवर ने उन्हें अमेरिका आने का आमंत्रण दिया, लेकिन नेहरू ने उसमें अपनी टाँग अड़ा दी। नेहरू ने सोमनाथ को लेकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद की राह में कितने रोड़े अटकाए, यह जानने के लिए भूल#87 पढ़ें।