Dr. Syama Prasad Mookerjee in Hindi Short Stories by Mini Kumari books and stories PDF | डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी

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डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी

डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी के प्रति दुर्व्यवहार 

डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी (1901-1953) सर आशुतोष मुखर्जी (1864-1924) के पुत्र थे, जो ‘बंगलार बाघ’ या ‘टाइगर अ‍ॉफ बंगाल’ के नाम से प्रसिद्ध थे। आशुतोष मुखर्जी एक महान् शिक्षाविद् थे, जिन्होंने बंगाल तकनीकी संस्थान, कॉलेज अ‍ॉफ साइंस, यूनिवर्सिटी कॉलेज अ‍ॉफ लॉ एवं कलकत्ता मैथमेटिकल सोसाइटी जैसे कई शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना में मदद की थी और वर्ष 1906-1914 के दौरान कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में सेवाएँ भी प्रदान की थीं। 

डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी बिल्कुल अपने पिता के शानदार नक्शे-कदम पर ही चले। सन् 1934 में मात्र 33 साल की उम्र में कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे कम उम्र के कुलपति बने और 1938 तक इस पद पर बने रहे। वे एक शानदार वक्ता भी थे। 

वे सन् 1929 में और फिर 1937 में बंगाल विधान परिषद् के लिए चुने गए। कांग्रेस से मोहभंग होने पर वे एन.सी. चटर्जी के साथ सन् 1939 में हिंदू महासभा में शामिल हो गए। उन्होंने 1941 में बंगाल के वित्त मंत्री के रूप में शपथ ली। उन्हें 1943 में बंगाल की ‘रॉयल एशियाटिक सोसाइटी’ के पहले भारतीय अध्यक्ष के रूप में चुना गया। वे स्वतंत्रता के बाद नेहरू के मंत्रिमंडल में उद्योग व आपूर्ति मंत्री बने और कांग्रेस में शामिल हो गए। उनका प्रदर्शन बेहद शानदार था— चित्तरंजन लोकोमोटिव फैक्टरी, हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट फैक्टरी और सिंदरी फर्टिलाइजर वर्क्स उनके ही नेतृत्व में शुरू हुईं। 

लेकिन अगर उन्होंने प्रयास नहीं किए होते तो आज भारत में बंगाल का नामोनिशान ही नहीं होता (पूरा-का-पूरा पाकिस्तान में चला गया होता) उन्होंने सन् 1947 में बंगाल का विभाजन सुनिश्चित करवाया। 

उन्होंने नेहरू द्वारा पूर्वी बंगाल की शरणार्थी समस्या और कश्मीर मामले से निबटने के तरीके की निंदा की। उनके नेहरू के साथ गंभीर मतभेद थे। उन्होंने सन् 1950 के ‘नेहरू-लियाकत समझौते’ (भूल#48) की खिलाफत की और विरोध में कैबिनेट से इस्तीफा देकर कांग्रेस छोड़ दी। उन्होंने 21 अक्तूबर, 1951 को भारतीय जन संघ की सह-स्थापना की और उसके पहले अध्यक्ष बने। 

