Manzile - 40 in Hindi Motivational Stories by Neeraj Sharma books and stories PDF | मंजिले - भाग 40

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मंजिले - भाग 40

ईमानदार ---------मंज़िले कहानी सगरहे की मेरी सब से सुंदर कला कृति......
पांच बड़े माहल ऊपर के ऊपर.... मेरी सारी गर्दन देखने मे ही पीछे जा टिकी। ईमानदारी से इतना बिजनेस कैसे खड़ा करते है, लोग, सोचता हूँ मैं। ईमानदारी की तो रोटी मसा चलती है। ये कैसे सब कर लेते है।
सोच ही रहा था, सौ रहे वाच मैन ने कहा ---" बाबू जी कया ऊपर से नीचे, फिर नीचे से ऊपर देख रहे हो... रोज यही कयो आते हो ----? देखने वाला पाठक था। गरीब परिवार का मातड लड़का... कया बताये --- " जो बीच बैठे है सब चोर है, या कोई काला इतहास रचते है। " वाच मैन ने करीब बुला कर करीब बिठा लिया, एक एक रोटी अचार से खायी, फिर कॉफ़ी मशीन से दो कप ले आया।
" बोला कह दू, बाबू जी इनको सकून नहीं है, ये आपनी जात के नहीं है, हमें सकून है। " फिर चूप। 
वो नमस्ते कर के चल पड़ा। सोचने लगा ---- " अब ये सकून कया है " बईमानी तो नज़र आ गयी... ईमानदारी तो है नहीं पास उनके, पर इससे हमें कया फर्क। " 
सोच ही रहा था। आपनी बसती मे पंहुचा। बापू को देख कर माथे पे त्यूड़ी पड़ गयी। उसे पता लग चूका था, उसका बाप एक नंबर का पियकड़ चोर था। अब माँ तो माँ ही होती है... बस एक यही था उसे देखने को।
                                   पाठक सोचता था, अब उम्र तो अभी तेरा साल है, ग़रीबी मे कब बड़ी हो जाये कोई नहीं जानता, उम्र भी ग़रीबी मे एक दम से घेरा डाल लेतीं है।
                                 कुछ अभी से ऐसा करू, कि पैसे हाथ मे हो, नहीं तो दर दर की ठोकरे ही मेरा सब का खराब इतहास होगा।
                                  पैसा है कोई पूछता है वर्ना कोई नहीं। जो उम्र उसकी पढ़ाई को खप्त होनी थी, उसने पैसे जोड़ने के लिए तैयार करनी शुरू की। पैसा बईमानी का हो, चाये काहे का हो, पैसा तो पैसा है।
                                  रात को अब नीद कहा थी। उसे चिंता सताने लगी थी, भविष्य की। बस और कुछ नहीं था।
पैसा है सब चूप। नहीं है तो सब बेदखल... छोटे से लडके को कह सकते है चिता का फूफासिया नामक बीमारी हो चुकी थी। दिन के सफर मे वो शॉप जयादा बस लोकल यहां खड़ती थी वही रुकता था... और कुछ न कुछ हाथ मार लेता था.. बड़ी मासूमियत से। एक दिन किसी ने ब्रिफकेस और आपना हाथ सड़क पार कराने के लिए आगे किया। वो अंधा था। बस फिर कया बाते करते करते चपत हो गया। वो अंधा व्यक्ति दिल्ली शहर मे बच कर बैठा रह गया।
                        ज़ब वो पंहुचा रात के टिकाने पर। यहां वीरान सी एक कोठरी थी। वही उसने वो ब्रिफकेस छुपा दिया, कि रात के बाद, दिन को खोलूँगा... किसी भी करके। सोने गया। माँ रो रही थी... घर मे दो फुल्के बने और साथ अचार था। बापू आज पता नहीं कयो नहीं आया था। चलो पुत्र ने,कहा, " हमें कया माँ --- उसे न तेरी फ़िक्र न मेरी.. सब जहाँ मे आपनी फ़िक्र ही हम करने आये है। " फिर वो एक रोटी माँ को देता कहता " जरुरी नहीं माँ दिन सदा एक जैसे ही हो। " फिर चूप पसर गयी।
"----हाँ, बेटा माँ तेरी अच्छी सी परवरिश भी नहीं कर पायी।" बेटा हसता हुआ बोला " माँ एक बात बोलू... गरीब के बच्चे उम्र के पहले ही जुबा और बड़ी बाते करने लगते है, माँ मुझे बता ऐसा कयो....? ?
माँ की आँखो मे आंसू की धारा चल वसी... नम आँखो से उसने कहा " बेटा जन्म देना, अधिकार नहीं होता.... " बेटे ने माँ की बात काटी " नहीं ... माँ नहीं... पंक्षी भी तो इतना ही करते है, शेर भी तो इतना ही करता है। " 
फिर चूप।
सूरज बहुत से खाबो को ले के पाठक के पास जैसे ठहर गया।
थका था, सोता होने के कारण माँ आज कनक लेने साथ मुहल्ला मे चली गयी।
एक दम से उठा। पाठक.... ने न आव देखा न ताव।
भाग कर वही पंहुचा। किसी तरा बरीफकेस खोला... पहले तो कागज़ ही इतने देख कर जैसे सपने उसके चीख पड़े। फिर नीचे देखा ------" तो 100 के एक लाख था। " 
वो इतना खुश था, पूछो मत। उसने जमीन मे टोया करके उसके बीच ही ब्रिफकेश के समेत रख दिया, पांच नोट निकाल लिए... ऊपर मिटी डाल दी। ऐसी प्लसती की कि किसी को शक न हो। ( सपना खींची तानी से सुलझा लो, अगर तानी ज़ब उलझें गी, तब पता लगे गा पाठक को, सकून और ईमानदार किसको कहते है।] बच्चे को तो रब भी माफ़ कर देता है, पर फिर भी हम बाईमान होकर भी उसे माफ़ कयो नहीं करते।
ये कहानी सत्य है। पर ये मालयम फ़िल्म मे कभी देखी थी.. लघु मूवी।
(चलदा )-------------------------- नीरज शर्मा 
                             शहकोट, जलाधर।