जो कहा नहीं गया – भाग 8
(छाया का नाम)
स्थान: काशी, तुलसी घाट
समय: अगले दिन, सातवाँ प्रहर
रिया पूरी रात सो नहीं पाई। "सुबह सातवें प्रहर लौटना" — यह वाक्य उसके कानों में गूंजता रहा।
गंगा किनारे के एक छोटे धर्मशाला के कमरे में वह बैठी डायरी के पुराने पन्ने पलटती रही, लेकिन कोई नया शब्द उभरकर सामने नहीं आया। ताबीज तो संगम में खो चुका था, पर उसका बोझ जैसे अब भी उसकी हथेली में महसूस हो रहा था।
सूरज की पहली किरण घाट पर गिरी, तो वह सीधा "मौन सीढ़ियों" की ओर बढ़ी। रास्ता वैसा ही था — सुनसान, धूल और सीलन की गंध से भरा। जैसे-जैसे वह नीचे उतरती, हवा और ठंडी होती गई।
सीढ़ियों के अंत में फिर वही टूटा दरवाज़ा। उसने गहरी साँस ली और भीतर कदम रखा।
इस बार अँधेरा पूरी तरह चुप था। पर अचानक, कहीं दूर से घंटियों की धीमी-सी ध्वनि आने लगी — टुन… टुन…
वह आवाज़ के पीछे बढ़ी, और एक संकरी सुरंग से होते हुए एक खुले आँगन में पहुँची।
आँगन के बीचोंबीच एक चबूतरा था, और उस पर एक पुरानी पीतल की मूर्ति रखी थी — दो आकृतियाँ, एक पुरुष और एक स्त्री, लेकिन उनके चेहरे अधूरे, मानो जानबूझकर मिटा दिए गए हों।
मूर्ति के नीचे एक पंक्ति खुदी थी:
"वो मिलेंगे… जब अतीत और वर्तमान एक ही साँस लेंगे।"
रिया पास जाकर देख रही थी कि अचानक पीछे से कदमों की आहट हुई। उसने मुड़कर देखा — वही छाया, जो कल घाट के कोने पर खड़ी थी।
अब वह नज़दीक थी। लंबा कद, सादा सफेद कुर्ता, और चेहरा… आधा रोशनी में, आधा अँधेरे में छिपा।
"तुम… कौन हो?" रिया ने धीमे स्वर में पूछा।
वह आदमी कुछ पल चुप रहा, फिर धीरे से बोला —
"तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था।"
"क्यों?"
"क्योंकि जो उत्तर तुम खोज रही हो… वो तुम्हें मुझ तक लाकर नहीं रुकेंगे। वे तुम्हें वहाँ ले जाएँगे, जहाँ से लौटना शायद संभव न हो।"
रिया की धड़कन तेज़ हो गई।
"क्या तुम… विष्णु हो?" उसने लगभग फुसफुसाते हुए पूछा।
उसने हल्की मुस्कान दी, लेकिन कोई जवाब नहीं दिया।
इसके बजाय उसने जेब से एक छोटा-सा कपड़े का थैला निकाला और उसकी ओर बढ़ाया।
रिया ने थैला खोला — उसमें एक और ताबीज था।
लेकिन इस बार उस पर कोई नाम नहीं, केवल एक प्रतीक — गंगा की लहरों के बीच उगता आधा चाँद।
"इसे रखना," उसने कहा, "क्योंकि अगला संकेत जल में नहीं, समय में छिपा है।"
रिया कुछ पूछ पाती, उससे पहले उसने मुड़कर अँधेरी सुरंग में कदम रख दिया।
वह पीछे-पीछे गई, पर सुरंग खाली थी। हवा ठंडी थी, और दीवार पर केवल एक ताज़ा उकेरी हुई पंक्ति —
"भाग्य उन्हीं को छूता है, जो अँधेरे से पीछे नहीं हटते।"
रिया बाहर आई तो घाट पर लोगों की चहल-पहल शुरू हो चुकी थी।
लेकिन उसकी नज़र बार-बार उस थैले में रखे ताबीज पर जा रही थी।
उसी समय डायरी के पन्ने अपने आप खुलने लगे। एक नया शब्द उभरा —
"चंद्रपर्व"
उसके नीचे एक तारीख थी… और वह तारीख आज से केवल तीन दिन बाद की थी।
रिया ने गंगा की ओर देखा — पानी जैसे और गहरा हो गया था।
और पानी की सतह पर, क्षण भर के लिए, उसने साफ देखा — विष्णु का चेहरा… मुस्कराता हुआ… फिर लहरों में विलीन।