(प्रतिध्वनि की पुकार)
स्थान: काशी
समय: कुछ दिन बाद
डायरी के अंतिम पृष्ठ पर उभरा एक ही शब्द — “काशी” — रिया के लिए महज़ कोई स्थान नहीं था, वह किसी गहरे संकेत की तरह था। हरिद्वार की हवेली में मिली “1892” की पुरानी तस्वीर, बाबा की अधूरी बातें, और उस वृद्ध तपस्वी की रहस्यमय मुस्कान — सब कुछ जैसे इसी ओर इशारा कर रहा था।
इस बार रिया ने कोई सवाल नहीं किया। उसने ट्रेन पकड़ी और बनारस की ओर निकल पड़ी — उस शहर की ओर, जो खुद एक जीवित कथा है।
रास्ते भर वही डायरी उसकी गोद में खुली रही। उसकी आँखें शब्दों पर थीं, पर मन किसी और ही यात्रा पर।
हर पंक्ति उसके भीतर प्रतिध्वनि बनकर गूंज रही थी —
“जो प्रेम मौन रहा, वही अग्नि की तरह अमर है।”
काशी पहुँचना जैसे समय की सीढ़ियाँ उतरना था।
शहर की गलियों में भीड़ थी, चहल-पहल थी, लेकिन हर कोने में कोई स्थिरता पसरी थी।
सड़कें जैसे किसी पुराने युग की साँसें थीं, और घाटों पर बैठा मौन — किसी अनकहे प्रेम की परछाई।
रिया तुलसी घाट पहुँची। सूर्य ढल रहा था।
गंगा के जल पर सोने की तरह बिखरी रौशनी, और हवाओं में एक अजीब सी शांति — वह दृश्य रिया को भीतर तक छू गया।
और तभी — बाँसुरी की एक कोमल सी धुन हवा में तैरने लगी।
वही धुन, जो रिया ने कभी सिर्फ अपने भीतर सुनी थी — हरिद्वार में, अपने सपनों में।
उसने धीरे से पीछे मुड़कर देखा।
एक युवक, साधारण सफेद कुर्ते में, आँखें मूँदे बाँसुरी बजा रहा था।
उसका चेहरा जाना-पहचाना लग रहा था, जैसे रिया ने उसे कहीं देखा हो... या शायद महसूस किया हो।
कुछ था उस मौन में — वह धुन जैसे रिया के भीतर उतरती चली गई।
वह धीमे-धीमे उसकी ओर बढ़ी।
कदम भारी थे, पर हृदय किसी अदृश्य धागे से खिंचता चला गया।
“क्या तुम्हारा नाम विष्णु है?” — रिया ने पूछा।
युवक ने बाँसुरी बजाना बंद किया।
उसने आँखें खोलीं। उसकी आँखों में कोई गहराई थी — जैसे शब्दों से परे कोई पीड़ा, कोई प्रतीक्षा।
लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
बस रिया को वैसे ही देखता रहा — जैसे उसे पहचान रहा हो।
रिया की साँसें थम गईं।
वह कुछ बोलने ही वाली थी कि उसने डायरी खोली।
अंतिम पृष्ठ पर अब एक नई पंक्ति उभर आई थी —
“तुम जहाँ मौन हो, वही मेरा स्वर है।”
रिया काँप उठी।
यह पंक्ति पहले वहाँ नहीं थी।
उसने तुरंत युवक की ओर देखा — पर अब वह वहाँ नहीं था।
न बाँसुरी, न पदचिन्ह।
बस गंगा की लहरों में वह धुन अब भी बह रही थी।
रिया हड़बड़ाकर चारों ओर देखने लगी।
तभी एक वृद्ध साधु उसके पास आया।
उसके हाथ में वही पुरानी तस्वीर थी — “1892” की।
बिलकुल वही, जो रिया को हरिद्वार की हवेली में मिली थी।
“आपके पास ये कहाँ से आई?” — रिया ने आश्चर्य से पूछा।
वृद्ध साधु ने गंगा की ओर नज़रें टिकाए हुए कहा —
“यह मेरे दादा की है।
विष्णुदत्त नाम था उनका। कहते हैं, उन्होंने एक कन्या से प्रेम किया था — राध्या से।
लेकिन वह प्रेम कभी शब्दों में नहीं ढल सका।”
रिया की आँखें भर आईं।
दिल की गहराइयों में कुछ टूटकर, फिर जुड़ने जैसा महसूस हुआ।
वह फिर उस युवक की ओर मुड़ी — लेकिन घाट अब सूना था।
सिर्फ लहरें थीं, और लहरों में बहती वह धुन।
रिया ने धीरे से तस्वीर की ओर देखा —
अब उसमें तारीख बदल चुकी थी —
“1892 – 2025”
और डायरी का अगला पृष्ठ अपने-आप पलट गया।
नीचे एक नई पंक्ति चमक रही थी —
“कुछ पुनर्मिलन वक़्त में नहीं होते… वे मौन की साँस में लौटते हैं।”
रिया की उँगलियाँ काँपने लगीं।
और उसी के नीचे एक शब्द उभरा —
“प्रयाग”
रिया ने गंगा की ओर देखा — अब वह बस एक नदी नहीं रही थी।
वह प्रतीक थी — प्रतीक्षा की, पुनर्मिलन की, और उस मौन प्रेम की जो कभी बोला नहीं गया...
लेकिन अब वह लौट रहा था — नई यात्रा के संकेत के साथ।
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[जारी है…]