डॉ. मुखर्जी ने कश्मीर के मसले पर नेहरू को विभिन्न मौकों पर बिल्कुल स्पष्ट रूप से लिखा— 
“आपके भाषणों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि उसमें गालियों और बदजुबानी की बहुतायत रही है, जो आपने उन लोगों को दी हैं, जिन्होंने आपका विरोध किया है। आपने हम पर हर प्रकार के आक्षेप लगाए हैं और हमें देश के हितों को नुकसान पहुँचाने वाला तक करार दिया है। मैं इस विषय में आपकी नकल करना नहीं चाहता हूँ। (सांप्रदायिकता पर) यह सबसे अनुचित आरोप है और आप शायद अपनी हालिया नाकामयाबियों को छिपाने के लिए ऐसे हमले कर रहे हैं। कश्मीर समस्या को लेकर हमारा दृष्टिकोण उच्‍चतम राष्ट्रीय और देशभक्तिपूर्ण विचारों से परिपूर्ण है। अगर मैं जम्मू आंदोलन के परिणामस्वरूप संभावित अंतरराष्ट्रीय जटिलताओं के लिए आपके संदर्भ की सराहना करने में विफल रहता हूँ तो उसके लिए मुझे क्षमा करें। आज कोई भी इस बात का दावा नहीं कर सकता कि कश्मीर समस्या से निपटने के आपके तरीके से हमारी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ी है या हमें व्यापक अंतरराष्ट्रीय समर्थन या सहानुभूति मिली है। दूसरी ओर, इस संबंध में आपकी नीति ने देश और विदेश—दोनों ही जगहों पर परेशानियों को बढ़ाया ही है।” (मैक/429) 

उन्होंने जम्मू व कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद-370 का विरोध किया (डॉ. आंबेडकर एवं सरदार पटेल सहित कई अन्य लोगों ने भी इसके प्रति नाराजगी जताई थी) और उन्होंने कश्मीर के अपने अलग झंडे तथा प्रधानमंत्री वाले विशेष दर्जे को दिए जाने का विरोध किया, जिसके अनुसार कोई भी, यहाँ तक कि भारत का राष्ट्रपति भी, बिना कश्मीर के प्रधानमंत्री की इजाजत के प्रदेश में नहीं घुस सकता! उन्होंने एक नारा दिया— “एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे।” (एक देश में दो संविधान, दो प्रधानमंत्री और दो राष्ट्रीय प्रतीक नहीं हो सकते।) 

इतिहासकार मक्खन लाल ने लिखा— 
“यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जम्मूव कश्मीर के भारत में पूर्णविलय और एक संविधान, एक झंडे और एक प्रधानमंत्री की जनता की माँग को ‘देशद्रोह’ के रूप में आँका जाए। जिन्होंने प्रत्येक समझौते का उल्लंघन किया, जिन्होंने विश्वासघाती व्यवहार किया और भारतीय संविधान का मजाक उड़ाया, उन्हें आज ‘राष्ट्रवादी’ कहा जाता है! ऐसा सिर्फ जवाहरलाल नेहरू ही कर सकते थे।” (मैक/430-31) 

डॉ. मुखर्जी ने इसके विरोध में 11 मई, 1953 को कश्मीर में घुसने का प्रयास किया और उन्हें जम्मूव कश्मीर के प्रधानमंत्री (!!) शेख अब्दुल्ला द्वारा सीमा पर ही गिरफ्तार करके एक टूटे-फूटे स्थान पर रखा गया। कहा जाता है कि यह सब नेहरू की जानकारी में ही हुआ था। 

तथागत राय द्वारा लिखी गई श्यामा प्रसाद मुकर्जी की जीवनी से उद‍्धृत— 
“जब डॉ. मुकर्जी ने स्पष्ट रूप से जम्मू जाने के अपने इरादे के बारे में बताया, तो सुचेता कृपलानी उनसे मुलाकात करने आईं। सुचेता के बारे में यह याद रखना आवश्यक है कि वे एक बंगाली थीं और उन्होंने आचार्य जे.बी. कृपलानी से विवाह किया था तथा उन्होंने सन् 1946 में तबाही का दंश झेल रहे नोआखाली में गांधीजी के दौरे के दौरान उनकी सहायता की थी। बलराज मधोक का यह कहना था (टेप पर)—सुचेता कृपलानी ने उनसे कहा, कई अन्य लोगों ने भी उनसे कहा कि आप वहाँ न जाएँ। नेहरू आपको किसी भी सूरत में वहाँ से वापस नहीं लौटने देंगे। डॉ. मुकर्जी ने सुचेता से कहा, ‘मेरी नेहरू से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है। मैं एक उद‍्देश्य के लिए काम कर रहा हूँ तो फिर उनके मन में मेरे लिए बदले की भावना क्यों होगी?’ तब सुचेता ने डॉ. मुकर्जी से कहा, ‘आप नेहरू को नहीं जानते, मैं जानती हूँ। वे आपको अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखते हैं और वे अपनी पूरी क्षमता के साथ आपको मैदान से हटाने का हर संभव प्रयास करेंगे।’ ” (टी.आर.2) 

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक पत्रकार के रूप में उस समय तक डॉ. मुखर्जी के साथ मौजूद थे (एक पत्रकार के रूप में), जहाँ उन्हें गिरफ्तार किया गया। उन्होंने वर्ष 2004 में आरोप लगाया, “जब मुखर्जी ने बिना परमिट के जम्मू व कश्मीर में प्रवेश कर परमिट कानून का उल्लंघन करने का फैसला किया, तब हमें इस बात की उम्मीद थी कि पंजाब सरकार उन्हें गिरफ्तार कर लेगी और आगे जाने से रोक लेगी। हालाँकि, ऐसा नहीं हुआ। बाद में हमें पता चला कि जम्मूव कश्मीर और नेहरू की सरकार एक साथ मिल चुके थे, जिसके अनुसार, तय यह किया गया था कि मुखर्जी को राज्य में घुसने तो दिया जाएगा, लेकिन उन्हें बाहर निकलने की अनुमति नहीं प्रदान की जाएगी।” (यू.आर.एल.68) 

वाजपेयी ने आरोप लगाया कि नेहरू सरकार को डर था कि अगर मुखर्जी को जम्मूव कश्मीर में प्रवेश नहीं करने दिया गया तो देश के साथ राज्य के एकीकरण पर सवाल उठाए जाएँगे, जिसमें पहले से ही कई कमियाँ थीं। इसलिए ‘जम्मू व कश्मीर सरकार से कहा गया था कि उन्हें वहाँ से वापस लौटने की अनुमति प्रदान न की जाए।’ 

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स्वतंत्र भारत ने जिस प्रकार का अपमानजनक व्यवहार डॉ. मुखर्जी के साथ किया, वैसा तो ब्रिटिशों ने कांग्रेसी स्वतंत्रता सेनानियों, जिनमें गांधीवादी नेतृत्व भी शामिल था (भूल#113), के साथ भी नहीं किया। डॉ. मुखर्जी को बिना किसी आरोप और मुकदमे के 42 दिनों तक हिरासत में रखा गया। डॉ. राधाकृष्णन, मौलाना आजाद और नेहरू जैसे गण्यमान्य लोग उस अवधि के दौरान श्रीनगर गए; लेकिन किसी ने भी डॉ. मुखर्जी से मिलने की जहमत नहीं उठाई। मौलाना आजाद और नेहरू 16 से 21 मई, 1953 के दौरान श्रीनगर में ही थे। नेहरू इतने अधिक विचारशील, सुसंस्कृत और मानवीय थे!
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 डॉ. मुखर्जी का स्वास्थ्य पहले ही अच्छा नहीं था और जान-बूझकर किए गए ऐसे अमानवीय व्यवहार ने उनके स्वास्थ्य को और अधिक बिगाड़ दिया। जम्मू व कश्मीर सरकार और शेख अब्दुल्ला का व्यवहार (नेहरू को निश्चित रूप से पूरे घटनाक्रम की जानकारी होगी) उनके प्रति इतना अधिक घिनौना और क्रूर था कि उन्हें हिरासत में लिये जाने के पूरे डेढ़ महीने बाद अस्पताल ले जाया गया! और इलाज का ढंग इतना अधिक लापरवाही भरा था कि उनके द्वारा पहले ही डॉक्टरों को बता दिया गया था कि उन्हें पेनिसिलिन से एलर्जी है, इसके बावजूद उन्हें उसका इंजेक्शन दिया गया। क्या नेहरू उनके लिए वहाँ एक हृदय रोग विशेषज्ञ नहीं भेज सकते थे या फिर उन्हें दिल्ली नहीं लाया जा सकता था? डॉ. मुखर्जी 23 जून, 1953 को इन अत्याचारों के चलते स्वर्ग सिधार गए।

 इतनी बड़ी हस्ती की मौत, वह भी सरकार की हिरासत में और कई माँगों के बावजूद कोई जाँच आयोग तक नहीं गठित किया गया! नेहरू ने उपेक्षापूर्ण तरीके से बताया कि वे जाँच कर चुके हैं और उन्हें इस बात का भरोसा था कि कुछ भी गलत नहीं है। क्या वे जासूस थे? प्रधानमंत्री की ओर से इतनी अपरिपक्व टिप्पणी! और अगर उनके हिसाब से कुछ गलत नहीं था तो एक जाँच आयोग को इस बात को स्थापित करने देते। बंगाल के मुख्यमंत्री बी.सी. रॉय, एम.आर. जयकर, पी.डी. टंडन, एम.वी. कामथ, एच. कुँजरू, सुचेता कृपलानी, एन.सी. चटर्जी और अतनु घोष जैसे दिग्गजों ने डॉ. मुखर्जी की मृत्यु की जाँच की माँग की थी; डॉ. मुखर्जी की माँ श्रीमती जोगमाया देवी द्वारा भी, लेकिन नेहरू ने जान-बूझकर उन्हें अनसुना कर दिया। कई प्रमुख हस्तियों ने जाँच न करवाने को लेकर नेहरू का विरोध किया, लेकिन नेहरू अपनी बात पर अड़े रहे। 

निराश होकर डॉ. मुखर्जी की माँ श्रीमती जोगमाया देवी ने आखिरकार नेहरू को लिखा— 
“आपको आगे संबोधित करना पूरी तरह से निरर्थक है। आप सच्‍चाई का सामना करने से डरते हैं। मैं कश्मीर सरकार को अपने बेटे की मौत के लिए जिम्मेदार मानती हूँ। मैं आपकी सरकार पर भी इस मामले में मिलीभगत का आरोप लगाती हूँ। आप एक झूठे प्रचार को चलाए रखने के लिए अपने तमाम साधनों का प्रयोग कर सकते हैं; लेकिन सच एक दिन जरूर सामने आएगा और आपको एक-न-एक दिन भारत की जनता तथा स्वर्ग में ईश्वर को जवाब देना ही होगा।” (मैक/439) 

यह लोकतंत्र नहीं था, बल्कि नेहरू के नेतृत्व में निरंकुशता थी। नेहरूवादी दौर में ऐसे कई मामले सामने आए, जो नेहरू या फिर उनकी सरकार को प्रभावित कर सकते थे और सरकार ने या तो उनका संज्ञान ही नहीं लिया या फिर उनकी जाँच ही नहीं करवाई गई। और अगर जनता के दबाव के चलते ऐसा किया भी गया तो उन्हें बाद में रफा-दफा कर दिया गया। जिन मामलों को रफा-दफा न किया जा सका, उनके निष्कर्षों को या तो दबा दिया गया या फिर गोपनीय बना दिया गया, जैसे सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध में हार की वजह जानने के लिए गठित हेंडरसन ब्रूक्स- भगत रिपोर्ट। अगर मौजूदा दौर के मीडिया का 5 प्रतिशत भी उस समय मौजूद होता तो नेहरू का खुलासा उनके कार्यकाल के प्रारंभिक दौर में ही हो गया होता। 

गौरतलब है कि डॉ. मुखर्जी की शहादत के तीन महीने के भीतर ही नेहरू मूर्ख साबित हुए और शेख अब्दुल्ला को गद्दी से हटाकर जेल में बंद करना पड़ा था।